20 मार्च 2012

मार्गरेट आने वाली है

ऋतु ने एक बार सारे घर में घूम कर देखा। कहीं कोई गंवारपन नहीं दिखाई दिया। दीवार पर टंगी घड़ी तथा कलाकृतियाँ, खिड़की पर रखा नन्हा कैक्टस का गमला, बाहर रखे बोनसाई पौधे। सभी कुछ तो आधुनिक था। अब कोई घर देख कर यह नहीं कह सकता था की घर में कोई पिछडापन है।
  उस ने घड़ी देखी, "ओह, मार्गरेट के आने में बस आधा घंटा रह गया है।" पता नहीं इस नई मेहमान के आने की खबर से उस के दिल में क्यों धुकधुक हो रही थी? एक तो आने वाले ईसाई थीं, ऊपर से गोआ की रहने वालीं। इसलिए वह अपने व्यक्तित्व के साथसाथ घर की साजसंवार के प्रति अतिरिक्त सजग हो उठी थी। अन्दर रखी हुई सजावट की वस्तुएं निकाली थीं। कुशन, परदे, यहाँ तक की तकिये के गिलाफ तक बदल दिए थे।
  एक बार फिर वह श्रृंगार मेज के सामने खडी हो गयी। कितने महीनों बाद उस ने भिड़ी पहनी थी। कमर में 'सफ़ेद धातु' की चेन भी बांधी थी, वरना शादी के बाद मन कैसाकैसा हो जाता है। लड़कपन की पोशाक पहनने में स्वयं ही संकोच होने लगता है। हालांकि अनिल को कोई मतलब नहीं था। उस की बला से कुछ भी पहनो, फिर भी भिड़ी रात में कहीं बाहर जाते समय ही पहन पाती थी।
  उस ने सोचने की कोशिश की कि मार्गरेट कैसी होंगी। उम्र तो उन की 40 वर्ष के आसपास होगी, क्योंकि उन के पति डेविड भी कम से कम 45-46 वर्ष के लगते हैं। देखने में भी वह जरूर चुस्त होंगी, क्योंकि डेविड भी तो कम आकर्षण नहीं हैं। अच्छा तो भिड़ी पहन कर आएंगी या भिड़ी पेंट पहन कर या जींस पहन कर?
  धत, तीन दिनों से मार्गरेट किस कदर उस के दिमाग पर छाई हुई हैं। कितनी बार उस ने इस बात को दिमाग से झटकना चाहा है की मार्गरेट उस के घर आने वाली हैं, किन्तु हर बार वह दिमाग में घुसती ही जा रही है। वह भी क्या करे? डेविड से उन के बारे में व उन के परिवार की शानशौकत के बारे में इतना सुना है की वह उन्हें बिना देखे ही मोहित हो गयी थी। चाचाजी हमेशा बताते रहते थे आजादी से पहले मार्गरेट के पिता किस तरह अंग्रेज अफसरों के साथ शिकार पर जाया करते थे। उन लोगों के परिवार के साथ उन के परिवार का दिन भर का उठनाबैठना था।
  तभी तो वह तीन दिनों से परेशान थी की मार्गरेट यहाँ आ कर उस में या उस के घर में कोई गंवारूपन न नोट कर लें। मन ही मन उस ने उन से बात करने के लिए बेहतर से बेहतर अंगरेजी वाक्य छांट रखे थे। वह किसी पब्लिक स्कूल में नहीं पड़ पाई तो क्या, लेकिन अंगरेजी माध्यम के अच्छे स्कूल में तो पढी हुई थी।
  अनिल और डेविड का परिचय तो बहुत पुराना था। वह नौकरी की खातिर गोआ से इतनी दूर चले आए थे। उन की पत्नी बच्चों के साथ गोआ में निजी मकान में अपनी बूढ़े सासससुर के कारण रह रही थीं।उन की कनपटियों के पास के कुछ सफ़ेद बाल उन की उम्र की चुगली खाते थे, वरना उन के अलमस्त व्यक्तित्व का उम्र से कोई लेनादेना नहीं था।
