10 जून 2009

श्री भग्वन्नाम आरती

ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे ।
भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे ॥ ॐ जय.. ॥

जो ध्यावे फल पावे, दुख बिनसे मन का ।
सुख सम्पति घर आवे, कष्ट मिटे तन का ॥ ॐ जय.. ॥

मात पिता तुम मेरे, शरण गहूं मैं किसकी ।
तुम बिन और न दूजा, आस करूं मैं जिसकी ॥ ॐ जय..॥

तुम पूरण परमात्मा, तुम अंतरयामी ।
पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सब के स्वामी ॥ ॐ जय.. ॥

तुम करुणा के सागर, तुम पालनकर्ता ।
मैं सेवक तुम स्वामी, कृपा करो भर्ता ॥ ॐ जय.. ॥

तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति ।
किस विधि मिलूं दयामय, तुमको मैं कुमति ॥ ॐ जय.. ॥

दीनबंधु दुखहर्ता, तुम रक्षक मेरे ।
करुणा हस्त बढ़ाओ, द्वार पड़ा तेरे ॥ ॐ जय.. ॥

विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा ।
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा ॥ ॐ जय.. ॥

03 अप्रैल 2009

महर्षि वेदव्यास

वेदव्यास के जन्म की कथा

प्राचीन काल में सुधन्वा नाम के एक राजा थे। वे एक दिन आखेट के लिये वन गये। उनके जाने के बाद ही उनकी पत्नी रजस्वला हो गई। उसने इस समाचार को अपनी शिकारी पक्षी के माध्यम से राजा के पास भिजवाया। समाचार पाकर महाराज सुधन्वा ने एक दोने में अपना वीर्य निकाल कर पक्षी को दे दिया। पक्षी उस दोने को राजा की पत्नी के पास पहुँचाने आकाश में उड़ चला। मार्ग में उस शिकारी पक्षी को एक दूसरी शिकारी पक्षी मिल गया। दोनों पक्षियों में युद्ध होने लगा। युद्ध के दौरान वह दोना पक्षी के पंजे से छूट कर यमुना में जा गिरा। यमुना में ब्रह्मा के शाप से मछली बनी एक अप्सरा रहती थी। मछली रूपी अप्सरा दोने में बहते हुये वीर्य को निगल गई तथा उसके प्रभाव से वह गर्भवती हो गई। गर्भ पूर्ण होने पर एक निषाद ने उस मछली को अपने जाल में फँसा लिया। निषाद ने जब मछली को चीरा तो उसके पेट से एक बालक तथा एक बालिका निकली। निषाद उन शिशुओं को लेकर महाराज सुधन्वा के पास गया। महाराज सुधन्वा के पुत्र न होने के कारण उन्होंने बालक को अपने पास रख लिया जिसका नाम मत्स्यराज हुआ। बालिका निषाद के पास ही रह गई और उसका नाम मत्स्यगंधा रखा गया क्योंकि उसके अंगों से मछली की गंध निकलती थी। उस कन्या को सत्यवती के नाम से भी जाना जाता है। बड़ी होने पर वह नाव खेने का कार्य करने लगी एक बार पाराशर मुनि को उसकी नाव पर बैठ कर यमुना पार करना पड़ा। पाराशर मुनि सत्यवती रूप-सौन्दर्य पर आसक्त हो गये और बोले, "देवि! मैं तुम्हारे साथ सहवास करना चाहता हूँ।" सत्यवती ने कहा, "मुनिवर! आप ब्रह्मज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या। हमारा सहवास सम्भव नहीं है।" तब पाराशर मुनि बोले, "बालिके! तुम चिन्ता मत करो। प्रसूति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी।" इतना कह कर उन्होंने अपने योगबल से चारों ओर घने कुहरे का जाल रच दिया और सत्यवती के साथ भोग किया। तत्पश्चात् उसे आशीर्वाद देते हुये कहा, तुम्हारे शरीर से जो मछली की गंध निकलती है वह सुगन्ध में परिवर्तित हो जायेगी।"

