17 जुलाई 2010

क्या है बजट ( What is the budget )

सरकार के आर्थिक नीतियों और एक वित्तीय वर्ष का लेखा-जोखा ही बजट कहलाता है। संविधान के अनुच्छेद 112 के तहत वित्त मंत्री संसद में बजट पेश करते हैं। बजट का सीधा सरोकार आम जनता से होता है, जिस कारण इसे लेकर काफी उत्सुकता रहती है।

देश के वित्तमंत्री बजट के जरिये आगामी वर्ष के लिये सरकार की आमदनी और खर्च का पूरा ब्यौरा प्रस्तुत करते हैं। साथ ही भविष्य की आर्थिक योजनाओं की भी घोषणा करते हैं। कुल मिलाकर बजट देश की आर्थिक गतिविधि का सूचक होता है, जिससे देश की आर्थिक स्थिति का भी पता चलता है।

कौन तैयार करता है बजट
बजट को वित्त मंत्री की अगुवाई में सरकार का एक कोर ग्रुप बहुत सावधानी से तैयार करता है। इसमें वित्त मंत्रालय के अधिकारी और योजना आयोग के उपाध्यक्ष शामिल होते हैं। वित्त मंत्रालय की तरफ से वित्त सचिव, राजस्व और व्यय सचिव बजट तैयार करने में अहम् भूमिका निभाते हैं। इसमें वित्त सचिव पूरी बजट प्रक्रिया को संचालित करता है। बजट तैयार करने से पूर्व विभिन्न मंत्रालयों, हित समूहों, राज्य सरकारों व विशेषज्ञों के साथ लंबा विचार-विमर्श किया जाता है।

ऐसे तैयार होता है बजट
रेवेन्यू यानी आमदनी एवं एक्सपेंडिचर यानी खर्च, आम बजट के दो प्रमुख हिस्से हैं। इसके लिये राजस्व और व्यय विभाग होते हैं। राजस्व विभाग विभिन्न करों एवं अन्य स्त्रोतों से होने वाली आय की गणना करता है जबकि व्यय विभाग संभावित खर्च का ब्योरा सरकार को देता है। एफबीआरएम   एक्ट के निर्देशों के तहत वित्त मंत्रालय पर वित्तीय घाटा कम करने का भी दबाव होता है। इसलिए वह कमाई के लिये नए कर लगाने या कर का दायरा बढाने पर विचार करता है। इसके लिये प्रत्यक्ष कर एवं अप्रत्यक्ष कर सरकार के दो महत्वपूर्ण स्त्रोत है।

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16 जुलाई 2010

नरकवासी ( Hell resident )

काशी राज्य पर राजा ब्रह्मदत्त शासन कर रहे थे। उसी समय वहाँ एक धनी व्यापारी रहता था। उसके मित्रविंद नामक एक पुत्र था। मित्रविंद बड़ा पापी था। धनी व्यापारी का अल्प आयु में ही देहांत हो गया। इस पर उसकी पत्नी ने अपने पुत्र मित्रविंद को बुलाकर समझाया, ‘‘बेटा, तुम दान-धर्म किया करो। नियमों का पालन करो। धर्म मार्ग का अनुसरण करो! अपने माँ-बाप का नाम रोशन करो ।''

पर मित्रविंद ने अपनी माता की बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। इस बीच कार्तिक पूर्णिमा का पर्व आ पड़ा । मित्रविंद को उसकी माँ ने समझाया, ‘‘बेटा । आज पुण्य पर्व का दिन है। रात भर विहारों में धर्म का उपदेश करते हैं। तुम वहॉं पर जाओ। सबके साथ मिलकर पूजा करो।

उपदेश सुनकर लौट आओ। तुम्हें मैं एक हज़ार मुद्राएँ दूँगी।'' धन के लोभ में आकर मित्रविंद ने माता की बात मान ली। उपदेश सुनने के लिए वह विहार में तो पहुँचा, पर एक कोने में लेट कर सो गया। सवेरा होते ही हाथ-मुँह धोकर सीधे घर चला आया।

माता ने सोचा कि उसका पुत्र धर्म प्रचारक को साथ लेकर घर लौटेगा। इस विचार से उसने दोनों के लिए रसोई बनाई। लेकिन अपने पुत्र को अकेले घर लौटे देख माता ने पूछा, ‘‘बेटा, तुम धर्म-प्रचारक को अपने साथ क्यों नहीं ले आये?'' ‘‘माँ, उनको यहाँ पर लाने की क्या आवश्यकता है? उनके साथ मेरा क्या काम है?''

मित्रविंद ने उत्तर दिया। इसके बाद मित्रविंद खाना खाकर माता से एक हज़ार मुद्राएँ लेकर घर से निकल गया। उस धन को अपनी पूँजी बनाकर मित्रविंद ने कोई व्यापार प्रारंभ किया और कुछ ही दिनों में उसने बीस लाख मुद्राएँ कमा लीं।

उस धन से मित्रविंद संतुष्ट नहीं हुआ। तब उस ने अपने मन में सोचा, ‘मैं इस धन को पूँजी बनाकर समुद्री व्यापार करूँगा। इससे कई गुना अधिक धन कमाऊँगा!' इस विचार से उसने एक नाव खरीद ली। माल खरीदकर नाव पर लदवा दिया, तब समुद्री व्यापार का समाचार सुनाकर अपनी माता से अनुमति लेने के लिए घर पहुँचा।

अपने पुत्र के मुँह से सारा वृत्तांत सुनकर माता की आँखों में आँसू भर आये। वह बोली, ‘‘बेटा, तुम मेरे इकलौते पुत्र हो। तुम्हारे पास आवश्यकता से अधिक धन है। और ज्यादा धन कमाकर तुम क्या करोगे? समुद्री यात्रा खतरों से खाली नहीं है। मेरी बात मानकर अपनी यात्रा बंद करो। घर पर ही रह जाओ! मैं तुमसे यही चाहती हूँ।'' पर मित्रविंद ने अपनी माँ की बात नहीं मानी।

उसने समुद्री यात्रा पर जाने का हठ किया। इस पर माता ने उसका हाथ पकड़कर गिड़गिड़ाते हुए उसे यात्रा पर जाने से रोकना चाहा, लेकिन उस दुष्ट ने अपनी माता को पीटा और जबर्दस्ती हाथ छुड़ाकर घर से निकल गया। उसी दिन मित्रविंद की नाव यात्रा पर चल पड़ी।

सात दिनों तक समुद्री यात्रा बिना विघ्न के आराम से चली, पर आठवें दिन समुद्र के बीच नाव आगे बढ़ने से रुक गई। नाव के नाविकों ने सोचा कि इस दुर्घटना का कारण नाव के यात्रियों में से कोई ज़रूर होगा। इस ख्याल से उन लोगों ने उसका पता लगाने के लिए चिट बाँटा। उस चिट पर मित्रविंद का नाम निकला।

इसपर तीन बार चिट बाँटे गये, तीनों बार चिट पर मित्रविंद का नाम निकला। इसपर नाविकों ने नाव से एक छोटी सी डोंगी निकाली, उसपर मित्रविंद को छोड़कर बाकी सब अपने रास्ते नाव पर आगे बढ़ गये। कई दिन यातनाएँ झेल कर आखिर मित्रविंद एक टापू पर पहुँचा। उस टापू में मित्रविंद को संगमरमर का एक महल दिखाई दिया। उस में चार पिशाचिनियाँ निवास करती थीं।

वे पिशाचिनियाँ सात दिनों तक विलासमय जीवन बिताती थीं और फिर एक सप्ताह तक अपने पापों का प्रायश्चित्त करने के लिए कठोर नियमों का पालन करती थीं। यह उनका नियम था।

मित्रविंद ने उन पिशाचिनियों के साथ सात दिन विलासपूर्ण जीवन बिताया, पर जब पिशाचिनियों ने सात दिनों के लिए कठोर व्रत का पालन करना प्रारंभ किया तब उसका मन उस व्रत का आचरण करने को तैयार न हुआ। इस पर वह अपनी डोंगी पर वहाँ से चल पड़ा।

कुछ दिन समुद्री यात्रा के बाद मित्रविंद दूसरे टापू पर पहुँचा। उस टापू में आठ पिशाचिनियाँ निवास करती थीं। मित्रविंद ने उन पिशाचिनियों के साथ एक हफ़्ता बिताया, इसके बाद उन पिशाचिनियों ने ज्यों ही कठोर व्रत शुरू किया, त्यों ही वह अपनी डोंगी पर वहाँ से निकल पड़ा।

इस प्रकार उसने एक अन्य टापू में सोलह पिशाचिनियों के साथ और दूसरे टापू में बत्तीस पिशाचिनियों के साथ एक सप्ताह विलासपूर्ण जीवन बिताया। आखिर अपनी डोंगी पर वह एक और टापू में पहुँचा। उस टापू में एक विशाल नगर था। उसके चारों तरफ़ ऊँची दीवार बनी थी।

उसके चार द्वार थे। वह उस्सद नरक था, लेकिन मित्रविंद को वह नरक जैसा प्रतीत न हुआ। बल्कि वह एक सुंदर नगर जैसा लगा। उसने अपने मन में सोचा, ‘मैं इस नगर में प्रवेश करके इसका राजा बन जाऊँगा।' नगर के अन्दर एक स्थान पर मित्रविंद को एक व्यक्ति दिखाई दिया। वह अपने सर पर असिधारा चक्र ढो रहा था।

उसकी धार पैनी थी । साथ ही वह चक्र बोझीला था। इस कारण वह चक्र उस आदमी के सर में धँस गया था। सर से रक्त की धाराएँ बह रही थीं। उसका शरीर पाँच लड़ियोंवाली जंजीर से बंधा हुआ था। वह पीड़ा के मारे कराह रहा था।

उस दृश्य को देखने के बाद भी मित्रविंद इस भ्रम में आ गया कि वह व्यक्ति उस नगर का राजा है। असिधारा चक्र मित्रविंद की आँखों को पद्म जैसा दिखाई दिया। उसकी देह पर बंधी जंजीर उसे एक अलंकृत आभूषण जैसी प्रतीत हुई।

उसकी कराहट गंधर्वगान जैसा सुनाई दिया। मित्रविंद उस नरकवासी के समीप जाकर बोला, ‘‘महाशय, आप बहुत समय से इस पद्म को अपने सर पर धारण किये हुए हैं। मुझे भी थोड़े समय के लिए धारण करने दीजिए!'' ‘‘महाशय, यह तो पद्म नहीं, बल्कि असिधारा चक्र है।'' नरकवासी ने उत्तर दिया। ‘‘ओह, आप तो यह मुझे देना नहीं चाहते, इसीलिए आप यह बात कह रहे हैं।'' मित्रविंद ने कहा।

‘आज से मेरे पापों का परिहार हो गया है। यह भी मेरे जैसे अपनी माँ को पीट कर आया होगा! उस पाप का फल भोगने के लिए ही यहाँ पहुँच गया है।' यों अपने मन में विचार करके नरकवासी ने अपने सर पर के असिधारा चक्र को उतारकर मित्रविंद के सर पर रख दिया और खुशी के साथ अपने रास्ते चला गया। स्वर्ग में इन्द्र के पद पर रहने वाले बोधिसत्व देवगणों को साथ लेकर समस्त नरकों का निरीक्षण करते हुए मित्रविंद के पास पहुँचे।

बोधिसत्व को देखते ही मित्रविंद रोते हुए बोला, ‘‘स्वामी, मुझ पर कृपा कीजिए! कृपया यह बताइये कि इस चक्र से मेरा पिंड कब छूटेगा?'' इस पर इन्द्र ने मित्रविंद को यों समझाया, ‘‘तुमने अपार संपत्ति के होते हुए भी धन की कामना की। पिशाचिनियों के साथ सुख भोगा, मानव द्वारा अनुसरण योग्य उत्तम धर्म-मार्ग तुम्हें अच्छे नहीं लगे। दूसरों ने तुम्हारे हित के लिए जो सलाह दी, उसका तुमने तिरस्कार किया और तुमने अपनी इच्छा से इस चक्र की माँग की। इसलिए तुम्हारे जीवन पर्यंत यह असिधारा चक्र तुमको नहीं छोड़ेगा!'' मित्रविंद अपनी इस दुर्दशा का कारण समझ कर दुख में डूब गया।