  "चीं...चीं...चीं..." चिडियानुमा घंटी बजी। वह हाथ का कंघा छोड़ झटपट दरवाजे की तरफ भागी। उफ़! मार्गरेट इतनी जल्दी आ गईं। वह जल्दी में बैठक में कोने की मेज से टकरा गई। मेज के उलटने से उस पर रखी एश ट्रे गिर गई। उस ने एश ट्रे को झटपट मेज पर रख कर दरवाजा खोला।
  दरवाजे पर खड़े डाकिए ने उस के हाथ में तीन पत्र थमा दिए। उन ने झल्ला कर जोर से दरवाजा बंद कर दिया।
  तीनों पत्र पढने के बाद फिर सोचा, चलो रसोई में एक चक्कर लगा आए। सूप, उबली हुई सब्जियां व अंडे तैयार थे। पुडिंग बना कर भी फ्रिज में रख दी थी।
  उन लोगों के आने पर सैंडविच तो शान्ति सेक देगी। रसोई का एक चक्कर लगा कर वह खुश हो गई। कितना मजा है यूरोपीय खाना बनाने में। न मेहनत, न कोई झंझट। अगर हिन्दुस्तानी खाना बनाया होता तो अब तक तो वह रसोई में ही लगी होती। रसोई भी तो कितनी साफसुथरी लग रही है। नहीं तो इस में मसाले व इलायची की खुशबू ही भरी होती।
  बहुत दिनों पहले देखी किसी अंगरेजी फिल्म की नायिका की तरह वह ऊंची एडी के सैंडिल को खटखट करती चलती बैठक में 'शिक' पत्रिका ले कर बैठ गई। हाथ पत्रिका को उलटपुलट रहे थे, लेकिन अभी भी उस के दिल में मार्गरेट के आने की उत्तेजना भरी हुई थी।
  "चीं...चीं...चीं..." इस बार दरवाजे पर अनिल, डेविड व साथ में एक महिला साड़ी में लिपटी, माथे पर सिन्दूर की बिंदी लगाए खडी हुई थी. वह खीज उठी। "उफ़, सारी मेहनत पर पानी फिर गया। आखिर मार्गरेट नहीं आईं।"
  वह उन से चहक कर "हाय!" कहे इस से पहले ही उस महिला ने हाथ जोड़ कर कहा, नमस्ते, ऋतुजी, मैं मार्गरेट हूँ।"
  उसे सहज होने में कुछ सेकण्ड लगे, "नमस्ते, आइये...आइये।"
  ऋतु को गुस्सा आया। यह तो हिन्दुस्तानी में ही बात कर रही है। इस के छांट कर रेट हुए अंगरेजी वाक्यों का क्या होगा?
  ऋतु उन की ओर लगातार कनखियों से देखती जा रही थी। जिस शिष्टाचार को सिखाने में उस के मांबाप ने जान लगा दी, मार्गरेट उन में से एक का भी पालन नहीं कर रहीं थी।
  उफ़, मेज पर बैठते ही उन्होंने गिलास फूल की तरह सजा नेपकिन टांगों पर न बिछा कर बेदर्दी से मेज पर पटक दिया था। प्लेट के एक तरफ रखे हुए छुरीकांटे को उन्होंने छुआ भी नहीं था। सैंडविच हाथ में ले कर आराम से खा रही थीं।
  "ओह", वह झुंझला उठी। कहाँ तो वह कल्पना कर रही थी की मार्गरेट धीमे से खाने की मेज की कुरसी खिसका कर आहिस्ता से उस पर बैठेंगी। उँगलियों की पोरों से नेपकिन उठा कर अपनी टांगों पर फैला कर बातों के बीच धीमेधीमे सूप सिप करेंगी। बाद में नजाकत से छुरीकांटे से सेंडविच खाएंगी। खैर, इतना न सही, कम से कम पुडिंग की ही तारीफ़ कर दें।
  जब उस से रहा नहीं गया तब वह पूछ बैठी, "क्या आप को खाना पसंद नहीं आया?"
