बांके बिहारी मंदिर में श्रद्धालुओं को प्रवचन सुनाते हुए पण्डित गोविंदराम ने कहा कि आकार का आधार तो निराकार ही है पर निराकार की अनुभूति के लिए आकार का आधार अपेक्षित है। लेकिन निराकार की अनुभूति उन्हें नहीं हो सकती जिन्हें देह का अभिमान होता है। इसका तात्पर्य है कि आकार ही अस्तित्व का बोध कराता है और अहम यानी मैं का परिचायक होने के कारण निराकार ब्रह्मा की उपासना में बाधक भी बनता है। इसलिए परम योगियों के लिए भी असाध्य निराकार साधना को सामान्य गृहस्थ जप तप के आधार पर अपनाता है तो उसे वह सुखानुभूति नहीं होती जो सगुण साकार के उपासक को साधना काल में प्राप्त होती है। निराकार में रमना या शून्य में स्थिर होने की साधना करना श्रेय तो है पर प्रेय नहीं। मैं का विसर्जन सगुण साकार में सुगम होता है। इसमें चंचल मन को विश्राम पाने के अनेक आलम्ब प्राप्त होते हैं।
पण्डित जी ने कहा कि निर्गुण निराकार में रमने के लिए कबीर को भी राम के नाम का आश्रय लेना पडा था। आश्रय अंतस चेतना की अरूप आस्था का कल्पित या मान्य भाव ही है। इसे परमतत्व, परब्रह्मा या कोई भी नाम दिया जा सकता है। अनाम को नाम देना नामधारी जीव की विवशता है। निराकार भी आकार हीन के लिए नाम हीन संबोधन ही है। उन्होंने कहा कि साधना का अर्थ ही है अपनेपन को कहीं विसर्जित कर देना, कोलाहल के सागर में शांति की तरंगों में खो जाना, सांसारिक साधनों को नकार देने का उपक्रम। साधना की जाती है आकार की अभीप्साओं को निराकार कर देने के लिए। धार्मिकता की स्थूलता के स्थान पर ध्यान साधना पद्घति का प्रचार विश्वव्यापी हो रहा है। अन्य साधना पथ का संबंध धार्मिक अधिक है पर ध्यान पथ में सभी का समावेश है। यहां न भाषा आडे आती है और न शास्त्र। यह मौन के अनुनाद का मार्ग है। यहां अवलोकन ही कर्मकाण्ड कहलाता है। यह मौन से मौन का संवाद है। यह आकार के विसर्जन और निराकार के सर्जन का संधिस्थल है।
उन्होंने कहा कि यहां सगुण भी तपते हैं और निर्गुण भी पनपते हैं। यह धार्मिकता विहीन आध्यात्मिकता का पथ है। योगी इसमें जीतता है और वियोगी इसमें रमण करता है। लेकिन जो न जप करता है और न कर्मकाण्ड पर अनन्य भाव से अपने आराध्य का चिंतन करता है,वह आकार से निराकार, सगुण से निर्गुण के भेद-विभेदों को अपने में आत्मसात् कर ध्यान की उस विराटता का आचरण करता है जो जीवन मुक्ति का सहचर होता है। ऐसा व्यक्ति कर्म के फलों के प्रति उदासीन तो होता है पर कर्म को सहज भाव से करता हुआ उस भक्त का आचरण करता है जिसके सामने ज्ञान की पारदर्शी दीवार अस्तित्व हीन होती है। प्रारब्ध का भोग वह ऐसे ही भोगता है जिस तरह समुद्र अपनी जल राशि पर उठने वाली तरंगों का आघात भोगता है। आज के आपाधापी जीवन में ईष्र्या-द्वेष से रहित जीवन यापन अनन्य चिंतन के साधना पथ का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
21 फ़रवरी 2012
अहंकार ईश्वर की उपासना में बाधक: गोविंदराम
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Posted by Udit bhargava at 2/21/2012 12:29:00 pm 0 comments
दूसरों के लिए जीते हैं धर्मात्मा: कर्णसिंह