उपवास के समान कोई तप नहीं ( No not the same tenacity of fasting )

उपवास का प्रचलन हर धर्म एवं सम्प्रदाय में रहा है। जैन सम्प्रदाय में प्रारंभ से उपवास का प्रचलन रहा है। मिस्त्र में प्राचीन में कई धार्मिक पर्वों पर उपवास किया जाता था। यहूदियों में अपने सातवें महीने के दसवें दिन उपवास रखने का विधान है। रोमन लोग ईस्टर के पूर्व तीन सप्ताहों में शनिवार एवं रविवार के अतिरिक्त अन्य दिनों में उपवास रखते हैं।

धर्मग्रंथों में उपवास पर विस्तार से चर्चा की गई है। भिन्न-भिन्न तिथियों, मासों तथा पक्षों का भिन्न-भिन्न महत्व बताया गया है।

सचमुच ही उपवास एक विशुद्ध वैज्ञानिक प्रक्रिया है। विशिष्ट समय में किये गए उपवास का परिणाम भी विशिष्ट होता है। सोमवार में चन्द्रमा का विशेष प्रभाव होता है। अतः इस दिन के उपवास से कीर्ति, उज्जवल भविष्य, मान-सम्मान, प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। मंगल के व्रत से दृढ़ता, कठोरता तथा बुधवार सौम्य शिष्ट प्रधान होता है। गुरूवार के उपवास से ह्रदय का परिमार्जन होता है। इससे श्रेष्ट भावनाएं पनपती हैं। बुद्धि, धन व विद्या प्राप्त होती है। सुखोपभोग का गुण शुक्र में है। इसलिए इसके लिये शुक्रवार का उपवास उत्तम है। स्थिरता हेतु शनि का उपवास बताया गया है। रविवार उपवास का महत्व सर्वाधिक है। रविवार में सातों दिनों का समन्वित प्रभाव रहता है। गायत्री महामंत्र के देवता भी रवि हैं। अतः रविवार के उपवास का प्रभाव सीधा मन पर पड़ता है। मन ही सारी क्रियाओं का केंद्र बिंदु है। इसलिए रविवार के उपवास से आश्चर्यजनक लाभ होता है।

उँच-नीच

ब्रह्मदत्त जब काशी राज्य का शासक था, तब बोधिसत्व ने सिंह के रूप में जन्म लिया। वह सिंह अपनी पत्नी समेत एक पर्वत की गुफ़ा में रहा करता था। एक दिन सिंह को बड़ी भूख लगी। वह पर्वत पर से नीचे कूदा। पर्वत के नीचे के एक सरोवर के पास हरी घास से भरे मैदान में उसने हिरनों व खरगोशों को देखा। सिंह गरजता हुआ उनकी तरफ़ दौड़ा। दौड़ते समय वह सरोवर के पास एक दलदल में गिर गया। इतने में खरगोशों और हिरनों ने उसे देख लिया और वे वहाँ से भाग गये।

दलदल से सिंह बाहर आने की कोशिश करने लगा। पर उससे संभव नहीं हो पा रहा था। इसलिए वह वहीं रह गया और देखने लगा कि उसकी रक्षा करनेवाला क्या कोई उधर से गुज़रेगा।

भूख के मारे तड़पते हुए सिंह को एक हफ्ते तक वहीं रहना पड़ा। एक हफ्ते के बाद बग़ल ही के सरोवर में पानी पीने एक सियार वहाँ आया। पर सिंह को देखते ही वह घबराकर रुक गया।

सिंह ने सियार से कहा, ‘‘भैय्या सियार, हफ्ते भर से इस दलदल में फंसा हूँ। ज़िन्दा रहने की कोई उम्मीद नहीं है। किसी प्रकार से मुझे बचा लो।''

‘‘तुम बहुत भूखे हो। मुझे खा जाने में आनाकानी नहीं करोगे। कैसे तुम्हारा विश्वास करूँ?'' सियार ने अपना संदेह व्यक्त किया।

‘‘जिसने मेरी जान बचायी, भला उसे मैं कैसे खा जाऊँगा। मुझे इस दलदल से बाहर निकालोगे तो जन्म भर तुम्हारा आभारी रहूँगा। मेरी बात का विश्वास करो।'' सिंह ने कहा।

सियार ने सिंह की बातों का विश्वास किया। वह सूखी लकड़ियाँ समेटकर ले आया और उन्हें दलदल में फेंका। उनपर सिंह ने अपने पैर जमाये और बड़ी मुश्किल से बाहर आया।

फिर दोनों मिलकर शिकार करने जंगल में गये। सिंह ने एक जंतु को मार डाला। दोनों ने मिलकर उसे खा लिया।

‘‘अब से हम दोनों भाई हैं। अब हमें अलग-अलग जगह पर रहने की क्या ज़रूरत है? अपने परिवार को भी मेरी गुफ़ा में ले आओ। सब मिलकर रहेंगे।'' सिंह ने कहा। सियार ने सिंह की बात मान ली और पत्नी को भी गुफ़ा में ले आया।

सियार को लगा कि सिंह के साथ रहने से उसका गौरव बढ़ जायेगा। इसीलिए उसने सिंह के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। परंतु, वह जानता था कि अपनी जाति से दूर रहने से उसे कैसे-कैसे कष्टों का सामना करना पड़ेगा। सिंह ने भी सियार के त्याग को भली-भांति समझ लिया और हर विषय में उसका साथ देने लगा। कभी भी उसका दिल नहीं दुखाया। यों दिन गुज़रते गये।

सिंह, सियार को बहुत चाहता था, पर सिंह की पत्नी सियार की पत्नी को नहीं चाहती थी। उसका मानना था कि वह ऊँची जाति की है और सियार की पत्नी निम्न जाति की। सियार की पत्नी ने शेरनी के इस दावे को स्वीकार कर लिया, इसलिए दोनों परिवारों में झगड़े नहीं होते थे। जब दोनों पत्नियों ने बच्चों को जन्म दिया, तब वे बच्चे बड़े होकर एक साथ खेलने-कूदने लगे। शेरनी से यह देखा नहीं गया।

सिंह और सियार के बच्चों को यह मालूम नहीं था कि दोनों में एक बड़ा है और दूसरा छोटा। वे खुलकर खेलने लगे। एक-दूसरे को चाहने लगे। ऊँच-नीच की भावना उनमें कभी नहीं आई।

शेरनी से यह सहा नहीं गया। उसने एक दिन अपने बच्चों से कहा, ‘‘हम ऊँची जाति के हैं। तुम्हें सियार के बच्चों से इस तरह मिलकर खेलना नहीं चाहिये। उनसे दूर ही रहना। उनकी और हमारी बराबरी ही नहीं।''

सिंह के बच्चों पर माँ की बातों का असर होने लगा। वे सियार के बच्चों के साथ लापरवाही बरतने लगे, खेलते समय उनके साथ अन्याय करने लगे और बारंबार यह कहने भी लगे, ‘‘हम उच्च जाति के हैं। हम तुम्हारा पालन-पोषण करते हैं। हम जो भी कहें, तुम्हें उसका विरोध करना नहीं चाहिये। तुम नीच जाति के हो, इसलिए हमारी गालियॉं भी तुम्हें सहनी होंगी।''

सियार की पत्नी ने एक दिन पति से शेरनी की शिकायत की और उसके व्यवहार के बारे में बताया।

दूसरे दिन जब सियार सिंह के साथ शिकार करने जा रहा था, तब उसने सिंह से कहा, ‘‘तुम्हारी जाति उच्च जाति है। हम सामान्य जाति के हैं। इसलिए हमारा साथ-साथ रहना अच्छा नहीं। हम अपनी जातिवालों के साथ रहेंगे।''

अपने मित्र में इस आकस्मिक परिवर्तन पर उसे आश्चर्य हुआ और उसने इस परिवर्तन का कारण पूछा। सियार ने सब कुछ सविस्तार बताया।

रात को गुफ़ा में लौटते ही सिंह ने सिंहनी से कहा, ‘‘मालूम हुआ कि तुम सियार के बच्चों से घृणा करते हो।''

‘‘हाँ, हमारे बच्चों का उस निम्न जाति के बच्चों के साथ खेलना-कूदना मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता। पता नहीं, इस सियार ने आप पर क्या जादू कर डाला। जब देखो, आप उसकी तरफ़दारी करने लगते हैं। साफ़-साफ़ कह देती हूँ कि उनके बच्चों को हमारे बच्चों के साथ खेलना नहीं चाहिये।'' सिंहनी ने कहा।

‘‘अब सब कुछ मेरी समझ में आ गया। जानना चाहती हो न कि सियार ने मुझपर क्या जादू किया, तो सुनो। याद है, एक बार एक हफ्ते भर तक मैं घर नहीं आया? उस हफ्ते भर भूख से तड़पता हुआ दलदल में फंसा रहा। जब मैं मरने ही जा रहा था, तब इस सियार ने मेरी जान बचायी। उस दिन अगर यह सियार मेरी जान नहीं बचाता तो मैं कभी का मर गया होता। यह संतान भी नहीं होती। प्राण की जो भिक्षा देते हैं, उनके प्रति ऊँच-नीच का भाव दिखाना, अपने को बड़ा और दूसरे को छोटा समझना बड़ा पाप है। उनका अपमान करना अपने ही बंधुओं का अपमान कराने के समान है।'' सिंह ने कहा।

सिंह की पत्नी को अपनी ग़लती का एहसास हुआ और उसने सियार की पत्नी से क्षमा माँगी।

इसके बाद पी़ढ़ियों तक सिंह और सियार की संतान उसी गुफ़ा में मिल-जुलकर सुखी जीवन बिताती रही।

अहोई अष्टमी व्रत ( Ahoi Ashtami fast )

यह व्रत कार्तिक मास की कृष्ण-पक्ष अष्टमी के दिन किया जाता है। इस व्रत की आरोग्यता-प्राप्ति एवं दीर्घजीवी संतान होने के निमित्त किया जाता है।

व्रत-विधान एवं पूजन
इस व्रत को दिन भर निराहार रहकर स्त्रियों-द्वारा किया जाता है। रात्री में चंद्रोदय होने के बाद दीवार पर बनी अहोई माता के चित्र के सामने किसी एक लोटे में जल भरकर रख दे। चाँदी-द्वारा निर्मित चाँदी की स्याऊ की मूर्ती और दो गुडिया रखकर उसे मौली से गूंधले। तत्वश्चात रोली, अक्षत से उनकी पूजा करे। पूजा करने के बाद दूध-भात, हलवा आदि का उन्हें नैवेध अर्पित करें।

तदन्त पहले से रखे जलपूर्ण- पात्र से चन्द्रमा को अर्ध्यदान करें। इसके तदन्तर हाथ से गेहूं के सात दाने रखकर अहोई माता की कथा सुने। कथा श्रवण करने के बाद मौली में पिरोई गई अहोई माता को गले में पहन लें। अर्पित किये गए नैवेघ को ब्रह्मण को दान कर दें। यदि ब्रह्मण न हो तो अपनी सास को ही दे दे। इसके तदन्तर स्वयं भोजन करे।
प्रत्येद संतानोत्पत्ति के पश्चात एक-एक अहोई माता की मूर्ती बनवाकर पूर्व के गूथे हुए मौली में बढाती जाए। प्रत्येक पुत्रो के विवाहोपरांत भी इसी प्रकार की क्रिया दुहराए। जब भी गले से अहोई उतारने की आवश्यकता पड़े तो किसी शुभ दिन में उतार कर उन्हें गुड आदि का नैवेघ देकर जल का आचमन कराकर रख । ऐसा करने से संतान में वृद्धि होती है। अहोई अष्टमी-पूजन के बाद ब्रह्मण को कूष्माण्ड दान करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है।