समय आने पर सत्यवती गर्भ से वेद वेदांगों में पारंगत एक पुत्र हुआ। जन्म होते ही वह बालक बड़ा हो गया और अपनी माता से बोला, "माता! तू जब कभी भी विपत्ति में मुझे स्मरण करेगी, मैं उपस्थित हो जाउँगा।" इतना कह कर वे तपस्या करने के लिये द्वैपायन द्वीप चले गये। द्वैपायन द्वीप में तपस्या करने तथा उनके शरीर का रंग काला होने के कारण उन्हे कृष्ण द्वैपायन कहा जाने लगा। आगे चल कर वेदों का भाष्य करने के कारण वे वेदव्यास के नाम से विख्यात हुये।

वेद व्यास के विद्वान शिष्य

पैल
जैमिन
वैशम्पायन
सुमन्तुमुनि
रोम हर्षण

वेद व्यास का योगदान

महर्षि व्यास त्रिकालज्ञ थे तथा उन्होंने दिव्य दृष्टि से देख कर जान लिया कि कलियुग में धर्म क्षीण हो जायेगा। धर्म के क्षीण होने के कारण मनुष्य नास्तिक, कर्तव्यहीन और अल्पायु हो जावेंगे। एक विशाल वेद का सांगोपांग अध्ययन उनके सामर्थ से बाहर हो जायेगा। इसीलिये महर्षि व्यास ने वेद का चार भागों में विभाजन कर दिया जिससे कि कम बुद्धि एवं कम स्मरणशक्ति रखने वाले भी वेदों का अध्ययन कर सकें। व्यास जी ने उनका नाम रखा - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेदों का विभाजन करने के कारण ही व्यास जी वेद व्यास के नाम से विख्यात हुये। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को क्रमशः अपने शिष्य पैल, जैमिन, वैशम्पायन और सुमन्तुमुनि को पढ़ाया। वेद में निहित ज्ञान के अत्यन्त गूढ़ तथा शुष्क होने के कारण वेद व्यास ने पाँचवे वेद के रूप में पुराणों की रचना की जिनमें वेद के ज्ञान को रोचक कथाओं के रूप में बताया गया है।। पुराणों को उन्होंने अपने शिष्य रोम हर्षण को पढ़ाया। व्यास जी के शिष्योंने अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार उन वेदों की अनेक शाखाएँ और उप शाखाएँ बना दीं। अंत में व्यास जी ने महाभारत की रचना की।

