17 जनवरी 2012

कैरियर प्लानिंग - सफलता का मूल मंत्र

मस्तिष्क में एक लक्ष्य रखना, गंतव्य का निर्धारण करना, उस तक जाने वाले मार्ग को पहचानना और फिर अपनी पूरी शक्ति व परिश्रम इस पर केन्द्रित कर लक्ष्य को प्राप्त करना।

विद्यार्थी अगर इस व्यक्तव्य को अपने जीवन में उत्तर लें तो ऐसा कोई लक्ष्य नहीं जिसे वह प्राप्त नहीं कर सके। अगर हम विद्यार्थी के कैरियर के चुनाव की बात कर रहे हैं तब इससे महत्वपूर्ण कोई मंत्र हो ही नहीं सकता। विद्यार्थी लक्ष्य से तारतम्य बना सके और उसके साथ ही उसे संतुष्टि का अहसास भी दे सके यह निश्चित किया जाना अत्यंत आवश्यक है।

विद्यार्थी अक्सर अपने माता-पिता की इच्छा के अनुसार अपने कैरियर का निर्धारण करते हैं। यदि उनकी अभिरूचि व क्षमता उस कैरियर के अनुरूप हो तो उनके कैरियर की नींव मजबूत हो जाती है, परन्तु यदि कैरियर में प्रवेश पाने का परिश्रम अगर उनकी रुचि व क्षमता पर आधारित नहीं है तो दीर्घावधि में इससे संतुष्टि व प्रसन्नता प्राप्त नहीं होती। यदि इन दोनों परिस्थिति की तुलना करें तो यह स्पष्ट है की विद्यार्थी की अभिरूचित व क्षमता के अनुरूप चुना गया कैरियर विद्यार्थी को न केवल संतुष्टि व प्रसन्नता देता है बल्कि जीवन में उन ऊंचाईयों तक पहुंचा देता है जहाँ वे औरों के लिए आदर्श बन जाते हैं।

अतः अपनी योग्यता के अनुरूप सही कैरियर का चुनाव करना चाहिए मात्र  इसलिए नहीं क्योंकि अन्य छात्र भी एक कैरियर विशेष का चुनाव कर रहे हैं या आजकल सभी कैरियर विशेष में रुचि ले रहे हैं।

कैरियर प्लानिंग कब करें? यह विचारणीय प्रश्न जरूर है लेकिन अनेक काउंसलर के मतानुसार विधार्थी जीवन में नौवीं कक्षा के बाद सचेत रहना अत्यंत आवश्यक है। यही समय है जब विद्यार्थी अपनी रुचि की तरफ सचेत होता है व अपनी अलग पहचान बनाने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में अपना प्रभाव व कौशल दिखाता है। ये क्षेत्र खेल, ड्रामा, भाषण प्रतियोगिता, लेखन आदि हो सकते हैं। अगर विद्यार्थी को इस स्तर पर सही दिशा व मार्गदर्शन मिले तो विद्यार्थी अपना लक्ष्य निर्धारित कर सकता है। यदि यह समय वो चूक गया है तो वह ग्रेजुएशन के बाद भी अपनी अभिरूचि व क्षमता के अनुरूप अच्छे काउंसलर की मदद से कैरियर का चुनाव कर सकता है।

कैरियर का चुनाव एक व्यापक प्रतिक्रया है जिसमें निम्न छः बातों का यदि ध्यान रखा जाए तो विद्यार्थी सहज होकर निर्णय ले सकता है:-
1.  स्वयं को पहचानना व अपने विकास की दिशा का निर्धारण कर उसके लिए तैयारी करना।
2.  दूसरा महत्वपूर्ण कदम है 'अन्वेषण'! अभ्यर्थी को अपनी रुचि के विभिन्न कार्य क्षेत्रों का बारीकी से अध्ययन करना चाहिए तत्पश्चात कुछ वांछित कैरियर विकल्पों को शार्ट लिष्ट कर उनकी गहराई में जाकर उन कैरियर विकल्पों में आवश्यक पात्रता (शैक्षणिक, व्यवहारिक व व्यवसायिक) के विषय की बारीकी से जानकारी प्राप्त करनी चाहिए।
3.  निर्धारक कदम है कैरियर के चयन का जो आपके द्वारा तय किए गए मापदंडों पर खरा उतरता हो।
4.  कैरियर लक्ष्य का निर्धारण करना और उसे प्राप्त करने के लिए विस्तृत कार्य योजना तैयार करना।
5.  निर्धारित किए गए कैरियर विशेष के लिए जिन योग्यताओं की आवश्यकता उन्हें प्राप्त करना।
6.  स्वयं की विशेषताओं से चुने गए कैरियर में इस दक्षता के साथ प्रस्तुत करना की नियोक्ता भी वाह! कह उठे। 
यहाँ कुछ विचार कैरियर के चुनाव को लेकर प्रस्तुत किये गए हैं जो सामान्य तौर पर सर्वमान्य है। अपने अनुभव व मनोवैज्ञानिक स्तर पर किए गए शोध के आधार पर अधिकतर काउंसलर का यह मत है की कैरियर के प्रति ज्यादा लापरवाही बरतना ठीक नहीं, विद्यार्थी में नौवीं कक्षा के बाद सचेत रहना अत्यंत आवश्यक है।