अहोई अष्टमी उघापन विधि
जिस स्त्री का पुत्र न हो अथवा उसके पुत्र का विवाह हुआ हो, उसे उघापन अवश्य करना चाहिए। इसके लिए, एक थाल मे सात जगह चार-चार पूरियां एवं हलवा रखना चाहिए। इसके साथ ही पीत वर्ण की पोशाक-साडी, ब्लाउज एवं रूपये आदि रखकर श्रद्धा पूर्वक अपनी सास को उपहार स्वरूप देना चाहिए। उसकी सास को चाहिए की, वस्त्रादि को अपने पास रखकर शेष सामग्री हलवा-पूरी आदि को अपने पास-पडोस में वितरित कर दे। यदि कोई कन्या होतो उसके यहां भेज दे।

सेठ-सेठानी की कथा
किसी नगर में साहूकार रहता था। उसके सात पुत्र थे। एक दिन साहूकार की पत्नी खदान में-से खोदकर मिटटी लाने के लिये गई। ज्यों ही उसने मिटटी खोदने के लिये कुगाल चलाई त्योंही उसमें रह-रहे स्याऊ के बच्चे प्रहार से आहात होकर मृत हो गए। जब साहूकार की पत्नी ने स्याऊ को रक्तरंजित देखा तो उसे बच्चों के मर जाने का अत्यधिक दुःख हुआ। परन्तु जो कुछ होना था वो हो चुका था। यह भूल उससे अनजाने में हो गई थी। अतः दुखी मन से वह घर लौट आई। पश्चाताप के कारण वह मिटटी भी नहीं ली।
इसके बाद स्याहू जब घर में आई तो उसने अपने बच्चों को प्रतावस्था में पाया। वह दुःख से कतार हो अत्यंत विलाप करने लगी। उसने इश्वर से प्रार्थना की, जिसने मेरे बच्चो को मारा है उसे भी त्रिशोक-दुःख भुगतना पड़े। इधर स्याहू के श्राप से एक वर्ष के अन्दर ही सेठानी के सातों पुत्र काल-कलवित हो गए। इस प्रकार की दुखद घटना देखकर सेठ-सेठानी अत्यंत शोकाकुल हो उठे।
उस दम्पंती ने किसी तीर्थ स्थान पर जाकर अपने प्राणों का विसर्जन कर देने का मन में संकल्प कर लिया। मन में ऐसा निश्चय कर सेठ-सेठानी घर से पैदल ही तीर्थ की ओर चल पड़े। उन दोनों का शरीर पूर्ण रूप से अशक्त न हो गया तब तक वे बरावर आगे बढ़ते रहे। जब वे चलने में बिलकुल असमर्थ हो गए, तो रास्ते में ही मूर्छित हो कर भूमि पर गिर पड़े। उन दोनों की इस दयनीय दशा को देखकर करूणानिधि भगवान् उन पर दयार्द हो गए और अकश्वाने की - 'हे सेठ! तेरी सेठानी ने मिटटी खोदते समय अनजाने में ही स्याहू के बच्चों को मार डाला था। इस लिये तुझे भी अपने बच्चों का कष्ट सहना पडा। भगवान् ने आज्ञा दी- अब तुम दोनों अपने घर जाकर गाय की सेवा करो और अहोई अष्टमी आने पर विधि-विधान पूर्वक प्रेम से अहोई माता की पूजा करो। सभी जीवों पर दया भाव रखो, किसी की अहित न करो। यदि तुम मेरे कहने के अनुसार आचरण करोगे, तो तुम्हे संतान सुख प्राप्त हो जाएगा।'
इस आकाशवाणी को सुनकर सेठ-सेठानी को कुछ धैर्य हुआ और वे दोनों भगवती का स्मरण करते हुए अपने घर को प्रस्थान किये। घर पहुँचार उन दोनों ने अकश्वाने के अनुसार कार्य करना प्रारंभ कर दिया। इसके साथ ईर्ष्या-द्वेष की भावना से रहित होकर सभी प्राणियों पर करूणा का भाव रखना प्रारंभ कर दिया।
भगवत-कृपा से सेठ-सेठानी पुनः पुत्रवान होकर सभी सुखों का भोग करने लगे और अन्तकाल में स्वर्गगामी हुए।

साहूकार की कथा
एक साहूकार के सात बेटे, सात बाहें एवं एक कन्या थी। उसकी बहुए कार्तिक कृष्ण अष्टमी को अहोई माता के पूजन के लिये जंगल में अपनी ननद के साथ मिट्टी लेने के लिये गईं मिट्टी निकलने के स्थान पर ही एक स्याहू की मांड थी। मिटटी खोदते समय ननद के हाथ से स्याहू का बच्चा चोट खाकर मर गया। स्याहू की माता बोली, अब मैं तेरी कोख बांढूगी अर्थात अब तुझे मैं संतान-विहीन कर दूंगी। उसके बात सुनकर ननद ने अपने सभी भाभियों से अपने बदले में कोख बंधा लेने के लिये आग्रह किया, परन्तु उसकी सभी भाभियों ने उसके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। परन्तु उसकी छोटी भाभी ने कुछ सोच-समझकर अपनी कोख बंधवाने की स्वीकृति ननद को दे दी।
तदन्तर उस भाबी को, जो भी संतान होती वे सात दिन के बाद ही मर जाती। एक दिन पंडित को बुलाकर इस बात का पता लगाया गया।
पंडित ने कहा तुम काली गाय की पूजा किया करो। काली गाय रिश्ते में स्याहू की भायली लगती है। वह यदि तेरी कोख चोद दे तो बच्चे जीवित रह सकते है। पंडित की बात सुनकर छोटी बहु ने दूसरे दिन से ही काली गाय की सेवा करना प्रारंभ कर दिया। वह प्रतीदिन सुबह सवेरे उठकर गाय का गोबर आदि साफ़ कर देती. गाय ने अपने मन में सोचा की, यह कार्य कौन कर रहा है, इसका पता लगाऊंगी। दूसरे दिन गाय माता तडके उठकर क्या देखती है की उस स्थान पर साहूकार की एक बहु झाडू बुहारी करके सफाई कर रही है। गऊ माता ने उस बहु से पुचा की टू किस लिए मेरी इतनी सेवा कर रही है और वह उससे क्या चाहती है ? जो कुछ तेरी इच्छा हो वह मुझ से मांग ले। साहूकार की बहु ने कहा - स्याहू माता ने मेरी कोख बाँध दी है जिससे मेरे बच्चे नहीं बचते है। यदि आप मेरी कोख खुलवा दे तो में आपका बहुत उपकार मानूँगी। गाय माता ने उसकी बात मान ली और उसे साथ लेकर सात समुद्र पार स्याहू माता के पास ले चली। रास्ते में कड़ी धूप से व्याकुल होकर दोनों एक पेड़ की छाया में बैठ गई।
जिस पेड़ के नीचे वह दोनों बैठी थी उस पेड़ पर गरूड पक्षी का एक बच्चा रहता था। थोड़ी देर में ही एक सांप आकर उस बच्चे को मारने लगा। इस दृश्य को देखकर साहूकार की बहु ने उस सांप को मारकर एक डाल के नीचे छिपा दिया और उस गरूड के बच्चे को मरने से बचा लिया। इस के पश्चात उस पक्षी की मान ने वहां रक्त पडा देखकर साहूकार की बहू कको चोंच से मारने लगीं।
तब साहूकार की बहू ने कहा - मैंने तेरे बच्चे को नहीं मारा है। तेरे बच्चे को डसने के लिए सांप आया था मैंने उसे मारकर तेरे बच्चे की रक्षा की है। मरा हुआ सांप डाल के नीचे दबा हुआ है। बहू की बातों से वह प्रसन्न हो गई और बोली- तू जो कुछ चाहती है मुझसे मांग ले। बहू ने उस से कहा- सात समुद्र पाय साहू माता रहती है टू मुझे उस तक पहुंचा दे। तब उस गरूड पंखिनी ने उन दोनों को अपनी पीठ पर बिठाकर समुद्र के उस पार स्याहू माता के पास पहुंचा दिया।
स्याहू माता उन्हें देखकर बोली - आ बहिन, बहुत दिनों बात आयी है। वह पुनः मेरे सिर में जूं पड गई है। तू उसे निकाल दे। उस काली गाय के कहने पर साहूकार की बहू ने सिलाई से स्याहू माता की सारी जूं निकाल दिया। इस पर स्याहू माता अत्यंत खुश हो गयी। स्याहू माता ने उस साहूकार की बहू से कहा- तेरे साथ बेटे और सात बाहें हो। सुनकर साहूकार की बहू ने कहा- मुझ तो एक भी बेटा नहीं है सात कहाँ से होंगे। स्याहू माता ने पुछा- इसका कारण क्या है? उसने कहा यदि आप वचन दें तो इसका कारण बता सकती हूँ। स्याहू माता ने उसे वचन दे दिया। वचन-बद्ध करा लेने के बाद साहूकार की बहू ने कहा- मेरी कोख तुम्हारे पास बंद पडी है, उसे खोल दें।
स्याहू माता ने कहा- मैं तेरी बातों में आकर धोखा खा गयी। अब मुझे तेरी कोख खोलनी पड़ेगी। इतना कहने के साथ ही स्याहूँ माता ने कहा- अब तू घर जा तेरे सात बेटे और सात बहुएं होगीं घर जाने पर तू अहोई माता का उघापन करना। सात सात अहोई बनाकर सात कडाही देना। उसने घर लौट कर देखा तो उसके साथ बेते और साअत बहुएं बैठी हुई मिलीं वह खुशी के मारे भाव-विभोर हो गई उसने सात अहोई बनाकर सात कडाही देकर उघापन किया। इसके बाद ही दीपावली आया। उसकी जेठानियाँ परस्पर कहने लगीं- सब लोग पूजा का कार्य शीग्र पूरा कर लो। कहीं ऐसा न हो की, छोटी बहू अपने बच्चों का स्मरण कर रोना-धोना न शुरू कर दे। नहीं तो रंग में भंग हो जायेगा। जानकारी करने के लिये उन्होंने अपने बच्चों को छोटी बहू के घर भेजा। क्योंकि छोटी बहू रूदन नहीं कर रही थी। बच्चों ने घर जाकर बताया की वह वहां आता गूंथ रही है और उघापन का कार्यक्रम चल रहा है।
इतना सुनते ही सभी जेठानियाँ आकर उससे पूछने लगी की, तुने अपनी कोख कैसे खुलवाये। उसने कहा- स्याहू माता ने कृपाकर उसकी कोख खोल दी। सब लोग अहोई माता की जय-जयकार करने लगे। जिस तरह अहोई माता ने साहूकार की बहू की कोख खोल दिया उसी प्रकार इस व्रत को करने वाले सभी नारियल की अभिलाषा पूर्ण करें।

सृष्टिक्रमका संक्षिप्त वर्णन ( A Brief Description of Whole Creation )

सृष्टिक्रमका संक्षिप्त वर्णन, द्वीप, समुद्र और भारतवर्ष का वर्णन, भारत में सत्कर्मानुष्ठानकी महत्ता तथा भगवदर्पणपूर्वक कर्म करने की आज्ञा