  "ऐसी बात नहीं है, सब चीजें बहुत स्वादिष्ट हैं। ख़ास तौर से यह पुडिंग, लेकिन हमें तो उम्मीद थी की आप के यहाँ आज तो पूरी, बटाटा वाली कचौरी व खीर खाने को मिलेगी। मुझ को तो वही पसंद आता है। घर में भी मैं रोटी बनाती हूँ। ब्रेड से अधिक पौष्टिक होती है।"
  उसे लगा उस के चेहरे का मेकप एकदम से किसी ने पोंछ दिया हो। वह तो तीन दिन से परेशान होती रही की कौनकौन सा यूरोपीय भोजन बनाए और मेम साहब हैं की अभी भी पूरी कचौरी के ज़माने में रह रही हैं।
  "एक दिन हम आप के घर पूरी कचौरी खाने फिर आएँगे। और हाँ, कल आप सुबह हमारे साथ नाश्ता करने आइये आप लोगों को हलुआ और पिजा बना कर खिलाऊँगी।" फिर वह शालीनता से नमस्ते कर के चल दीं।
  हलुआ और पिजा ! क्या अद्भुद संगम है, हिन्दुस्तानी और यूरोपीय खाने का। वह विस्मित थी। वह क्यों बावली बनी, पश्चिम सभ्यता के पीछे भागती जा रही है? क्यों नहीं उस ने समन्वय ढूँढने की कोशिश की? मार्गरेट का यह संतुलन सचमुच मोहक है।
  वह खिसियाई हुई बाहर जाती हुई मार्गरेट को देख रही थी। उस का मन हुआ की जोरजोर से चीख कर वह तीन दिन से रटे हुए अंगरेजी वाक्यों में कुछ हिन्दी वाक्य मिला कर उन्हें अंगरेजी में जोर से सुना दे।

                                                                                                                                                                             - नीलम कुलश्रेष्ठ

जब मैंने अपने जालिम पति को खुश करना चाहा

जब मैं ने डा.अनिता श्रीवास्तव का "पति को खुश करने के अचूक नुस्खे" लेख पढ़ा तो मन खुशी से झूम उठा। मेरे दिल के मुरझाए फूल खिल उठे। मेरे पतझड़ जैसे जीवन में लगने लगा की वसंत ऋतु का आगमन शुरू होने लगा है। विश्वास कीजिये, तब से रक्त संचार की गति सामान्य गति से तीव्र हो गई।
   मैं भी उस दिन को कोस रही हूँ की पहली रात मैं ने बिल्ला क्यों नहीं मारा। क्यों मैं लाज की मारी छुईमुई कली बनी बैठी रही? काश, मैं बिल्ला मार पाती। खैर, जो हुआ सो हुआ, अब क्या होना है, उस पर विचार किया जाए। मैं ने ठान ली की जैसे भी हो, अब तो हर सम्भव तरीके से अपने पति को खुश रखना है, बस फिर क्या था? सोच लिया की इन अचूक फार्मूलों से मेरे पति बच नहीं पाएंगे, और मैं? मेरा सर कढाही में और पाचों उंगलिया घी में होंगी।