गांव सौलधा के सत्संग भवन में उपस्थित श्रद्धालुओं के बीच प्रवचन सुनाते हुए पंडित कर्णसिंह ने कहा कि धर्म की व्याख्या करते करते लोग थक जाते हैं, और समय समाप्त हो जाता है। ज्ञानी जन धर्म की परिभाषा में कुछ इस तरह उलझ जाते हैं कि संपूर्ण जीवन उसके रहस्य को समझने में व्यतीत हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति धर्मात्मा बनने की दिशा में नहीं चल पाता, क्योंकि अधिकांश लोग यही समझते हैं कि धर्म मार्ग उनके लिए बना ही नहीं है।
पंडित जी ने कहा कि मानवमात्र को यह मानना उपयोगी होगा कि धर्म केवल आचरण का विषय है, आख्यान-व्याख्यान का नहीं। सभी का लक्ष्य एक ही है मानव मात्र का कल्याण और विश्व शांति। धर्ममार्ग सदैव आनंद और शांति की ओर जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि सबका मालिक एक है, क्योंकि आनंद और शांति की अनुभूति समान होती है। धर्मात्मा कोई साधारण मानव ही होता है, जो अपने से अधिक अन्य को महत्व देता है। कहा गया है कि अपने लिए जीना कोई जीना नहीं। धर्मात्मा सदैव दूसरों के लिए जीता है और मरता भी है। वह निष्क्रिय धर्म विवेचक नहीं होता। उसका चरित्र पवित्र एवं उ“वल होता है, क्योंकि उसकी दृष्टि में दूसरों का हित सर्वोपरि है। इसके लिए जंगल में धूनी रमाने से लेकर समाधिस्थ होने तक की यात्रा का संबंध पारंपरिक नहीं। धर्मात्मा तो गृहस्थ जीवन में भी रहकर लोक हितकारी प्रेरणा प्राप्त करता है। वह संसार के प्राणियों का हित न केवल चाहता है, वरन् उसके लिए हर पल तत्पर भी रहता है। उसके मन में मानव के प्रति द्वेष, घृणा की प्रवृति जन्म ही नहीं लेती। उसका हृदय जन-जन का प्रवेश द्वार होता है। हर व्यक्ति के लिए उसके हृदय में समान व सम्मानजनक स्थान होता है। ऐसा धर्मात्मा ही मानव का वास्तविक प्रतिनिधि माना जाता है। मानव के लिए मानव का सिद्धान्त निरापद है, लेकिन उसका संवाहक धर्मात्मा ही समाज में सत्य धर्म का निरूपण कर पाता है। यह कठिन तपस्या के समान है कि लोग धर्मात्मा के चरित्र का अनुशीलन कर सकें, लेकिन यह अत्यंत सरल साधना है कि स्वयं सच्चा मानव बनने का प्रयास किया जाए। उन्होंने कहा कि प्राणी मात्र कभी घृणा का पात्र नहीं हो सकता। यद्यपि अनेक अवसरों पर विशेष सावधानीवश किसी प्राणी से कठोर व्यवहार की आवश्यकता अनिवार्य प्रतीत होती है, फिर भी उसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि घृणा का बीजारोपण हो। मानव को सदैव मानव ही समझा जाए और इस तरह मानव के हित की परंपरा को आरंभ किया जाए। व्यवहारिक धरातल पर यह बात अटपटी सी लगने लगती है, परंतु धैर्य और विवेक के साथ इसी धर्म मार्ग का पालन करना होगा। धर्मात्मा का यही संदेश है।
जीवन में चार बातें होती हैं महत्वपूर्ण: गोविंदराम
बांके बिहारी मंदिर में प्रवचन सुनाते हुए पंडित गोविंद राम ने कहा कि इंसान को मंदिर में, श्मशान में,रोगी के पास और महात्मा के पास सांसारिक बातें नहीं करनी चाहिए। ऐसे ही जीवन के लिए चार महावाक्य होते हैं, इनमें मेरा कुछ नहीं हैं,मुझे कुछ नहीं चाहिए, सब प्रभु का है केवल प्रभु मेरे अपने हैं।