नारदजी ने पूछा - सनकजी ! आदिदेव भगवान् विष्णु ने पूर्वकाल में ब्रह्मा आदि की किस प्रकार स्रष्टि की ? यह बात मुझे बताइये; क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं।
श्रीसनकजीने कहा -- देवर्षे ! भगवान् नारायण अविनाशी, अनत, सर्वज्ञ तथा निरंजन हैं। उन्होंने इस सम्पूर्ण चराचर जगत को व्याप्त कर रखा है। स्वयं प्रकाश, जगन्मय महाविष्णु ने आदि सृष्टि के समय भिन्न-भिन्न गुणों का आश्रय लेकर अपनी तीन मूर्तियों को प्रकट किया। पहले भगवान् ने अपने दाहिने अंग से जगत की सृष्टि के लिये प्रजापति को प्रकट किया। फिर अपने मध्य अंग से जगत का संहार करने वाले रूद्र-नामधारी शिव को उत्पन्न किया। साथ ही इस जगत का पालन करने के लिये उन्होंने अपने बाएं अंगसे अविनाशी भगवान् विष्णु को अभिव्यक्त किया। ज़रामृत्युसे रहित उन आदिदेव परमात्मा को कुछ लोग 'शिव' नाम से पुकारते हैं। कोई सदा सत्यरूप 'विष्णु' कहते हैं और कुछ लोग उन्हें 'ब्रह्मा' बताते हैं। भगवान् विष्णु की जो परा शक्ति हैं, वह जगतरूपि कार्य का सम्पादन करने वाली है। भाव और अभाव - दोनों उसी के स्वरुप हैं। वही भावरूप से विद्या और अभावरूप से अविद्या कहलाती है। जिस समय यह संसार महाविष्णु से भिन्न प्रतीत होता है, उस समय अविद्या सिद्ध होती है; वही दुःख का कारण होती है। नारदजी ! जब तुम्हारी ज्ञाता, ज्ञान, गये रूप की उपाधि नष्ट हो जायेगी और सब रूपों में एकमात्र भगवान् महाविष्णु ही हैं-- ऐसी भावना बुद्धि में होने लगेगी, उस समय विद्या का प्रकाश होगा। वह अभेद-बुद्धि ही विद्या कहलाती है। इस प्रकार महाविष्णु की मायाशक्ति उनसे भिन्न प्रतीत होने पर जन्म-मृत्युरूप संसार-बंधन को देनेवाली होती है और वही यदि अभेद-बुद्धि से देखी जाय तो संसार-बंधन का नाश करने वाली बन जाती है। यह सम्पूर्ण चराचर जगत भगवान् विष्णु की शक्ति से उत्पन्न हुआ है। भगवान् विष्णुकी वह परा शक्ति जगत की सृष्टि आदि करने वाली है। वह व्यक्त और अव्यक्तरूप से सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित है। जो भगवान् अखिल विश्व की रक्षा करते हैं, वे हे परम पुरूष नारायण देव हैं। अतः जो परात्पर अविनाशी तत्त्व है, परमपद भी वही है; वही अक्षर; निर्गुण; शुद्ध; सर्वत्र परिपूर्ण एवं सनातन परमात्मा है; वे परसे भी परे हैं। परमानंदस्वरुप परमात्मा सब प्रकार की उपाधियों से रहित हैं। एकमात्र ज्ञान योग के द्वारा उनके तत्वका बोध होता है, वे सबसे परे हैं। सत, चित और आनंद ही उनका स्वरुप है। वे स्वयं प्रकाशमय परमात्मा नित्य शुद्ध स्वरुप हैं तथापि तत्त्व आदि गुणों के भेद से तीन स्वरुप धारण करते हैं। उनके ये ही तीनों स्वरुप जगत की सृष्टि, पालन और संहार के कारण होते हैं। मनु ! जिस स्वरुप से भगवान् इस जगत की सृष्टि करते हैं, उसी का नाम ब्रह्मा है। ये ब्रह्माजी जिनके नाभिकमल से उत्पन्न हुए हैं, वे ही आनंदस्वरुप परमात्मा विष्णु इस जगत का पालन करते हैं। उनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। वे सम्पूर्ण जगत के अन्तर्यामी आत्मा हैं। समस्त संसार में वे ही व्याप्त हो रहे हैं। वे सबके साक्षी निरंजन हैं। वे ही भिन्न और अभिन्न रूप में स्थित परमेश्वर हैं। उन्हीं की शक्ति महामाया है, जो जगत की सत्ता का विश्वास धारण करती है। विश्व की उत्पत्ति का आदिकारण होने से विद्वान् पुरूष उसे प्रकृति कहते हैं। आदिसृष्टि के समय लोकरचना के लिये लिये उघत हुए भगवान् महाविष्णु के प्रकृति, पुरुष और काल -- ये तीन रूप प्रकट होते हैं। शुद्ध अन्तःकरण वाले ब्रह्मरूप से जिसका साक्षात्कार करते हैं, जो विशुद्ध परम धाम कहलाता है, वही विष्णुका परम पद है। इसी प्रकार वे शुद्ध, अक्षर, अनंत परमेश्वर ही कालरूप में स्थित हैं। वे ही सत्व, रज, तम-रूप तीनों गुणों में विराज रहे हैं तथा गुणों के आधार भी वे ही हैं। वे सर्व्यापी परमात्मा ही इस जगत के आदि-स्रष्टा हैं। जगदगुरू पुरूषोत्तम के समीप स्थित हुई प्रकृति जब क्षोभ (चञ्चलता) को प्राप्त हुई, तो उससे महत्वका पादुर्भाव हुआ; जिसे समाष्टि-बुद्धि भी कहते हैं। फिर उस महत्तत्व से अहंकार उत्पन्न हुआ। अहंकार से सूक्षम तन्मात्राएँ और एकादश इन्द्रियाँ प्रकट हुई। तत्पश्चात तन्मात्राएँ से पञ्च महाभूत प्रकट हुए, जो इस स्थूल जगत के कारण हैं। नारदजी ! उन भूतों के नाम हैं -- आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। ये क्रमश: के-एक के कारण होते हैं।
तदन्तर संसार की सृष्टि करने वाले भगवान् ब्रह्माजी ने तामस सर्ग की रचना की। तिर्यग योनिवाले पशु-पक्षी तथा मृग आदि जंतुओं को उत्पन्न किया। उस सर्गको पुरुषार्थ का साधक न मानकर ब्रह्माजी ने अपने सनातन स्वरुप से देवताओं को (सात्विक सर्गको) उत्पन्न किया। तत्पश्चात उन्होंने मनुष्यों की (राजस सर्ग्की) सृष्टि की। इसके बाद दक्ष आदि पुत्रों को जन्म दिया, जो सृष्टि कार्य में तत्पर हुए। ब्रह्माजी के इन पुत्रों से देवताओं, असुरों तथा मनुष्यों सहित यह सम्पूर्ण जगत भरा हुआ है। भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपलोक तथा सत्यलोक -- ये सात लोक क्रमश: एक के ऊपर एक स्थित हैं। विप्रवर ! अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल रसातल तथा पाताल -- ये सात पाताल क्रमश: एक के नीचे एक स्थित हैं। इन सब लोकों में रहने वाले लोकपालों को भी ब्रह्माजी ने उत्पन्न किया। भिन्न-भिन्न देशों के कुल पर्वतों और नदियों की भी सृष्टि की तथा वहां के निवासियों के लिये जीविका आदि सब आवश्यक वस्तुओं की भी यथायोग्य व्यवस्था की। इस पृथ्वी के मध्यमभाग में मेरू पर्वत है, जो समस्त देवताओं का निवासस्थान है। जहाँ पृथ्वी की अंतिम सीमा है, वहां लोकालोक पर्वत की स्थिति है। मेरू तथा लोकालोक पर्वत के बीच में सात समुद्र और सात द्वीप हैं। विप्रवर ! प्रत्येद ! प्रत्येद द्वीप में सात-सात मुख्य पर्वत तथा जल प्रवाहित करने वाले अनेक विख्यात नदियाँ भी हैं। वहाँ के निवासी मनुष्य देवताओं के समान तेजस्वी होते हैं। जम्बू, पल्क्ष, शाल्मली, कुश, क्रौन्ज, शाक तथा पुष्कर - ये सात द्वीपों के नाम हैं। वे सब-की-सब देवभूमियाँ हैं। ये सात द्वीपों के नाम हैं। वे सब-की-सब देवभूमियाँ हैं। ये सातों द्वीब सात समुद्रों से घिरे हुए हैं। क्षारोद, इक्षुरसोद, सुरोड़, घृत, दधि, दुग्ध तथा स्वादु जल से भरे हुए वे समुद्र उन्हीं नामों से प्रसिद्ध हैं। इन द्वीपों और समुद्रों को क्रमश: पूर्व-पूर्वकी उपेक्षा उत्तरोत्तर दूने विस्तारवाले जानना चाहिए। ये सब लोकालोक पर्वत तक स्थित हैं। क्षार समुद्र से उत्तर और हिमालय पर्वत से दक्षिण के प्रदेश को 'भारतवर्ष' समझना चाहिए। वह समस्त कर्मों का फल देने वाला है।
नारदजी ! भारतवर्ष में मनुष्य जो सात्त्विक, राजसिक और तामसिक तीन प्रकार के कर्म करते हैं, उनका फल भोगभूमियों में क्रमश: भोगा जाता है। विप्रवर ! भारतवर्ष में किया गया जो शुभ अठवार अशुभ कर्म है, उसका क्षणभंगुर (बचा हुआ) फल जीवों द्वारा अन्यत्र भोगा जाता है। आज भी देवतालोग भारत भूमि में जन्म लेने की इच्छा करते हैं। वे सोचते हैं 'हमलोग कब संचित किये हुए महान अक्षय, निर्मल एवं शुभ पुण्यके फल स्वरुप भारतवर्ष की भूमिपर जन्म लेंगे और कब वहां महान पुण्य करके परमपद को प्राप्त होंगे। अथवा वहां नाना प्रकार के दान, भांति-भांति के यज्ञ या तपस्या के द्वारा जगदीश्वर श्रीहरिकी आराधना करके उनके नित्यानन्दमय अनामय पद को प्राप्त कर लेंगे।' नारदजी ! जो भारतभूमि में जन्म लेकर भगवान् विष्णु की आराधना में लग जाता है, उसके समान और गुणों का कीर्तन जिसका स्वभाव बन जाता है, जो भाग्वाद्भाक्तों का प्रिय होता है अथवा जो महापुरुषों की सेवा-शुश्रूशा करता है, वह देवताओं के लिये भी वन्दनीय है। जो नित्य भगवान् विष्णु आराधना में तत्पर है अथवा हरि-भक्तों के स्वागत-सत्कार में संलग्न रहता है और उन्हें भोजन कराकर बचे हुए (श्रेष्ठ) अन्नका स्वयं सेवन करता है, वह भगवान् विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है। जो अहिंसा आदि धर्मों के पालन में तत्पर होकर शांतभाव से रहता है और भगवान् के 'नारायण' कृष्ण तथा वासुदेव' आदि नामों का उच्चारण करता है, वह श्रेष्ठ इन्द्रादि देवताओं के लिये भी वन्दनीय है। जो मानव 'शिव, नीलकंठ तथा शंकर' आदि नामों द्वारा भगवान् शिव का स्मरण करता तथा सम्पूर्ण जीवों के हित में संलाग्न्न रहता है, वह (भी) देवताओं के लिये पूजनीय माना गया है। जो गुरोका भक्त, शिव का ध्यान करने वाला, अपने आश्रम-धर्म के पालन में तत्पर, दूसरों के दोष करने वाला, पवित्र तथा कार्यकुशल है, वह भी देवेश्वर द्वारा पूज्य होता है। जो ब्राह्मणों का हित-साधन करता है, वर्णधर्म और आश्रमधर्म में श्रद्धा रखता है तथा सदा वेदों के स्वाध्याय में तत्पर होता है, उसे पड्क्तिपावन्' मानना चाहिए। जो देवेश्वर भगवान् नारायण तथा शिव में कोई भेद नहीं देखता, वह ब्रह्माजी के लिये भी सदा वन्दनीय है; फिर हम लोगों की तो बात की क्या है ? नारदजी ! जो गौओं के प्रति क्षमाशील - उनपर क्रोध न करने वाला, ब्रह्मचारी, पराई निंदा से दूर रहने वाला तथा संग्रह से रहित है, वह भी देवताओं के लिये पूजनीय है। जो चोरी आदि दोषों से पराड्मुख् है, दूसरों द्वारा किये हुए उपकारों को याद रखता है तथा दूसरों की भलाई के कार्य में सदा संलग्न रहता है, वह देवताओं और असुर सबके लिये पूजनीय होता है। जिसकी बुद्धि वेदार्थ श्रवण करने, पुराण की कथा सुनाने तथा सत्संग में लगी होती है, वह भी इन्द्रादि देवताओं द्वारा वन्दनीय होता है। जो भारतवर्ष में रहकर श्रद्धापूर्वक पूर्वोक्त प्रकार के अनेकानेक सत्कर्म करता रहता है, वह हमलोगों के लिये वन्दनीय है।