05 मार्च 2009

भगवान परशुराम

परशुराम रामायण काल के दौरान के मुनी थे।

पूर्वकाल में कन्नौज नामक नगर में गाधि नामक राजा राज्य करते थे। उनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषीक के साथ कर दिया। सत्यवती के विवाह के पश्‍चात् वहाँ भृगु जी ने आकर अपने पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने श्‍वसुर को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की। सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हो तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करें और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना। फिर मेरे द्वारा दिये गये इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग अलग सेवन कर लेना। "इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु जी ने अपने पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया। इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया। योगशक्‍ति से भृगु जी को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधू के पास आकर बोले कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है। इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगा। इस पर सत्यवती ने भृगु जी से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु जी ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली। "समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे। बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ। रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुये जिनके नाम थे रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्‍वानस और परशुराम। एक बार रेणुका सरितास्नान के लिये गई। दैवयोग से चित्ररथ भी वहाँ पर जल-क्रीड़ा कर रहा था। चित्ररथ को देख कर रेणुका का चित्त चंचल हो उठा। इधर जमदग्नि को अपने दिव्य ज्ञान से इस बात का पता चल गया। इससे क्रोधित होकर उन्होंने बारी-बारी से अपने पुत्रों को अपनी माँ का वध कर देने की आज्ञा दी। रुक्मवान, सुखेण, वसु और विश्‍वानस ने माता के मोहवश अपने पिता की आज्ञा नहीं मानी, किन्तु परशुराम ने पिता की आज्ञा मानते हुये अपनी माँ का सिर काट डाला। अपनी आज्ञा की अवहेलना से क्रोधित होकर जमदग्नि ने अपने चारों पुत्रों को जड़ हो जाने का शाप दे दिया और परशुराम से प्रसन्न होकर वर माँगने के लिये कहा। इस पर परशुराम बोले कि हे पिताजी! मेरी माता जीवित हो जाये और उन्हें अपने मरने की घटना का स्मरण न रहे। परशुराम जी ने यह वर भी माँगा कि मेरे अन्य चारों भाई भी पुनः चेतन हो जायें और मैं युद्ध में किसी से परास्त न होता हुआ दीर्घजीवी रहूँ। जमदग्नि जी ने परशुराम को उनके माँगे वर दे दिये। "इस घटना के कुछ काल पश्‍चात् एक दिन जमदग्नि ऋषि के आश्रम में कार्त्तवीर्य अर्जुन आये। जमदग्नि मुनि ने कामधेनु गौ की सहायता से कार्त्तवीर्य अर्जुन का बहुत आदर सत्कार किया। कामधेनु गौ की विशेषतायें देखकर कार्त्तवीर्य अर्जुन ने जमदग्नि से कामधेनु गौ की माँग की किन्तु जमदग्नि ने उन्हें कामधेनु गौ को देना स्वीकार नहीं किया। इस पर कार्त्तवीर्य अर्जुन ने क्रोध में आकर जमदग्नि ऋषि का वध कर दिया और कामधेनु गौ को अपने साथ ले जाने लगा। किन्तु कामधेनु गौ तत्काल कार्त्तवीर्य अर्जुन के हाथ से छूट कर स्वर्ग चली गई और कार्त्तवीर्य अर्जुन को बिना कामधेनु गौ के वापस लौटना पड़ा। "उपरोक्‍त घटना के समय वहाँ पर परशुराम उपस्थित नहीं थे। जब परशुराम वहाँ आये तो उनकी माता छाती पीट-पीट कर विलाप कर रही थीं। अपने पिता के आश्रम की दुर्दशा देखकर और अपनी माता के दुःख भरे विलाप सुन कर परशुराम जी ने इस पृथ्वी पर से क्षत्रियों के संहार करने की शपथ ले ली। पिता का अन्तिम संस्कार करने के पश्‍चात् परशुराम ने कार्त्तवीर्य अर्जुन से युद्ध करके उसका वध कर दिया। इसके बाद उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से रहित कर दिया और उनके रक्‍त से समन्तपंचक क्षेत्र में पाँच सरोवर भर दिये। अन्त में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोक दिया। अब परशुराम ब्राह्मणों को सारी पृथ्वी का दान कर महेन्द्र पर्वत पर तप करने हेतु चले आये हैं।

03 मार्च 2009

बेताल पच्चीसी


परिचय

बैताल पचीसी (वेताल पचीसी या बेताल पच्चीसी (संस्कृत में वेताल पंचविंशति) पच्चीस कथाओं से युक्त एक ग्रन्थ है। इसके रचयिता बेतालभट्ट बताये जाते हैं जो न्याय के लिये प्रसिद्ध राजा विक्रम के नौ रत्नों में से एक थे। ये कथायें राजा विक्रम की न्याय-शक्ति का बोध कराती हैं। बेताल प्रतिदिन एक कहानी सुनाता है और अन्त में राजा से ऐसा प्रश्न कर देता है कि राजा को उसका उत्तर देना ही पड़ता है। उसने शर्त लगा रखी है कि अगर राजा बोलेगा तो वह उससे रूठकर फिर से पेड़ पर जा लटकेगा। लेकिन यह जानते हुए भी सवाल सामने आने पर राजा से चुप नहीं रहा जाता।