पंडित जी ने कहा कि शरीर के लिए परिवार को, परिवार के लिए समाज को और समाज के लिए राष्ट्र को कभी नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए। ममता रहित होकर ही शरीर की सेवा करने में शरीर का हित और अपना कल्याण भी निहित है। यूं तो जीवन अनमोल है, लेकिन मृत्यु का डर वास्तव में उन्हीं को होता है जो वर्तमान का गलत प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार असल प्रेमी अपने प्रेमास्पदसे किसी प्रकार का सुख नहीं चाहता, वह तो सदा अपने प्रियतम के सुख में ही सुखी रहता है। अर्थात प्रभु को रस देने में ही मानव को रस मिलता है। यदि परमात्मा के साथ प्रेम किया है तो उनसे पे्रम के अलावा और कुछ मत चाहो। प्रभु तो सदा ही भक्त के प्रेम के भूखे होते हैं और सदा प्यार के बदले प्यार देने को तत्पर रहते हैं फिर अडचन क्या हैं? क्या वास्तव में हम उनसे उनका प्यार चाहते हैं या कुछ और? सच तो यह है कि हम उनकी याद भी इसलिए करते हैं कि वह हमारी इच्छाओं को पूरी करते रहें। हम संसार से काम लेना चाहते हैं पर स्वयं संसार के काम आने से खुद को बचाते हैं। हम भगवान को अपना बनाना चाहते हैं पर स्वयं उनका होने से डरते हैं। इन्हीं कारणों से जीवन में अनेक उलझनें उत्पन्न हो जाती है। उन्होंने कहा कि शिक्षा जीवन में सौंदर्य प्रदान करती है। शिक्षित व्यक्ति की मांग सदैव ही समाज को रहती है। शिक्षा एक प्रकार की सामर्थ्य है, पर शिक्षा के साथ दीक्षा अत्यंत आवश्यक है। अशिक्षित व्यक्ति से समाज को उतनी क्षति नहीं होती, जितनी दीक्षा रहित शिक्षित से होती है। एक दीक्षित व्यक्ति ही शिक्षा का सदुपयोग कर सकता है। प्रभु के मंगलमय विधान से हमें सेवा का सामर्थ्य और भावना हमारे पास है यदि आगे नहीं बढे तो मिला हुआ अवसर हाथ से निकल जाएगा और हम पीछे ढकेल दिए जाएंगे।उन्होंने कहा कि जीवन में जैसी भी परिस्थिति हो मानव यदि उसी के अनुसार आगे बढे तो उसे रास्ता अवश्य मिल जाएगा। बस शर्त यहीं है आग बढें। संयोग निश्चित नहीं है, विनाश निश्चित है। मनुष्य मिले हुए के सदुपयोग या दुरुपयोग करने में स्वतंत्र है, परंतु उसका फल भोगने में परतंत्र है।
तीन प्रकार के ऋणों से मुक्त होना जरूरी
बांके बिहारी मंदिर में श्रद्धालुओं को प्रवचन सुनाते हुए पण्डित गोविन्दरामने कहा कि शास्त्रों के अनुसार मनुष्य के लिए तीन प्रकार के ऋणों से मुक्त होना आवश्यक बताया गया है। ये हैं देव ऋण, ऋषि ऋण व पितर ऋण।
पितर ऋण अर्थात उनका ऋण जिन्होंने हमारा लालन-पालन किया व जो हमारे जन्म दाता हैं। अपने पितरोंका श्राद्ध करने के लिए मानव में श्रद्धा होनी चाहिए, आडम्बर नहीं। पण्डित जी ने कहा कि जिन माता-पिता ने हमारी आयु, अरोग्य व सुखोंके लिए कामना की और हर संभव प्रयास किए, उनके ऋण से मुक्त हुए बिना हमारा जीवन व्यर्थ है। उनका ऋण उतारने के लिए मनुष्य जीवन भर अपने माता पिता की सेवा-सुश्रूषा करता रहता है और इसी के तहत मरणोपरांत श्राद्ध कर्म द्वारा पितृ ऋण से मुक्त होने का प्रयास करता है। जब मनुष्य अपनी अंजलि में जल लेकर अपने पूर्वजों का स्मरण करते हुए श्रद्धा भाव से उन्हें जलांजलि अर्पित करता है तो इस कृत्य में उसका समर्पण एवं कृतज्ञता का भाव प्रकट होता है।