15 जुलाई 2010

नवकोटि नारायण ( Navkoti Narayan )

किसी जमाने में ब्रह्मदत्त काशी पर राज्य करते थे। उनके शासन-काल में काशी में एक बड़ा धनी व्यक्ति रहता था। उसने नौ करोड़ रुपये कमाये। इसलिए, इस बीच जब उसके एक पुत्र पैदा हुआ तो अमीर ने उसका नामकरण नवकोटि नारायण किया।

अमीर आदमी अपने बेटे नारायण की हर इच्छा की पूर्ति करता था। इसका नतीजा यह हुआ कि बालक नारायण नटखट और उद्दण्ड हो गया । नारायण जब जवान हुआ, तब अमीर ने एक सुंदर कन्या के साथ उसकी शादी कर दी। लेकिन इसके थोड़े ही दिन बाद अमीर का देहांत हो गया।

बचपन से नारायण पानी की तरह धन ख़र्च करता गया। आख़िर उसके पिता की मौत के समय तक सारी संपति स्वाहा हो गई। उल्टे क़र्ज का बोझ उसके सर पर आ पड़ा। कर्ज़दारों ने आकर क़र्ज चुकाने के लिए उस पर दबाव डालना शुरू किया। उस हालत में नारायण को अपनी ज़िंदगी के प्रति विरक्ति पैदा हो गई। उसने सोचा कि इस अपमान को सहने के बदले कहीं मर जाना अच्छा है! आख़िर उन से बचने के ख़्याल से बोला, ‘‘महाशयो, मैं गंगा के किनारे अमुक पीपल के पेड़ के पास जा रहा हूँ। वहाँ पर मेरे पुरखों द्वारा गाड़ा हुआ ख़जाना है! आप लोग ऋण-पत्र लेकर कृपया वहाँ पर आ जाइयेगा।''

क़र्जदार नारायण की बातों पर यक़ीन करके गंगा के किनारे पहुँचे। नारायण ने ख़जाने को ढूँढ़ने का अभिनय किया। क़रीब आधी रात तक इधर-उधर खोजता रहा। आख़िर कर्जदारों को बेखबर पाकर नारायण, ‘‘जय परमेश्वर की'' चिल्ला कर गंगा में कूद पड़ा। गंगा की धारा उसे दूर बहा ले गई।

उस जमाने में बोधिसत्व एक हिरन का जन्म धारण कर अन्य हिरनों से दूर गंगा के किनारे एक आम के बगीचे में रहने लगा था। उस हिरन की अपनी एक अनोखी विशेषता थी। उसकी देह सोने की कांति से चमक रही थी। लाख जैसे लाल खुर, चाँदी के सींग, हीरों की कणियों के समान चमकनेवाली आँखें, उसकी आकृति की विशेषताएँ थीं। आधी रात के व़क्त उस हिरन को एक मनुष्य की करुण पुकार सुनाई दी। हिरन यह सोचते हुए कि यह कैसा आर्तनाद है, नदी में कूदकर उस आवाज़ की दिशा में तैरते हुए नारायण के पास पहुँचा।

‘‘बेटा, तुम डरो मत, मेरे साथ चलो।'' यों उसे हिम्मत बँधा कर हिरन ने नारायण को अपनी पीठ पर चढ़ाया और उसको अपने निवास तक ले गया। नारायण के होश संभालने तक हिरन जंगल से फल ले आया और उसकी भूख मिटाई।

एक दिन हिरन ने नारायण को समझाया, ‘‘बेटा, मैं तुम्हें जंगल पार कराकर तुम्हारे राज्य का रास्ता बता देता हूँ। तुम अपने गाँव चले जाओ। लेकिन मेरी एक शर्त है, राजा या कोई और व्यक्ति भले ही तुम पर दबाब डाले, या लोभ दिखावे, तुम यह प्रकट न करना कि अमुक जगह सोने का हिरन है।''

नारायण ने हिरन की बात मान ली। उसकी बातों पर विश्वास करके हिरन ने नारायण को अपनी पीठ पर बिठाया, और जंगल पार करा कर उसे काशी जानेवाले रास्ते पर छोड़ दिया।

नारायण जिस दिन काशी नगर में पहुँचा, उस दिन वहाँ पर एक अद्भुत घटना हुई। वह यह कि रानी को सपने में एक सोने के हिरन ने दर्शन देकर उसे धर्मोपदेश किया था।

रानी ने राजा को अपने सपने का समाचार सुनाकर कहा, ‘‘अगर दुनिया में ऐसा हिरन न होता तो मुझे कैसे दिखाई देता? चाहे वह कहीं भी क्यों न हो, उसे पकड़ लाने पर मेरे प्राण बच सकते हैं, वरना नहीं।''

रानी के वास्ते हिरन मँगवाने के लिए राजा ने एक उपाय किया। उन्होंने एक हाथी के हौदे पर एक सोने का बक्स रखवा दिया और उसमें एक हज़ार सोने के सिक्के भरवा दिये। तब निश्चय किया कि उसका जुलूस निकाला जाये और जो आदमी सब से पहले सोने के हिरन का समाचार देगा, उसको बक्स के भीतर के सोने के सिक्के उपहार के रूप में दिये जायेंगे। इस आशय का ढिंढोरा सब जगह पिटवाया गया। उसी व़क्त नारायण काशी नगर में पहुँचा।

उसने सेनापति के पास पहुँच कर निवेदन किया, ‘‘महाशय, मैं उस सोने के हिरन का सारा समाचार जानता हूँ। आप मुझे राजा के पास ले जाइये।''

इसके बाद नारायण ने राजा और उनके परिवार को साथ ले हिरन का निवास दिखाया। वह थोड़ी दूर जा खड़ा हुआ।

राजा के परिवार ने कोलाहल करना शुरू किया। हिरन के रूप में रहनेवाले बोधिसत्व ने उनकी आवाज़ सुनी।

‘शायद कोई महान अतिथि आया होगा। उनका स्वागत करना चाहिए।' यों सोचकर वह उठ खड़ा हुआ और सब लोगों से बचकर वह सीधे राजा के पास पहुँचने के लिए दौड़ा।

हिरन की तेज गति को देख राजा आश्चर्य में आ गये। धनुष और बाण लेकर हिरन पर निशाना लगाया। इस पर हिरन ने पूछा, ‘‘महाराज, रुक जाइये! आपको किसने मेरे निवास का पता बताया है?''
राजा के कानों में ये शब्द बड़े ही मधुर मालूम हुए। स्वतः ही उनके हाथों से धनुष और बाण नीचे गिर गये।

बोधिसत्व ने मीठे स्वर में फिर राजा से पूछा, ‘‘महाराज, आपको किसने मेरे निवास का पता बताया है?''

राजा ने नारायण की ओर उंगली का इशारा किया।

इस पर बोधिसत्व ने यों तत्वोपदेश किया, ‘‘शास्त्रों में वर्णित ये बातें बिलकुल सही हैं कि इस दुनिया में मनुष्य से बढ़कर कोई भी प्राणी कृतघ्न नहीं है। जानवर और चिड़ियों की भाषा भी समझी जा सकती है, लेकिन मनुष्य की बातों को समझना ब्रह्मा के लिए भी संभव नहीं है।'' इन शब्दों के साथ बोधिसत्व ने वह सारा वृत्तांत राजा को सुनाया कि उसने नारायण की रक्षा करके कैसे उससे वचन लिया था। राजा ने क्रोध में आकर कहा, ‘‘ओह, यह बात है! ऐसे कृतघ्न दुनिया के लिए भी बोझीले हैं। यह महान पापी है। मैं अभी इसका वध करता हूँ।'' यों कहकर राजा ने अपने तरकस से तीर निकाला।

बोधिसत्व ने राजा को रोकते हुए कहा, ‘‘महाराज, इसके प्राण न लीजिये। अगर यह ज़िंदा रहेगा तो कभी-न-कभी अपनी भूल समझकर यह अपनी ज़िंदगी को सुधार लेगा। आप कृपया अपने वचन के मुताबिक़ उसे जो पुरस्कार मिलना चाहिए, उसको दे दीजिए। यही बात न्याय संगत है।''

राजा ने बोधिसत्व के उपदेश का पालन किया।

बोधिसत्व की उदारता, क्षमा आदि महान गुणों को राजा ने समझ लिया। उनको एक महात्मा मानकर अपने राज्य के सलाहकार के रूप में नियुक्त किया।

तुलसी माला का महत्व ( The importance of Tulsi Mala )

यूं तो मालाएं कई प्रकार की होती हैं। जैसे फूलों की, रत्नों की, बीजों की एवं धातुओं की आदि। कुछ को हम आभूषण के रूप में धारण करते हैं तो कुछ को  मन एवं एकाग्रता के लिये न केवल गले में धारण करते हैं बल्कि हाथों से जाप करने के प्रयोग में भी लाते हैं। ऐसे में अधिकतर लोग तुलसी या रुद्राक्ष की माला का प्रयोग करते हैं। इसमें भी तुलसी की माला का प्रयोग अधिक होता है। क्यों?

तुलसी की ही माला क्यों ?
तुलसी वैष्णव का धर्म का प्रतीक है। श्री कृष्ण एवं विष्णु को प्रसन्न करने के लिये तुलसी की माला को जप व धारण किया जाता है। कहते हैं श्री कृष्ण की सोलाह हजार पटरानियाँ और आठ पत्निया थीं। उन आठ पत्नियों में से एक पत्नी तुलसी भी थीं। तुलसी कृष्ण को प्रिय थीं इसलिए उपासक, साधक या वैष्णव धर्म प्रेमी तुलसी की माला का प्रयोग करते हैं।

माला धारण करने से लाभ
होंठ व जीभ मिलाकर उपांशु जप करने वाले साधकों को कंठ की धमनियों का प्रयोग करना पड़ता, जिसके लिये अधिक श्रम करना पड़ता है। इस श्रम के चलते साधक को कंठ सम्बंधित रोगों की संभावना भी रहती है। तुलसी अपने गुणों से कंठ को दुरूस्त रखती है तथा इसका स्पर्श व दबाव गले, गर्दन और सीने में एक्यूप्रेशर का काम करता है।

धर्माचरण ( Dhermacharan )

प्राचीन काल में काशी राज्य पर ब्रह्मदत्त शासन करते थे। उसी काल में बोधिसत्व ने धनंजय के नाम से कुरु राजा के रूप में इन्द्रप्रस्थ में जन्म लिया। उनके राज्य में अकाल कभी पड़ता न था। प्रजा सुखी थी। सारे जंबू द्वीप में ख़बर फैल गयी कि धर्माचरण और दान करने में इंद्रप्रस्थ के राजा धनंजय की बराबरी करने वाला कोई नहीं हैं।

उन्हीं दिनों दंतपुर को अपनी राजधानी बनाकर कलिंग देश पर कालिंग नामक राजा राज्य करते थे। उस राज्य में एक बार भयंकर अकाल पड़ा। जनता भूखों मरने लगी। कई बच्चे अपनी माताओं की गोद में ही मर गये। जनता में हाहाकार मच गया। देश की उस बुरी हालत देख राजा कालिंग का दिल पसीज उठा। उन्होंने अपने मंत्रियों को बुलाकर पूछा, ‘‘इस वर्ष हमारे देश में ऐसे भयंकर अकाल पड़ने का कारण क्या है? इस बुरे हाल से बचने का उपाय क्या है?’’
मंत्रियों ने जवाब दिया, ‘‘महाराज, देश में जब धर्म की हानि होती है, तभी ऐसी आपदाएं आती हैं। इंद्रप्रस्थ के राजा धनंजय अपने धर्म का पालन करते हैं! इसीलिए उस देश में कभी अकाल नहीं पड़ता। जनता सुखी है और देश समृद्ध है।’’