बैताल पचीसी की कहानियाँ भारत की सबसे लोकप्रिय कथाओं में से हैं। इनका स्रोत राजा सातवाहन के मन्त्री “गुणादय” द्वारा रचित “बड कहा” नामक ग्रन्थ को दिया जाता है जिसकी रचना ई. पूर्व 495 में हुई थी । कहा जाता है कि यह किसी पुरानी प्राकृत में लिखा गया था और इसमे 7 लाख छन्द थे। आज इसका कोई भी अंश कहीं भी प्राप्त नहीं है। कश्मीर के कवि सोमदेव ने इसको फिर से संस्कृत में लिखा और कथासरित्सागर नाम दिया। बड़कहा की अधिकतम कहानियों को कथा सरित्सागर में संकलित कर दिए जाने के कारण ये आज भी हमारे पास हैं। “वेताल पन्चविन्शति” यानी बेताल पच्चीसी “कथा सरित सागर” का ही भाग है। समय के साथ इन कथाओं की प्रसिद्धि अनेक देशों में पहुँची और इन कथाओं का बहुत सी भाषाओं में अनुवाद हुआ। बेताल के द्वारा सुनाई गई यो रोचक कहानियाँ सिर्फ़ दिल बहलाने के लिये नहीं हैं, इनमें अनेक गूढ अर्थ छिपे हैं। क्या सही है और क्या गलत, इसको यदि हम ठीक से समझ ले तो सभी प्रशासक राजा विक्रम कि तरह न्याय प्रिय बन सकेंगे, और छल व द्वेष छोडकर, कर्म और धर्म की राह पर चल सकेंगे। इस प्रकार ये कहानियाँ न्याय, राजनीति और विषण परिस्थितियों में सही निर्णय लेने की क्षमता का विकास करती हैं।
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बेताल पच्चीसी कि सभी कहानियों का संग्रह आप नीचे दिए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं।
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बेताल पच्चीसी – पहली कहानी
बेताल पच्चीसी – दूसरी कहानी
बेताल पच्चीसी – तीसरी कहानी
बेताल पच्चीसी – चौथी कहानी
बेताल पच्चीसी – पाँचवीं कहानी → असली वीर कौन?
बेताल पच्चीसी – छठी कहानी→ स्त्री का पति कौन?
बेताल पच्चीसी – सातवीं कहानी→ राजा या सेवक- किसका बड़ा काम ?
बेताल पच्चीसी – आठवीं कहानी
बेताल पच्चीसी – नवीं कहानी → राजकुमारी किसको मिलनी चाहिए ?
बेताल पच्चीसी – दसवीं कहानी → सबसे बड़ा त्याग किसका ?
बेताल पच्चीसी – ग्यारहवीं कहानी → सबसे कोमल कौन सी राजकुमारी ?
बेताल पच्चीसी – बारहवीं कहानी
बेताल पच्चीसी – तेरहवीं कहानी → सांप, बाज, और ब्रह्मणि, इन तीनो में अपराधी कौन ?
बेताल पच्चीसी – चौदहवीं कहानी → चोर क्यों रोया और फिर क्यों हँसते-हँसते मर गया ?
बेताल पच्चीसी – पंद्रहवीं कहानी → किस की पत्नी ?
बेताल पच्चीसी – सोलहवीं कहान
बेताल पच्चीसी – सत्रहवीं कहानी → कौन अधिक साहसी ?
पच्चीसी – अठारहवीं कहानी → विद्या क्यों नष्ट हो गयी?
बेताल पच्चीसी – उन्नीसवीं कहानी → पिण्ड किसको देना चाहिए?
बेताल पच्चीसी – बीसवीं कहानी → वह बालक क्यों हंसा ?
बेताल पच्चीसी – इक्कीसवीं कहानी → विराग में अँधा कौन ?
बेताल पच्चीसी – बाईसवीं कहानी → शेर बनाने का अपराध किसने किया ?
बेताल पच्चीसी – तेईसवीं कहानी → योगी पहले रोया क्यों फिर हंसा क्यों ?
बेताल पच्चीसी – चौबीसवीं कहानी → रिश्ता क्या हुआ ?
बेताल पच्चीसी – पच्चीसवीं और अन्तिम कहानी
! समाप्त !

