27 अक्टूबर 2009

भागवत (सुखसागर) की कथाएँ – उत्तरा के गर्भ की रक्षा


अश्वत्थामा को अपमानित कर शिविर से निकाल देने के पश्चात सारे पाण्डव अपने स्वजनों को जलदान करने के निमित्त धृतराष्ट्र तथा श्रीकृष्णचन्द्र को आगे कर के अपने वंश की सम्पूर्ण स्त्रियों के साथ गंगा तट पर गये. स्त्रियाँ कुररी की भाँति विलाप करती हुई गईं, उनके शोक से व्याकुल होकर धर्मराज युधिष्ठिर अति दुखी हुये. धृतराष्ट्र, गांधारी, कुन्ती और द्रौपदी सभी अपने पुत्रों, पौत्रों तथा स्वजनों के लिये शोक करने लगीं. उनके शोक के शमन के लिये श्रीकृष्ण ने धौम्य तथा वेदव्यास आदि मुनियों के साथ उन सब को अनेक प्रकार की युक्तियों से दृष्टांत देकर सन्त्वाना दी और समझाया कि यह संसार नाशवान है. जो जन्मा है उसकी मृत्यु निश्चित है, सभी काल के आधीन हैं, मृत्यु सब को खाती है. अतः मरे हुये लोगों के लिये शोक करना व्यर्थ हैस्वजनों को जलदान करने के बाद अजातशत्रु धर्मराज युधिष्ठिर को हस्तिनापुर का राजा बनाया गया और उनके द्वारा तीन अश्वमेघ यज्ञ करवाये गये इस प्रकार युधिष्ठिर का शुभ्र यश तीनों लोकों में फैल गया कुछ काल के बाद श्रीकृष्ण ने द्वारिका जाने का विचार किया और पाण्डवों से विदा ले कर तथा वेदव्यास आदि मुनियों की आज्ञा ले कर रथ में बैठ कर सात्यकि तथा उद्धव के साथ द्वारिका जाने के लिये प्रस्तुत हुये. उसी समय एक अपूर्व घटना हुई. उन्होंने देखा कि उनकी वधू उत्तरा ने व्याकुल स्वर में कहा कि मुझे बचाओ! मझे बचाओ!! मेरी रक्षा करो! आप योग-योगेश्वर हैं. देवताओं के भी देवता हैं. संसार की रक्षा करने वाले हैं. आप सर्व शक्तिमान हैं. यह देखिये प्रज्ज्वलित लोहे का बाण मेरे गर्भ को नष्ट न कर दे. है प्रभो! आप ही मेरी रक्षा करने में समर्थ हैं.ऐसे कातर वचन सुन कर श्रीकृष्ण तुरन्त रथ से कूद पड़े और बोले कि अश्वत्थामा ने पाण्डव वंश को नष्ट करने के लिये फिर से ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया है. पाण्डवों ने दहकते हुये पाँच बाणों को अपनी ओर आते हुये देखा और तत्काल अपने अपने अस्त्र सम्हाल लिये. भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने सुदर्शन चक्र से उनकी रक्षा की. उन योग-योगेश्वर ने उत्तरा के गर्भ में प्रविष्ट हो कर अपनी माया के कवच से उस गर्भ को आच्छादित कर दिया और उसकी रक्षा की.जब कुन्ती और द्रौपदी ने भगवान की ब्रह्मास्त्र को एक ही क्षण में हँसते हँसते शान्त कर देने वाली इस अपूर्व शक्ति को देखा तब उन्होंने श्रीकृष्ण की इस प्रकार प्रार्थना की -“हे जनार्दन! आप सम्पूर्ण पदार्थों तथा प्राणियों में एक भाव से विद्यमान हैं किन्तु फिर भी रन इन्द्रियों द्वारा आप प्राणियों की दृष्टि में नहीं आते. आप प्रकृति से परे हैं, सम्पूर्ण विश्व को अपनी माया से ढके रहते हैं. जिस प्रकार मनुष्य नट को सामने देख कर भी उसकी विद्या को नहीं समझ पाते उसी प्रकार अज्ञानी आप को नहीं पहचान पाते. आप सदा परमहंसों के हृदय में भक्ति प्रदान करते हैं. भक्तों की रक्षा के लिये ही आप का अवतार हुआ है. हे वासुदेव! हे यशोदानन्दन! हे गोविन्द! हे कृष्ण! हे माधव! जिस प्रकार से आपने अपनी माता देवकी की रक्षा की थी उसी प्रकार आपने उन दुष्ट कौरवों से मेरी रक्षा की है. आपने सर्वत्र ही पाण्डवों की रक्षा की है, विष से, लाक्षागृह से, हिडम्बादि दैत्यों से, द्रुपद की सभा में राजा लोंगों से तथा महाभारत के युद्ध में विजय करवा के और अभी अभी ब्रह्मास्त्र से हमारी रक्षा कर के आपने ही पाण्डव कुल को नाश होने से बचाया है. हम आपसे यही वर मांगती हैं कि हम पर बारम्बार विपत्तियाँ आती रहें और आप उनके निवारण के लिये हमें दर्शन देते रहें. सुख में अहंकारवश मनुष्य कभी आपका नाम नहीं लेता किन्तु विपत्ति में सदा ही आपका स्मरण करता है. हे अरिसूदन! हम आपको साष्टांग प्रणाम करती हैं. हे भक्तवत्सल! आप हम लोगों को त्याग कर कदापि न जायें, हमें आपके अतिरिक्त अब और किसका सहारा है.”
उनके इस भक्तिपूर्ण मधुर वचनों को सुन कर श्रीकृष्ण रथ से उतर पड़े और हस्तिनापुर लौट आये।