   सोचा, शुभ कार्य में देरी नहीं करनी चाहिए। क्यों न आज से ही यह कार्य शुरू किया जाए? बस फिर क्या था, सोचने की देर थी की बदन में अजीब तरह की स्फूर्ति आ गयी। पैरों में हलचल मच गई। यानी आज तो घर की सफाई सुव्यवस्थित और जाले, वगैरहवगैरह सब साफ़ हो गए। हम भी हैरान हो गए की जो काम पांच बरस में नहीं हो पाया, वह केवल पांच मिनटों में कैसे निबट गया। खैर, यह सब करने के बाद पुरानी पत्रिकाएँ निकालीं, सौन्दर्य नुसखे ढूंढें और पढ़पढ़ कर वही दिया, जो लिखा था-यानी लिपाईपुताई, रगड़ाई, रंगाई सारे काम एक साथ। अब हाथ छिले चाहे पाँव, चाहे खून ही निकल आए। भई, जब कार्य पहली बार शुरू किया तो वह ठीक ढंग से होना चाहिए।
   रूप तो अब काफी निखर चुका था। थोड़ा सा मेकप भी किया। आज वही साडी पहन ले जो इन्हें कभी प्रिय होती थी और मुझे अप्रिय। मगर इन्हें खुश जो करना था। बालों में नई शैली की केशसज्जा कर डाली। शीशे के आगे खडी थी। यकीन नहीं आ रहा था की मैं सचमुच सुन्दर लग रही हूँ। अब तो इंतज़ार था उन के आने का। कम्बखत सूरज को भी आज ही देर से ढलना था और मुई सुई थी की छः पर ही नहीं आ रही थी। आखिर अंदरबाहर आतेजाते सुई हम पर मेहरबान हुई। और ठीक छः बजे मेरा दिल भी बुरी तरह धड़क रहा था। सोचा, आज तो जालिम पति बड़े प्यार से आँखों में आखें डाल कर कहेंगे, "प्रिय, बड़ा गजब ढा रही हो, क्या इरादा है?" और मैं शरमा कर कह दूंगी, वही सब जो कहते होंगे। तभी हमारे खटारे से स्कूटर की आवाज सुनाई पडी, पर मुझे अन्य दिनों की तरह फटे बांस के सुर जैसी नहीं लग रही थी, बल्कि यों लग रहा था जैसी मीठी ध्वनी कानों पर पड़ रही हो।
   जनाब ने अन्दर प्रवेश किया और मुझे देखते ही अवाक रह गए। कहने लगे, "माफ़ करना, मैं गलती से इस घर में घुस आया, श्रीमतीजी," जाने लगे तो मैं ने कहा, "अजी, मुझे और अपने घर को नहीं पहचाना? मैं हूँ तुम्हारी..."
   उन्होंने खूंखार नजरों से देखा और अन्दर चले गए। मैं कुछ सोचती की उन की भयंकर...नहीं...नहीं बड़ी प्यार भरी आवाज सुनाई पडी। दासी तो एकदम तैयार थी हुजूर के लिए। मेरे रोबीले पति ने कड़क कर कहा, "यह तुम्हें क्या सूझी थी श्रृंगार करने की? इतने सालों तक क्या सोई थीं? जाओ और खिचडी बना दो, पेट गड़बड़ हो रहा है।"
   लो, बस पेट को भी आज ही ख़राब होना था, जब की उन की पसंद की तरकारी मैं ने कितने प्यार और मेहनत से बनाई थी। अब क्या करूंगी उस का? बर्तन वाली माई भी नहीं ले जाएगी। मैं ने फिर मन को ढाढस बंधाया। कोई बात नहीं, अब तो रोज वही तरकारी ही बनेगी। मैं तो अचार से भी खा लूंगी। आखिर उन्हें खुश जो करना है।