01 मार्च 2009

श्री काली देवी क़ी आरती

आरती

आरती श्री काली देवी जी क़ी
मंगल क़ी सेवा सुन मेरी देवा, हाथ जोड़ तेरे द्वार खड़े ।
पान सुपारी ध्वजा नारियल, ले ज्याला तेरी भेंट धरे ।
सुन जगदम्बे न कर विलम्बे, जय काली कल्याण करे। सन्तन प्रतिपाली ॥
बुद्धि विधाता तू जगमाता, मेरा कारज सिद्ध करे ।
चारण कमल का लिया आसरा, शरण तुम्हारी आन परे ।
जब जब भीर पड़े भक्तन पर, तब तब आय सही करे। सन्तन प्रतिपाली ॥
गुरु के बार सफल जब मोह्यो, तरुणी रूप अनूप धरे ।
माता होकर पुत्र खिलावैकहा भार्या भोग करे ।
सब सुखदायी सदा सहाई, संत खड़े जयकार करे। सन्तन प्रतिपाली ॥
ब्रह्मा विष्णु महेश फल लिये, भेंट देन तेरे द्वार खड़े ।
अटल सिंहासन बैठी माता, सर सोने का छात्र फिरे ।
बार शनिश्चर कुमकुम वरणी, जब लुंकड पर हुकम करे । सन्तन प्रतिपाली ॥
खंग खप्पर त्रिशूल हाथ लिये, रक्त बीज कूं भस्म करे ।
शुम्भ निशुम्भ क्षणहि में मारे, महिषासुर को पकड दले ।
आदित बारी आदि भवानी, जन अपने का कष्ट हरे । सन्तन प्रतिपाली ॥
कुपित होय कर दानव मारे, चण्ड मुण्ड सब चूर करे ।
जब तुम देखो दयररूप हो, पर में संकट दूर टरे ।
सौम्य स्वभाव धरयो मेरीमात, जन की अर्ज कबूल करे । सन्तन प्रतिपाली ॥
सात बार की महिमा बर्नी, सब गुण कौन बखान करे ।
सिंह पीठ पर चढी भवानी, अतल भवन में राज्य करे ।
दर्शन पावें मंगल गावें, सिध साधक तेरी भेंट धरे । सन्तन प्रतिपाली ॥

ब्रह्मा वेद पढे तेरे द्वारे, शिवशंकर हरि ध्यान करे ।
इन्द्र कृष्ण तेरी करें आरती, चंवर कुबेर डुलाये करे ।
जय जननी जय मातु भवानी, अचल भवन में राज्य करे ।
संतान प्रतिपाली सदा खुशहाली, जय काली कल्याण करे । सन्तन प्रतिपाली ॥

संत महिमा क़ी आरती

आरती

सुख-दुःख पाप-पुण्य दिन राती ।
साधू-असाधु सुजाति कुजाती ॥
दानव देव उंच अरु नीचू ।
अमित सुजीवंहू माहुरु मीचू ॥
माया ब्रहम जीव जगदीसा ।
लच्छे- अल्लाच्चे रंक अवनीसा ॥
कासी मग सुरसरी क्रम नासा
मरू मारव माहि देव गवासा ॥
सरग नरक अनुरागा बिरागा ।
निगमागम गनु दोष विभागा ॥
जड़- चेतन गुण दोषमय, विस्व कीन्ह करतार ।
संत साँस गुण गहहिं पय, परिहरि वारि विकार ॥

श्री गुरु श्री चन्द्र जी क़ी आरती

आरती

आरती श्री गुरु श्री चन्द्र जी क़ी
ॐ जय श्री चन्द्र बाबा, स्वामी जय श्री चन्द्र बाबा।
सुर नर मुनिजन ध्यावत, संत से व्य साहिबा॥
कलियुग घोर अँधेरा, तुम लियो अवतार।
शंकर रूप सदाशिव, यश अपरम्पार॥
योगी तुम अवधूत सदा हे बाल भ्रम्चारी।
भेष उदासी धारे, महिमा अतिभारी॥
रामदास गुरु अर्जुन सोढी कुल भूषण॥
सेवत चारण तुम्हारे, मिटे सकल दूषण॥
रिद्धि सिद्धि के दाता, भक्तन के त्राता।
रोग शोक को काटे जो शरनी आता॥
भक्त गिरी सन्यासी चरणां विच गिरयो।
काट दियो भवबंधन अपना शिष्य कियो ॥
उदासीन जन जग मेइन पालक सलक दुख घालक ।
तुम आचर्य जगत मेइन सदगुण संचालक ॥
वेदि वंश रखियो जग भीतर, कृपाकारी भारी।

धर्म चंद उपदेशियों, जावां बलिहारी॥
गौर वर्ण तनु भस्म कान में में सजे हुए मदुरा।
बाव्रियां शिर भाजें, लाख जग सब उघरा॥
पद्मासन को बाँधा योग लियो पारो।
ऐसो ध्यान तुम्हारो, मन में नित धारो॥
जो जन आरती निशदिन बाबे क़ी गावे।
बसे जाय बैकुंठहि सुख पुल पावे॥