‘‘तब तो तुम लोग एक काम करो। आज ही इन्द्रप्रस्थ जाकर राजा धनंजय के दर्शन करो। उनके द्वारा सोने के पत्रों पर धर्म-सूत्र लिखवा कर ले आओ। हम भी उन सूत्रों पर अमल करके अपने देश को सुखी और संपन्न बना लेंगे।’’ राजा कालिंग ने समझाया। कलिंग देश के मंत्री स्वर्ण पत्र लेकर इंद्रप्रस्थ पहुँचे। राजा धनंजय के दर्शन करके बोले, ‘‘महाराज, हम कलिंग देश के निवासी हैं। हमारे देश की प्रजा भयंकर अकाल का शिकार हो गई है। आप तो धर्मात्मा हैं, धर्माचरण करते हुए प्रजा पर शासन करते हैं। इसीलिए आपकी प्रजा सुखी और संपन्न है। हमारे राजा को जिन धर्मसूत्रों का पालन करना चाहिए, उन्हें आप इन सोने के पत्रों पर लिख दीजिए। हमारे राजा उन धर्म-सूत्रों का पालन करके अकाल से प्रजा को मुक्त करेंगे।’’ इन शब्दों के साथ कलिंग देश के मंत्रियों ने सोने के पत्रों को धनंजय के सामने रखा।

धनंजय ने प्रणाम करके कहा, ‘‘महामंत्रियो ! क्षमा कीजिए। इन पत्रों पर धर्म-सूत्र लिखने की योग्यता मैं नहीं रखता, क्योंकि एक बार मेरे द्वारा धर्म का उल्लंघन हुआ है। हमारे देश में तीन सालों में एक बार कार्तिक उत्सव होता है। उस व़क्त राजा को एक तालाब के किनारे यज्ञ करके चारों तरफ़ चार बाण छोड़ने पड़ते हैं। एक बार मैंने जो चार बाण छोड़ दिये, उन में से तीन तो हाथ लगे, मगर चौथा बाण तालाब में गिर गया। उसके आघात से मछलियाँ और मेंढक मर गये होंगे।’’

ये बातें सुन मंत्री आश्चर्य में आ गये। इसके बाद वे राजमाता मायादेवी के पास पहुँचे। सारी बातें उन्हें सुनाकर बोले, ‘‘माताजी, आप कृपया हमारे वास्ते धर्म-सूत्र लिख दीजिए।’’ ‘‘बेटे, मैंने भी धर्म का अतिक्रमण किया है। एक बार मेरे बड़े बेटे ने मुझे सोने की एक माला भेंट की। मैंने अपनी बड़ी बहू को संपन्न परिवार की समझ कर वह माला छोटी बहू को दे दी। लेकिन दूसरे ही पल मेरे भीतर का पक्षपात मुझे मालूम हुआ और इस बात का मुझे बड़ा दुख हुआ। इसलिए दूसरों को धर्म-सूत्र लिख कर देने की योग्यता मैं नहीं रखती। आप लोग कृपया किसी योग्य व्यक्ति के पास जाइये।’’

इसके बाद कलिंग देश के मंत्री राजा के भाई नंद के पास पहुँचे। उन्होंने भी एक बार धर्म का अतिक्रमण करने की बात बताई, ‘‘मैं रोज शाम को अपने रथ पर अंतःपुर में जाता हूँ। अगर मैं अपना चाबुक रथ पर छोड़ जाता हूँ तो मैं रात को अंतःपुर में नहीं टिकता। ऐसी हालत में रथ का सारथी मेरे इन्तज़ार में बैठा रहता है। यदि मैं चाबुक अपने साथ ले जाता हूँ तो सारथी रथ हांक ले जाता है, और दूसरे दिन सवेरे रथ ले आता है। एक दिन मैं चाबुक को रथ पर छोड़ कर अंतःपुर में चला गया। उस दिन अंतःपुर से लौटने का मेरा विचार था। लेकिन एक दिन जब रथ में चाबुक छोड़ कर गया तो ज़ोर से पानी बरसा। राजा ने, जो मेरे बड़े भाई हैं, मुझे लौटने नहीं दिया; इस कारण मैं रात को अंतःपुर में ही रह गया। पानी में भीगते मेरा सारथी रात भर रथ पर बैठा ही रह गया। उसे इस प्रकार तक़लीफ़ पहुँचा कर मैंने धर्म का अतिक्रमण किया है।’’

इसके बाद कलिंग के मंत्री राजपुरोहित के पास पहुँचे । लेकिन उन्होंने भी धर्म का अतिक्रमण करने की घटना बताई, ‘‘एक दिन मैं राजमहल को जा रहा था। रास्ते में मुझे एक रथ दिखाई दिया। उस पर सोने का मुलम्मा चढ़ाया गया था। उसे देखते ही मेरे मन में लालच पैदा हो गया। मैं जब राजा के पास पहुँचा, तब वे मुझे देखकर बोले, ‘‘पुरोहितजी, यह रथ मैं आपको भेंट करता हूँ।’’ उसी व़क्त मुझे अपने लालच की याद हो आई और पछताते हुए मैंने उस रथ को लेने से इनकार किया। इसलिए मैं आपको धर्म-सूत्र लिखकर नहीं दे सकता।’’

कलिंग देश के मंत्रियों की समझ में कुछ नहीं आया। आख़िर वे इंद्रप्रस्थ के महामंत्री के पास पहुँचे। वे बोले, ‘‘मैं एक दिन एक किसान के खेत का माप लेने गया। माप के मुताबिक़ जहाँ मुझे लकड़ी गाड़नी थी, वहाँ पर एक बिल था। मेरे मन में शंका पैदा हो गई कि उस बिल में किसी प्राणी का निवास हो सकता है। लेकिन अगर थोड़ा हटकर लकड़ी गाड़ दूँ तो किसान का नुकसान होगा! उसके थोड़ा आगे गाड़ने पर राजा का नुकसान हो सकता है! इसलिए मैंने उस बिल में ही लकड़ी गाड़ने की आज्ञा दी। उसी व़क्त बिल में से एक केकड़ा बाहर निकलते हुए लकड़ी के आघात से मर गया। इसलिए मैंने भी धर्म का अतिक्रमण किया है। ऐसी हालत में मैं आप लोगों को धर्म-सूत्र लिखकर कैसे दे सकता हूँ?’’

इस पर के मंत्रियों के मन में एक उपाय सूझा। उन लोगों ने जो कहानियाँ सुनी थीं उन्हें सोने के पत्रों पर लिख कर राजा को सुनाया। राजा कालिंग ने समझ लिया कि धर्म के प्रति ईमानदार रहना ही सबसे उत्तम धर्म है। इस प्रकार आत्म विमर्श करके उन्होंने शासन करना शुरू किया। कुछ ही दिनों में पानी बरसा और राज्य भर में अकाल दूर हो गया। कलिंग देश की प्रजा सुख पूर्वक अपनी जिंदगी बिताने लगी।

क्या है उपनिषद ? ( What is the Upanishads? )

उप, नि, षद - इनका विश्लेषण किया जाए तो उप अर्थात पास में, नि अर्थात निष्ठापूर्वक और सद अर्थात बैठना। इस प्रकार इसका शाब्दिक अर्थ हुआ - तत्वज्ञान के लिये गुरू के पास निष्ठावान होकर बैठना। ये वेद के अंतिम भाग हैं और इसी कारण से इन्हें वेदान्त भी कहा गया है। उपनिषदों को रहस्यमय ग्रन्थ भी कहा गया है। रहस्यात्मक तत्वज्ञान गुरू और शिष्यों के मध्य चर्चा का विषय रहा है। शिष्यों के तत्वज्ञान से सम्बंधित प्रशनों के उत्तर गुरू देते आए हैं और वे ही प्रश्नोत्तर, गुरू-शिष्य के मध्य के संवाद, इन ग्रंथों में संकलित हैं।

उपनिषदों में ज्ञान काण्ड की प्रधानता है इसलिए इनमें ब्रह्म के स्वरुप, जीव एवं ब्रह्म के आपसी सम्बन्ध और ब्रह्म-प्राप्ति के मार्ग आदि से सम्बंधित ज्ञान का विस्तृत वर्णन है। इसे अध्यात्मा विद्या अथवा ब्रह्म विद्या भी कहते हैं।

वेदों की जितनी शाखाएं हैं उतने ही उपनिषद थे. प्रत्येक का अपना-अपना उपनिषद था। परन्तु आज वे सभी उपनिषत उपलब्ध नहीं हैं। आज तक 108 उपनिषद मिले हैं जिनमें 10 उपनिषद ऋग्वेद से सम्बन्ध रखते हैं। 19 शुक्ल यजुर्वेद के, 32 कृष्ण यजुर्वेद के, 16 सामवेद के और 31 अथर्वेद के बतलाए जाते हैं। वास्तव में उपनिषदों की संख्या बहुत अधिक थी। ये 108 उपनिषद तो उपनिषद साहित्य के सार थे। इन 108 उपनिषदों में भी केवल 12 या 13 ही प्रामाणिक माने जाते हैं।

क्या हैं वेद? ( What are the Vedas? )

वेद ज्ञान का अनंत भण्डार है। ईश्वरीय ज्ञान है। ये कोई एतिहासिक पुस्तकें नहीं है की कोई घटना घटे और पुस्तकबद्ध हो गई। ईश्वर की अलौकिक वाणी जो ज्ञानरूप में वेदों में निहित है, उसे समझने के लिये वेद ही वे अलौकिक नेत्र हैं जिनकी सहायता से मनुष्य इश्वर के अलौकिक ज्ञान को समझ सकता है। वेद ही वे ज्ञान ग्रन्थ हैं जिनके समकक्ष विश्व का कोई भी ग्रन्थ नहीं है।

हमारे ऋषि-मुनियों ने युगों-युगों तक गहन चिंतन-मनन कर इस ब्रह्माण्ड में उपस्थित कण-कण के गूढ़ रहस्य का सत्यज्ञान वेदों में संग्रहीत किया।

सामान्य भाषा में वेद का अर्थ है - ज्ञान।
वस्तुतः ज्ञान वह प्रकाश है जो मनुष्य-मन के अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट कर देता है। वेद शब्द संस्कृत के विद शब्द से निर्मित है।

वेदों में न केवल धर्म का उल्लेख मिलता है, बल्कि इनमें राजनीति, आचार-विचार, विज्ञान, ज्योतिश, औषधि, दर्शन आदि का भी विस्तृत उल्लेख मिलता है। वेदों में चारों वणों, उनके कार्यों कर्तव्यों और आचरणों का भी उल्लेख है। साथ ही सामाजिक आचार-विचार, शिष्टाचार, राष्ट्र रक्षा के उपाय, उस पर शासन करने के सिद्धांत उल्लिखित हैं।

वेदों की संख्या चार हैं - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वेद

स्वार्थ पर न टिके प्यार की नींव ( Love is not dependent on interest )


आज के इस भौतिकवादी युग में प्यार ढूँढने जाएँ तो कोसों दूर नहीं मिलता, क्योंकि प्यार का स्थान स्वार्थ ने ले लिये है। आज प्रेम भी वहीं दिल लगाना चाहते हैं जहान पर उन्हें फायदा दिखाई देता है। जिस तरह कई शादियों की नीवं दहेज़ पर टिकी होती है, ठीक उसी तरह आज के जमाने में प्यार की नींव स्वार्थ पर टिकी है। आज के युग में 1-2 वर्ष पुराना प्रेम ओल्ड फैशन हो गया है। यो लोग भूले-भटके किसी के प्यार में अपनी जिन्दगी दांव पर लगाने को तैयार हो जाते हैं वे बेवक़ूफ़ वे पागलों में गिने जाते हैं।