   मैं तो फार्मूले पर फार्मूले पढ़े जा रही थी, मगर जादुई असर नहीं हो रहा था।
   मैं भी हिम्मत हारने वालों में से नहीं हूँ। एक दिन उन के यही दोस्त आ धमके जिन की शक्लों से मुझे बड़ी चिढ थी। यह मुझे टेढ़ी आँख भी न भाते थे। दोस्त क्या वे, आफत थे। उन्हें देख कर मैं नाक भौं सिकोड़ती की मुझे याद आया की पति को खुश रखना है। शायद यही नुसखा कामयाब हो जाए। उन को एक मीठी मुस्कान के साथ अन्दर लाई, चाय पिलाई, पकौड़े खिलाए, फिर हाथ के बने गुलाब जामुन। रात को भी बगैर खाए नहीं जाने दिया। मित्र हैरान परेशान, डरेडरे, बारबार यही दोहरा रहे थे, "भाभीजी, तबीयत तो ठीक है न?" मैं कहती जा रही थी, "अरे, तबीयत को क्या हुआ, आप के सामने हूँ।"
   मैं तो अपना कार्य पूरे लगन से करती जा रही थी। आज 100 प्रतिशत तो नहीं 50 प्रतिशत यकीन था की मेरे पति वाहवाह कर उठेंगे, कहेंगे, पत्नी हो तो ऐसी, जो मेरे आने वालों का इतना ख़याल रखती है।
    सोचसोच कर फूली नहीं समा रही थी की दोस्तों के जाते ही वह गरजे, "ये क्या हो गया है तुम्हें? क्या जरूरत थी इतना महँगा नाश्ता कराने की? बड़ी हंसहंस कर बतिया रही थें, ठीक है दुआसलाम हुई, यह क्या की उन्हीं पर चिपक गई।"
   लीजिए, सुना आप ने? मेरे किए कराए पर पानी फिर गया। छि:, बेकार हाथ भी दुखाए गुलाबजामुन बनाने में। कितने कठोर हैं यह। गुस्सा भी आ रहा था, मगर सोचा, अभी कुछ फार्मूले बाकी हैं। मुझे ऐसे हालात देख कर लग रहा था मंजीर दूर छूटती जा रही है। फिर भी मंजिल पाने की लालसा ने मुझे प्रोत्साहित किया। मैं फिर बड़ी।
   यानी वक्त आ गया "हाँ" में "हाँ" करने का। तू कहे दिन में तारे हैं तो बिलकुल सही, तो कहे रात में सूरज उग आया है तो भी सही। पर हफ्ते गुजर गए, उन्होंने ऐसा वैसा नहीं कहा। शायद आप के पति ने जरूर कहा होगा, आप के पति शायद इतने जालिम नहीं है, पर यहाँ तो नैया डूब रही थी।
   न जाने क्यों, न परिस्थति साथ दे रही थी, न फार्मूले, न ये जालिम पति। कैसे और किस काम से पति खुश होंगे, सोचसोच कर दिमाग की नसें तन गई थीं।
   खैर, अगला फार्मूला एक नजर में पढ़ा और पति के दफ्तर से आते ही उन की बाहों में बाहें डालते उन की आँखों का जाम पीने जा रही थी की उन्होंने हाथ छुडा कर झल्लाते हुए कहा, "आजकल तुम्हारा दिमाग घूम गया है। न जाने कैसी कैसी हरकतें करती हो? आज जा कर अपना दिमाग एक्सरे करा आओ।" आप अच्छी तरह मेरी स्थति समझ सकते हैं। मुझे गश आ गया और सचमुच डाक्टर आ गया, पर  मुझे कुछ हुआ होता तब न। इलाज किस चीज का होता?