जल इसलिए क्योंकि उसे जीवन के लिए आवश्यक और सब जगह सुलभ माना गया है। उन्होंने कहा कि हिन्दु संस्कृति में यह मुख्य विशेषता है कि इसमें तुच्छ व उपेक्षित समझे जाने वाले प्राणियों को भी विशेष महत्व दिया जाता है। अन्य पक्षिओं की उपेक्षा कौवे को तुच्छ समझा जाता है। किन्तु श्राद्ध के समय सबसे पहले उसी को भोग दिया जाता है। हिन्दु धर्म में कौवे और पीपल को पितरोंका प्रतिक माना जाता है। पितृ पक्ष के इन दिनों में कौवे को ग्रास व पीपल को जल देकर पितरोंको तृप्त किया जाता है। श्राद्ध करना जीवन देने वाले व्यक्ति के प्रति श्रद्धा का भाव प्रदर्शित करना है।
शास्त्रों में माना गया है कि हर मरने वाले को शांति नहीं मिलती और न ही तुरंत मोक्ष प्राप्त होता है। पितृ पक्ष में पितरोंकी मोक्ष कामना करना ही श्राद्ध होता है। यह एक सामाजिक धारणा है कि यदि हम अपने पितरोंका श्राद्ध करेंगे तो हमारी आत्मा की शांति के लिए हमारी अगली पीढी भी हमारा श्राद्ध करेगी। साथ ही उन्होंने कहा कि भगवान के अवतारोंका न तो निर्वाण दिवस करते हैं और न ही जीव जंतुओं का श्राद्ध तर्पण किया जाता है।
उन्होंने कहा कि दिवंगतोंकी शांति के लिए किया जाने वाला उपक्रम ही श्राद्ध है। हिन्दु धर्म में इसको श्राद्ध कहा जाता है। इसलाम को मानने वाले मगफिरतकी दुआ करके फतिहापढकर किसी न किसी रूप से अपने पितरोंको याद करते हैं। गरुड परम्परा के अनुसार तो जीवित व्यक्ति भी अपना श्राद्ध कर सकता है। बस शर्त यह है कि उसके बाद कोई उसका वंश चलाने वाला न हो।
वेद ही है परमात्मा की पवित्र वाणी
सौलधाके सत्संग भवन में श्रद्धालुओं को प्रवचन सुनाते हुए पंडित करण सिंह ने कहा कि वेद ही परमात्मा की पवित्र वाणी है जिसमें परमात्मा ने मनुष्य को सृष्टि में रहकर उत्तम तरीके से जीवन जीने के तरीका बताया है। आज मनुष्य वेद की शिक्षाओं को भुलाकर पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण कर रहा है जिसके कारण अधिकतर मनुष्य दुखी हैं।
पंडित जी ने कहा कि वेद में मनुष्य को जीवन के हर क्षेत्र में उन्नति के शिखर पर पहुंचने का मार्ग बताया गया है। वेद में वैज्ञानिक आधार पर जीवन जीने का आध्यात्मिक विकास का मार्ग बताया गया है। इस मार्ग पर चलकर मनुष्य अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। वेद में भौतिक और आध्यात्मिक दोनों रास्तों को मिलाकर अपनाने की शिक्षा दी गई है।
केवल एक मार्ग पर चलकर मनुष्य अपने जीवन को उन्नति के शिखर पर नहीं पहुंचा सकता है। केवल एक मार्ग पर चलने वाले लोग गहरे अंधकार में डूब जाते हैं जिसके कारण अपने वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त करने के बजाय अंधेरे रास्तों में भटक कर जीवन को बर्बाद करते रहते हैं। उन्होंने कहा कि केवल भौतिक मार्ग को अपनाने वाले लोग भौतिक सुख सुविधाओं को एकत्र करने में लगे रहते हैं। वे इन सुख सुविधाओं के माध्यम से शरीर को सुसज्जित करने में तो लगे रहते हैं किन्तु आत्मा के विकास की ओर कोई ध्यान नहीं दे पाते हैं। जिसके कारण वे अपने चरम लक्ष्य की प्राप्ति की ओर एक कदम भी नहीं चल पाते हैं और परमात्मा द्वारा दिए गए इस अनुपम मानव जीवन को बर्बाद कर देते हैं।