यह सत्य है की आज प्रेम के बारे में उनका ज्ञान कच्चा है। इस जीवन के बारे में लोगों का ज्ञान केवल पारिवारिक अनुभवों या हिंदी फिल्मों में दिखाए गए दृश्यों तक ही सीमित रहता है।

प्रारंभ का प्रेम
प्यार के शुरूआती महीने में हर मौसम सुहान और जीवन का हर रंग खूबसूरत लगता है। इस दौरान गर्लफ्रेंड और ब्वायफ्रेंड एक-दूसरे के प्रति अत्यंत आकर्षित रहते हैं। वे एक- दूसरे के प्रति उदार, सहयोगी और हाथों-हाथ लेने का भाव प्रदर्शित करते हैं, ताकि जीवनसाथी को लगे की वह दुनिया का सर्वाधिक भाग्यशाली व्यक्ति है। इस दौरान कटु अनुभव होने की गुंजाइश बहुत कम होती है। यह सुहाना सफ़र कितना लंबा होगा यह तो अलग जोड़ों की अवस्था पर निर्भर करता है। कपल्स जो एक दूसरे से कम उमीदें रखते हैं उनका प्रेम अधिक समय तक टिकता है। लेकिन वे लोग जो यह सोचते हैं की प्यार में समझौता की कोई आवश्यकता नहीं है और सेक्स का मतलब सिर्फ प्यार है वे जल्द ही प्रेम से वंचित हो जाते हैं।

प्यार से पहले समझौता या अलगाव
प्यार अगर ताकत है तो प्यार कमजोरी भी है। अगर प्यार में इंसान अपनी भावनाओं के तहत कमजोर होता जाता है तो रिश्ता चाहे कोई भी हो सामने वाला इंसान उसका फायदा जरूर उठता है। फिर चाहे वह प्रेम माँ-बाप का बच्चों के प्रति हो या पति या पत्नी का अपने पार्टनर के प्रति हो।

प्रेमा बताती है, 'मेरा प्रेमी विवेक निहायत ही शरीफ और समझदार इंसान है। लड़कियों के साथ खासतौर से उसका व्यवहार शालीन भरा है। उसके किसी गुण के कारण ही उसकी तरफ आकर्षित हो गई। चूंकि में उसे मन ही मन चाहती थी। इसलिए विवेक की हर बात मानती थी। उसे भी इस बात की जानकारी थी की मैं उससे प्यार करती हूँ। इसलिए वह मुझे ऐसे रोब मारता था की मैं उसकी पत्नी हूँ। 'मेरे प्यार का फायदा उठाते हुए वह हमेशा मनमानी करता था। जब उसका दिल चाहता मुजस से मिलने आ जाता था लेकिन मेरे मिलने के लिये बुलाने पर वह कभी नहीं आता था। इस व्यवहार ने मुझे झकझोर कर रख दिया, फिर भी मैं चुप थी। लेकिन काफी वर्षों तक भी जब उसने मुझे शादी के लिये प्रपोज नहीं किया तो मैं भी उसे छोड़ने का फैसला कर लिया। दो महीने तक मैंने उससे बात तक नहीं की। मेरे इस व्यवहार ने उसका दिमाग खोल दिया। अब वह खुद मुझसे मिलने के लिये बेताब रहने लगा। एक दिन शाम को उसने मुझसे शादी के लिये प्रपोज कर दिया। इस समय हम दोनों पति-पत्नी के रूप में खुशी से जीवन का मजा ले रहें हैं।'

इस प्रकार हम देखते हैं की यह चारण जीवन के दोराहे पर लाकर खडा कर देता है, जहाँ से दो रास्ते दिखाई पड़ते हैं 'समझौता' या 'अलगाव'। जीवन की इस अवस्था में सभी जोड़ों को अत्यधिक सावधानी की आवश्यकता होती है, क्योंकि एक भी गलत फैसला उन्हें हमेशा के लिये अलग कर सकता है। यहाँ दूसरे की गलतियों पर चीखने-चिल्लाने की जगह जीवनसाथी को उसकी कमियों के साथ स्वीकार करने की भावना जीवन को स्थायी बनाने का काम करती हैं, जबकि इसके विपरीत प्रतिक्रया सम्बन्ध विच्छेद या अलगाव की राह पर ले जाती है। जो कपल्स जीवन का आनंद उठाना चाहते हैं वे समझदारी से काम लेते हुए टकराव की परिस्थितियों को ढालने में रुचि दिखाते हैं। वे जीवन की इस वास्तविकता को समझ लेते हैं की परिवर्तन प्रकृति का नियम है और नई जिम्मेदारियां, नए अनुभवों को सहर्ष स्वीकार करते हैं। वे जीवनसाथी पर फैसलों को थोपने की जगह उसकी भावनाओं का सम्मान करते हुए उससे कुछ सार्थक सीखने का प्रयास करते हैं।

संबंधों में दरार तर्क से पड़ती है
हर सम्बन्ध में मतभेद होते हैं और इन पर बहस होती है। इश्क होने का मतलब यह नहीं होता की कपल्स के दिमाग भी एक हो गए हैं। हर व्यक्ति की अपनी सोच होती है और कोई भी कपल्स हर समय हर बात पर सहमत नहीं हो सकते हैं।
तर्क से बचने के लिये चुप्पी साधना कोई हल नहीं हैं, लेकिन बहस को कटु होने से जरूर बचना चाहिए। देखा जाए तो स्वस्थ बहस की तुलना में चुप रहकर मन में घुटते रहना दाम्पत्य जीवन को अधिक नुक्सान पहुंचाता है।
आप जितनी अधिक गलतियाँ निकालेंगे जीवनसाथी खुद को न बदलने के लिये उतना ही दृढ प्रतिज्ञ होता जायेगा।
अगर आप अपने जीवनसाथी को वाकई बदलना चाहते हैं तो उसके सकारात्मक पहलुओं की इमादारी से प्रशंसा कीजिये। आप पायेंगे की कुछ समय बाद नकारात्मक पहलुओं में स्वतः कमी आनी शुरू हो गई है।
जीवन में जीवनसाथी से कोई भी बात न छिपाना निःसंदेह एक आदर्श विचार है, लेकिन सच यह है की हर बात बता देना आप दोनों को करीब लाने की गारंटी नहीं है।

सही जानकारी का पता न चलना
अब तो अधिकतर प्यार इन्टरनेट के जरिये हो रहा है। अब पहले जमाने की तरह खानदान का विस्तार तो रहा नहीं, परिवार सिमटकर पति-पत्नी और दो बच्चों तक रह गया है। ऐसे में प्यार के लिये जांच-पडतान करवा पाना भी मुश्किल होता जा रहा है। इन्टरनेट में बहुत बातें छिपा दी जाती हैं, इसलिए शादी के लिये जल्दबाजी न करें जब तक सामनेवाले पक्ष के बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त न कर लें, तब तक रिश्ता तय न करें।

उमा बी.ए. प्रथम वर्ष की छात्रा थी। उसने जल्दबाजी में रेलवे में नौकरी करते लड़के से शादी कर ली। लड़का तुषार देखने में काफी स्मार्ट था। उमा भी सुंदर जीवनसाथी पाकर खुश थी। जब तीन साल गुजर गए और संतान पैदा नहीं हुआ तो सास ने ताना मारना शुरू कर दिया। उमा ने डाँक्टर को दिखाया लेकिन डाँक्टर डीपी राय ने उमा में कोई कमी नहीं पायी। यह सुनकर उमा की चिंता तो दूर हो गई, लेकिन उसने रात को एक दिन तुषार को भी चेकअप  कराने को कहा। इस पर तुषार तुनक गया. उल्टी-सीधी बातें करने लगा। वह तो उलटे उमा को ही खरी-खोटी सुनाने लगा।

समय बीतता गया। उमा कुंठित सी हो गई। आखिरकार एक दिन सच सामने आ ही गया। तुषार के एक पुराने फ़ाइल में उमा को उसका मेडिकल चेकअप मिल गया। उसकी रिपोर्ट के अनुसार तुषार नपुंसक था। उमा के तो होश ही उड़ गए। अब उसको पिछले दिनों की सारी बातें याद आने लगी। उसका पति एक-एक बहाना बना कर उससे दूर क्यों रहता था, तब बात उसको समझ में आ गई।

ऐसा नहीं है की किसी में कमी नहीं होती, लेकिन यदि इन कमियों को सही रूप में पहले ही सामने रख दिया जाए तो शायद बाद में सब ठीक हो जाएगा। आजकर थोड़ा बहुत झूठ बोलना तो आम बात हो गई है, लेकिन झूठ ऐसा न हो की वह रिश्तों को बिगाड़ दे, या मन में हमेशा के लिये गाँठ पड़ जाए। झूठ और अविश्वास की नींव पर रचे गए संबंधों में न तो स्थिरता होती है और न ही मधुरता।

14 जुलाई 2010

अठारह की पहेली ( Eighteen of the puzzle )

सन् 1945 में 30 जुलाई को हॉलीवुड में अभी सूर्योदय हुआ ही था कि अचानक एक झाड़ी से दो व्यक्ति निकले और एकान्त सड़क पर जाती हुई एक छोटी वैन को उन्होंने ऐक लिया । एक व्यक्ति लम्बा, दुबला और घबराया हुआ था, दूसरा नाटा, हट्टा-कट्टा और शान्त था । उन्होंने वाहन के दोनों सवारियों को बन्दूक की नोक पर बाहर निकाला, उनकी आँखों और मुख पर पट्टी बॉंधी और पास के एक वृक्ष के साथ उन्हें बॉंध दिया ।

वे कौन थे और क्या करना चाहते थे? उन्होंने वैन से जल्दी-जल्दी सामान उतारा - चॉंदी के सिक्कों की छः बोरियॉं और ताजे डॉलर के नोट्स से भरा गत्ते का एक बक्सा । फिर थोड़ी दूर पर खड़ी एक कार में उन्हें लादा और तेजी से जाते हुए सुबह के कुहासे में खो गये । दिन के उजाले में यह एक दुस्साहस पूर्ण डकैती थी । वैन हॉलीवुड स्टेट बैंक की थी । शीघ्र ही वे दोनों कुछ राहगीरों की मदद से किसी तरह बन्धन से मुक्त हो गये । वे चकित और किंकर्त्तव्यविमूढ़ थे । सब कुछ इतनी जल्दी हो गया कि वे अपनी रक्षा नहीं कर सके । वे बहुत दुखी थे, क्योंकि वे लॉक हीड कम्पनी को अपने कर्मियों को वेतन देने के लिए पैसा सौंपने के अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर सके ।

डाकुओं ने गंभीर अपराध किया था । उन पर अपहरण और चोरी का आरोप था । चोरी का माल बरामद करने के लिए मुकदमे को जल्दी से जल्दी सुलझाने की आवश्यकता थी । यह पुलिस और जासूसों के लिए एक भारी चुनौती थी । क्या अपराधियों ने अपने पीछे कोई संकेत छोड़ा था? दर्जनों लोगों से पूछताछ की गई । बैंक के दोनों कर्मचारियों के सवाल किये गये । आँख पर पट्टी बॉंधते समय एक नाटे हट्टे-कट्टे डाकू की कमीज़ पर एक ने बैज देखा था ।

यह लॉकहीड कम्पनी का चिह्न या । स्पष्ट है कि उसने यह दिखाने के लिए पहना था कि वह उस कम्पनी में काम करता है । एक दिन एक पुलिस अधिकारी को एक फेंकी हुई कार मिली । कार के अन्दर फटे कागज का एक टुकड़ा मिला जिस पर एक नाम और पता लिखा था । शीघ्र ही पुलिस को वह पता मिल गया और पुलिस ने उसका दरवाजा खटखटाया । एक औरत ने दरवाजा खोला जो अपने घर पर पुलिस को देख कर हैरान थी ।