   मैं ने टूटे दिल से थके लफ्जों में खुद से कहा, 'आखिरी बार कोशिश कर लो, शायद सफलता आप के कदम चूमे! उन का यानी उन्हीं का जन्म दिन आ गया और मैं झटपट एक कमीज और पैंट का कपड़ा खरीद लाई। शाम को उन के आते ही शुभकामनाओं सहित उन्हें भेंट दी। वह तपाक से बोले, "खर्च करना कोई तुम से सीखे।" भेंट खोली गई। मैं ने सोचा, अब तो जरूर खुश होंगे। पर सुनने को मिला, "यह क्या चटक रंग उठा लाई? क्या मैं यह पहनूंगा? दे देना अपने भाई को, उस पर अच्छा लगेगा।"
   बस, मेरा टूटा दिल जोर से गा उठा, "दिल के टुकडे टुकडे कर के जनाब चल दिए।"
   सभी प्रयत्न कर चुकी हूँ। एक वह हैं, एकदम उसी पटरी पर चल रहे हैं, जहाँ चलते थे।
   अगर कोई और फार्मूला आप के पास हो तो जरूर खबर करें, जिस से मेरे टेढ़े पति सीधे हो जाएं। मेरा सर कढाई और पाँचों उंगलिया घी में हों।
    

18 मार्च 2012

बदलते माहौल से मिलते नए विचार

हार्पिक, जो एक टांयलेट क्लीनर है, को प्राइमरी पैकेजिंग के हिसाब से श्रेष्ट माना जाता है। इसके बनावट कुछ इस तरह की है की व्यक्ति इसकी बाँटल सीधी पकड़कर क्लीनीनिंग लिक्विड को ऊपर की और उड़ेल सकता है, लेकिन दुनिया में हार्पिक जैसी कुछ ही डिजाइन हैं। कारपोरेट जगत में अमूमन यह मानना जाता है की जैसे-जैसे कंपनी का आकार बड़ा होता जाता है, वह डिजाइन के बारे में सोचना उतना ही कम कर देती है और यही कारण है की बड़ी कम्पनियां डिजाइन के मामले में ज्यादा प्रयोगधर्मी नहीं होतीं।
  स्ट्रेटेजिक मैनेजमेंट के प्रोफ़ेसर और 'द डिजाइन आँफ बिजनेस' किताब के लेखक रोजर मार्टिन का कहना है की आगे चलकर वैश्विक प्रतिस्पर्धा में वही बढ़त की स्थिति में होगा, जो डिजाइन के बारे में ज्यादा सोचेगा। बकौल मार्टिन, 'कारोबार में सबूत का मतलब होता है अतीत के विश्लेक्षण से जुटाए गए सटीक आंकड़े। किसी नए विचार के लिए कोइ पिचले आंकड़े नहीं होते। प्रतीकात्मक तौर पर नए विचार हमारे आस-पास के माहौल में हो रहे बदलाव के संकेतों के जरिये आते हैं, जिनकी मात्रा निर्धारित नहीं की जा सकती।'
  कैलीफिर्निया में मैक्डोनल्ड ब्रदर्स ने जब पहले-पहल ड्राइव-इन रेस्टोरेंट शुरू करने के बारे में सोचा, तो वे इस बार को लेकर उलझन में थे की युद्ध के बाद, बेबी बूम कल्चर के दौर में अमेरिकी उनके उत्पाद लेना पसंद करेंगे या नहीं। उन्हें इसके बारे में कुछ भी पता नहीं था। कुछ बुनियादी जांच-परख की तकनीकों को अपनाने के बाद उन्हें लगा की ड्राइव-इन रेस्टोरेंट के बजाय ऐसा रेस्टोरेंट खोलना सही रहेगा,जो ग्राहकों को त्वरित सेवा दे, जिसके मेन्यु में सीमित आइटम हों और एक सर्विस विंडो हो।मैनेजमेंट में इसे सीखने की 'स्वतः शोध तकनीक' कहा जाता है। इसका मतलब है की किसी के सम्बन्ध में खुद ही सीखना या सीखने की ऐसी तकनीक अपनाना जो प्रशिक्षुओं  को अपने बलबूते समाधान तलाशने के लिए प्रेरित करे। मैक्डोनल्ड ब्रदर्स ने अमेरिकियों से सीखा की वे क्या खाना चाहते हैं, इसे किस तरह से पाना चाहते हैं और किस मात्रा या साइज में खाना चाहते हैं। बाद में मैक्डोनल्ड ने बर्गर का एक स्टैण्डर्ड साइज तय कर दिया। इस तरह एक डिजाइन तैयार हो गयी। उन्होंने बेकार के ताम-झाम को हटा दिया और फास्ट-फ़ूड रेस्टोरेंट के हर भाग का मानकीकरण कर दिया। यही कारण है कि आज मैक्डोनल्ड कैलीफोर्निया के कुछ रेस्टोरेंट्स से बढ़कर दुनिया की सबसे बड़ी फास्ट फ़ूड चेन में तब्दील हो गया।