दूसरी ओर केवल आध्यात्मिक मार्ग को अपनाने वाले लोग भी भौतिक साधनों का सहारा लिए बिना अपनी जीवन नौका को पार नहीं लगा सकते हैं। शरीर की रक्षा के लिए भौतिक साधनों का सहारा लेना आवश्यक हे। मनुष्य जीवन सुरक्षित रहने पर ही वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ सकता है। उन्होंने कहा कि आज हम वेद की शिक्षाओं को भूलकर पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करने में लगे हैं। यह संस्कृति मनुष्य को केवल भौतिक मार्ग चलने के लिए प्रेरित करती हैं। यह मार्ग देखने में तो बहुत आकर्षक लगता है किन्तु अंत में यह दुख में गहरे सागर में ले जाकर जीवन को कष्ट भोगने के लिए मजबूर करता है। हमें वेद की शिक्षाओं का पालन करते हुए भौतिक और आध्यात्मिक मार्ग दोनों का समन्वय करके चलना चाहिए। दोनों मार्गो के समन्वय से ही मानव उन्नति के शिखर पर पहुंच सकता है।
विश्व में अशांति का कारण है द्वेष: गोपालदास
बाला जी मंदिर में प्रवचन सुनाते हुए महंत गोपालदास ने कहा कि आज परिवार व समाज तथा विश्व में अशांति का कारण द्वेष, क्रोध तथा कामना है।
महंत जी ने कहा कि कामना से वैराग्य और संतोष दोनों का ही नाश होता है। जिस प्रकार मोर के पंख हमेशा हिलते रहते हैं। उसी प्रकार कामना ग्रस्त मनुष्य का मन भी सदा हिलता रहता है। द्वेष, क्रोध तथा कामना ही मनुष्य के समस्त दुखों का कारण हैं। पंडित जी ने कहा कि पशु दिन भर जंगल में जाकर आहार करते हैं और रात के समय आकर खूंटे से बांध दिए जाते हैं। उसी प्रकार अज्ञानी मनुष्य दिन को घर छोडकर व्यवहार के अर्थात सांसारिक क्रियाओं के फेर में फिरता रहता हैं और रात के समय घर में आ जाता हैं। इस प्रकार वह अपना सारा जीवन व्यर्थ कर देता हैं।
भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि हे अर्जुन जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को भली भांति त्याग देता है उस काल से आत्मा से ही आत्मा में संतुष्ट हुआ स्थिर बुद्धि वाला कहा जाता है। प्रत्येक व्यक्ति में चेतन शक्ति है और वही चेतन शक्ति यदि लोभ में चली जाए तो यह मनुष्य निर्मल होते हुए भी लोभी विकारी हो जाता है तथा सदाचारी से दुराचारी हो जाता है। गीता हमारे जीवन में एक दर्पण है। आज परिवार व समाज तथा विश्व में अशांति का कारण द्वेष, क्रोध तथा कामना है।
उन्होंने कहा कि मनुष्य के जीवन में सुख-दुख दोनों आयेंगे तथा जो दुख आने पर बौखला न जाए वही गीता के अनुसार स्थित प्रज्ञ है तथा उसी को स्थायी सुख की प्राप्ति हो सकती है।
भलाई को अपनाने पर स्वत:ही मनुष्य का कल्याण संभव है। इसीलिए विद्वानों ने कहा है कि बुराई त्याग दो भलाई अपने आप आ जाएगी। भलाई के दरवाजे पर अगर बुराई दस्तक देती है तो भलाई को अपमानित होना पडता है। लेकिन अगर बुराई के दरवाजे पर भलाई दस्तक दे तो वह बुराई को अपनी ओट में छुपा लेती हैं। सच कहा जाए तो इंसान मरने के बाद भी भलाई और बुराई के अलावा दुनिया से कुछ नहीं लेकर जाता है। समाज में इंसान का व्यवहार जैसा होता है मरने के बाद उसको वैसा ही कहा जाता है।
मनुष्य को हजारों चिंतायें होती हैं ।
सौजन्य से - राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ
Labels: ज्ञान- धारा, नव भारत चेतना
Posted by Udit bhargava at 2/21/2012 08:11:00 am 0 comments
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