‘‘हम लोग कुछ जॉंच-पड़ताल करने आये हैं,’’ उन लोगों ने कहा ।‘‘शौक से करें । आप का स्वागत है’’, अधेड़ उम्र की महिला ने कहा जिसका नाम श्रीमती एबलार्द था । घर की तलाशी के बाद जासूसों ने बाग में देखा जहॉं एबलार्द के बच्चे गेंद खेल रहे थे । अचानक गेंद कम्पाउण्ड के अन्त में एक शेड के दरवाजे के नीचे से लुढ़क कर चली गई । बच्चे पीछे-पीछे दौड़े किन्तु दरवाजे पर ताला लगा था । एक अधिकारी ने पूछा, ‘‘गैरेज में क्या है?’’ ‘‘उसे पिछले कुछ सप्ताहों से दो युवकों को किराये पर दिया गया है ।’’ श्रीमती एबलार्द ने बताया।

‘‘लेकिन वे कई दिनों से लौट कर नहीं आये हैं । उत्सुक अधिकारियों ने शेड का दरवाजा तोड़ कर खोला । बच्चे अपनी गेंद पाकर बड़े खुश हुए। लेकिन जासूसों को और ज्यादा खुशी हुई । क्योंकि उनके सामने जमीन पर एक कमीज़ पड़ी थी जिस पर लौकहीड का बैज, एक स्वचालित राइफल और बैंक के दोनों कर्मचारियों के रिवाल्वर्स पड़े थे । पुलिस अधिकारी बैज को लौकहीड कारखाने में ले गये । लेकिन जॉंच के बाद पता चला कि उस पर अंकित नम्बर जाली है और कर्मचारियों के नाम से मेल नहीं खाता । डाकुओं ने बड़ी चतुराई से असली नम्बर को मिटा दिया था और उस पर खास कलम से जाली नम्बर लिख दिया था । लेकिन वैज्ञानिक प्रयोगशाला में पराबैंगनी प्रकाश के नीचे बैज में कुछ चित्र दिखाई पड़े । वे असली मुद्रित अंकों के अवशेष थे ।


शीघ्र ही पुलिस लॉकहीड कारखाने के कर्मचारियों के रिकाडर्‌स की जॉंच-पड़वाल करने लगे । उन्हें पता चला कि पुराना नम्बर एक लम्बे, पतले, विचलित स्वभाववाले कर्मचारी का था जिसका नाम जॉनसन था । ऐसा लगता था जैसे हार्डी से उसकी अच्छी दोस्ती थी जो नाटा, गठीला और शान्त स्वभाव का था । वह भी कम्पनी का एक कर्मचारी था । आखिरकार भेद खुल गया । अपराधियों का पता चल गया ।

लेकिन चोर-मित्र बहुत पहले कम्पनी छोड़ चुके थे । अब वे कहॉं हो सकते हैं? कारखाने के रेकाडर्‌स के फोटो के साथ एक दिन दोपहर के बाद सड़क के किनारे की एक छोटी सराय में पुलिस ने जॉनसन को धर दबोचा । उसी शाम को उसी होटल के आस पास हार्डी मंडराता पाया गया । दोनों को, अपने को निर्दोष बताने के बावजूद, जेल में डाल दिया गया ।

डकैती के पैसों के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने पहले बताया कि उन्हें कुछ नहीं मालूम है । बाद में उन्होंने कहा कि वे जान दे देंगे लेकिन यह नहीं बतायेंगे कि धन कहॉं छिपाया गया है । लेकिन एक रात को पुलिस को जॉनसन के पलंग के नीचे पानी भरा एक पात्र मिला । इसमें एक पुराना भीगा हुआ डॉलर का नोट तैर रहा था । इस बेढंगे प्रयोग का क्या अर्थ हो सकता है? क्या यह धन के रहस्य का संकेत है? शायद चोरी का माल किसी नम स्थान पर छिपाया गया है । इसलिए अपराधी यह जानना चाहते थे कि नोट को सड़ने में कितने दिन लगेंगे।

दोनों डाकुओं को अलग-अलग सेल में रखा गया । लेकिन वे अक्सर एक गार्ड की सहायता से अपनी कुछ टिप्पणियों का आदान-प्रदान किया करते थे । किसी प्रकार इनके अधिकांश सन्देश जासूसों के हाथ लग गये । इनके कुछ सन्देशों में संख्या ‘18’ और ‘पेपर’ शब्द की चर्चा थी । एक सन्देश में लिखा थाः ‘‘यदि हम लोग अधिक दिनों तक जेल में बन्द रहे तो पेपर सड़ जायेगा । दूसरा सन्देश इस प्रकार थाः ‘‘मेरी छोटी बहन उसे ला सकती है, लेकिन वह कैसे....तक पहुँच पायेगी ।’’
क्या ‘‘पेपर’’ शब्द का अर्थ धन था? यदि हॉं तो धन उस लड़की की पहुँच से परे बहुत नम स्थान में छिपाया गया था । लेकिन अंक ‘18’ का अर्थ क्या हो सकता था? क्या रास्ते की पहचान के लिए यह संख्या दी गई थी? पुलिस तथा जासूस अधिकारी गणों को शीघ्र ही एक ऐसे मार्ग का पता चला जिस पर चिह्न के रूप में एक पत्थर रखा हुआ था और उस पर ‘18’ लिखा हुआ था । वहॉं से एक तंग पगडंडी तार के 10 फुट ऊँचे एक घेरे तक जाती थी जो एक पुराने कब्रगाह के चारों ओर लगा हुआ था ।

एक अधिकारी ने अपना मनोभाव प्रकट किया, ‘‘सचमुच! कब्र के पत्थर को याद रखना एक आसान चिह्न है!’’ ‘‘तुम ठीक कहते हो! एक छोटी लड़की के लिए इतना ऊँचा घेरा पार करना बड़ा कठिन होगा ।’’ दूसरे ने अपना विचार प्रकट किया । पहेली के बिखरे टुकड़े अब एक जगह पर एकत्र होने लगे । अधिकारियों ने समय नष्ट नहीं किया औ कब्र की अनन्त पंक्तियों के बीच कोई संकेत की तलाश करने लगे और शीघ्र ही उनकी नजर एक पर पड़ ही गई । एक सिपाही की कब्र शिला के पीछे, जो 1898 में मरा था, मिट्टी, टहनियों तथा पत्तों का एक ढेर था!

उस स्थान को उन्होंने तुरन्त खुदवाया । काफी गहराई में कब्र शिला के नीचे चोरी का सारा धन गड़ा था - चॉंदी के सिक्कों की छः बोरियॉं तथा डॉलर के ताजे नोटों से भरा गत्ते का एक बक्सा ! जेल में दोनों दोस्तों को इस बड़ी खोज के बारे में बताया गया । पहले तो उन्होंने विश्वास करने से इनकार कर दिया, किन्तु अन्त में उन्होंने न केवल विश्वास कर लिया, बल्कि अपने अपराध को स्वीकार भी कर लिया ।

अच्छे उपभोगता बनने के 15 तरीके ( 15 Ways to be a good checkbox )



जब बात आती है खरीदारी की तो उसके लिये अभी कोई महिला मना नहीं करती है। चाहे वो घरेलू महिला हो या कामकाजी महिला। खरीदारी करना सभी को अच्छा लगता है। कई बार महिलाओं को खरीदारी करने की इतनी ज्यादा आदत पड़ जाती है कि वो शाँपिंग मेनिया की भी शिकार हो जाती हैं। एक तरफ से देखा जाए तो खरीदारी महिला करे या पुरुष हर किसी के मन को भाति है, पर पुरुषों की उपेक्षा महिलाओं में खरीदारी का सबसे ज्यादा उत्साह होता है, जिसके कारण वो खरीदारी के दौरान कई बार गलतियाँ भी कर जाती हैं।

अगर देखा जाए तो बहुत कम ऐसी महिलाएं होती हैं जिनमें सही ढंग से खरीदारी करने का गुण होता है यानी मजा उठाने के साथ-साथ सही कीमत से लेकर सही वास्तु को पहचाने का गुण, क्योंकि अक्सर यही देखने में आता है कि जब कोई महिला खरीदारी के लिये जाती है तो वह उस सामान की बाहरी बनावट व ब्रांड की तरफ आकर्षित होकर उत्पाद को खरीदती हैं बजाय इस बात के ध्यान दिए कि उसकी गुणवत्ता कैसी है, जो कीमत आप उसकी चुका रहे हैं वो उसके अनुरूप है कि नहीं। इस तरह की कई छोटी-मोटी गलतियाँ हो जाती है। इस गलती की एक वजह आप में खरीदारी करने के सही तरीके की जानकारी का न होना है। इसलिए जानें अच्छे उपभोगता बनने के कुछ उपाय -

सबसे पहले तो आप अच्छे उपभोगता बनने के लिये खरीदारी करने से पहले आप अपना बजट और क्या सामान खरीदना है यह तय कर लें। यानी पूरी सूची तैयार कर लें ताकि वहां समय व्यर्थ न हो।
खरीदारी करने से पहले आप एक बार पूरे बाजार का निरीक्षण कर लें। हो सकता है जो आप खरीदना चाहते  हैं उसमें और भी कुछ नया आया हो।
समय-समय पर आने वाली योजनाओं से अवगत होते रहें और उसका पूरा लाभ भी उठाने की कोशिश करें।
समय-समय पर आने वाली योग्जानों के साथ-साथ आप छूट का भी पूरा-पूरा फायदा उठाएं। छूट का सामान खरीदने से पहले आप सामान के बारे में अच्छे से पता कर लें, तभी खरीदारी करें और साथ में कितने दिनों के लिये छूट है इसकी भी पूरी जानकारी कर लें।
खरीदारी में आप चुनिन्दा चीजों की ही खरीदारी करें। अनावश्यक चीजों की खरीदारी पर अपना समय और पैसा दोनों व्यर्थ न करें।
उत्पाद खरीदने से पहले आप उत्पाद की एक्स डेट व सही कीमत की जांच कर लें। यदि वास्तु के खराब होने की तिथि नजदीक है तो वह सामान खरीदने से बचें।
बिल का करते समय आप एक बार सामान पूरी तरह से जांच लें। साथ में सामान में पड़े मूल्यों को रसीद मिला लें और जितना एमआरपी है उतना ही दें उससे अधिक नहीं।
आप माँल की जगह किसी साधारण दुकान में भी खरीदारी कर सकते हैं, इससे आपका बजट भी नहीं बिगड़ेगा।
आप समय बचाने के लिये ऑनलाइन शौपिंग भी कर सकते हैं।
अगर आप ब्रांड चूजी हैं और आपको किसी दूसरे सस्ते ब्रांड में कोई चीज पसंद आ रही है तो आप उसे भी जरूर ट्राई करें। इस तरह से आप पैसे बचाने के साथ दूसरे ब्रांड के बारे में जान सकते हैं। हो सकता है वो आपको  ज्यादा पसंद आए।
फैशन में हर रोज ज्यादा कुछ न कुछ नया बदलाव आता रहता है। इसलिए आप एक्सेसरीज लेकर आउट फिट तक में ऐआ कलेक्शन पसंद करें, जिसमें इन और आउट फैशन का झंझट न रहे। नहीं तो रोज आप फैशन के हिसाब से खरीदारी ही करते रह जाएंगे।
आप खरीदारी जल्दी-जल्दी न करें। एक खरीदारी से दूसरी खरीदारी के बीच में कम से कम 20 से 25 दिनों का अंतर जरूर रखें।
खरीदारी के दौरान बिल का भुगतान नकद रूप से करें। डेबिट और क्रेडिट कार्ड के इस्तेमाल से बचने की कोशिश करें।
खरीदारी करते वक्त अगर आप किसी उत्पाद को लेकर संशय में है तो उसे ना ही खरीदें।