रुकना जिन्हें मंजूर नहीं

'रुक जाना नहीं तू कहीं हार के....', शायद इन्हीं पंक्तियों से प्रेरणा लेते हैं डॉ. यू.एन.बी.राव। आंध्र प्रदेश के एक पिछड़े गांव टेकली में जन्मे डॉ. राव एक मध्यमवर्गीय परिवार से हैं। उनकी प्राथमिक शिक्षा गांव के ही गवर्नमेंट स्कूल से हुई। शुरू से ही मेधावी रहे डॉ. राव हमेशा अपनी क्लास में सर्वाधिक अंक प्राप्त करते थे। ग्यारहवीं की परीक्षा में डॉ. राव ने स्कूल टॉप कर दिखा दिया था कि वह असाधारण प्रतिभा के धनी हैं। इंजीनियर बनने का सपना देखने वाले डॉ. राव ने जब इंजीनियरिंग में जाने का निर्णय लिया, तो उस वक्त वे सिर्फ चौदह वर्ष के थे। चूंकि इंजीनियरिंग के लिए न्यूनतम आयु 16 साल रखी गई थी, इसलिए उन्हें इंजीनियरिंग में एडमिशन नहीं मिला। दो साल का समय बरबाद न हो, इस कारण प्री-यूनिवर्सिटी एग्जाम दिया और जियोलॉजी को अपना सब्जेक्ट बनाया। जियोलॉजी पढ़ने में उन्हें काफी इंट्रेस्ट आने लगा। मिट्‌टी, पहाड़, नदियों आदि प्राकृतिक चीजों के बारे में जिज्ञासा उत्पन्न होने लगी और उन्होंने जियोलॉजी में ही कैरियर बनाने की ठान ली। 1963 में बीएससी (जियोलॉजी) भी प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की और फिर आंध्र यूनिवर्सिटी से एमएससी (टेक) में एडमिशन लिया। वहां भी सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया और फिर लेक्चरर के रूप में अध्यापन से जुड़ गए। वे ढाई साल तक शिक्षण कार्य से जुड़े रहे। इसके बाद वर्ष 1966 में जियोलॉजिस्ट के रूप में जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया जॉइन किया। उनके शिक्षक ने उन्हें एमएससी के बाद आईएएस परीक्षा देने की सलाह दी, पर उस वक्त उन्होंने जियोलॉजी को ही अपना कैरियर बनाना उचित समझा।

आईएएस में चयन के बारे में वे बताते हैं कि इस एग्जाम को देने के पीछे एक रोचक घटना है, जो मेरी शादी से जुड़ी हुई है। मात्र 21 साल की आयु में श्री राव की शादी हुई। उस वक्त किसी रिश्तेदार ने उनके ससुराल वालों से कहा कि लड़का एक दिन कलेक्टर बनेगा। बस, फिर क्या था, जब भी कोई उनके ससुराल से आता, तो यही पूछता कि कब आईएएस बन रहे हो। वे उस वक्त हैदराबाद में थे। वहां भी आईएएस कल्चर था, जिससे प्रभावित होकर उन्होंने आईएएस परीक्षा देने का मन बनाया। डॉ. राव स्वीकार करते हैं कि हमेशा ही एकैडेमिक परफॉर्मेंस बेहतरीन रहने के कारण उन्हें थोड़ा ओवर कॉन्फिडेंस हो गया था। इसी ओवर कॉन्फिडेंस में उन्होंने बिना कोई एक्स्ट्रा प्रिपरेशन किए आईएएस एग्जाम दे दिया और सेलेक्शन भी हो गया। पर दुर्भाग्यवश उस वर्ष (1970 में) सिर्फ 42 लोगों को आईएएस के लिए चुना गया, जिसमें उनका नंबर 43वां था। उस दिन उन्हें अहसास हुआ कि ओवर कॉन्फिडेंस कितना गलत होता है। इसके बाद उन्होंने दिल्ली पुलिस जॉइन की और ट्रेनिंग के दौरान ही एक बड़ा केस सॉल्व करके अपनी काबिलियत सबके सामने साबित कर दी। ईमानदारी को अपना उसूल मानने वाले डॉ. राव कहते हैं कि पुलिस सेवा में यदि आपकी छवि अच्छी है, तो आप पर कोई बाहरी दवाब काम नहीं करता है। अपनी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के चलते उन्हें रॉ (आरएडब्ल्यू) में कैबिनेट सेक्रेटेरिएट के लिए चुना गया। पुलिस विभाग में उनकी बढ़िया छवि का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें 'ट्रबलशूटर' के नाम से संबोधित किया जाता था। जॉइंट कमिश्नर ऑफ पुलिस (सिक्योरटी, ट्रेनिंग), दिल्ली के पद पर काम कर डॉ. राव वर्तमान में मिनिस्ट्री ऑफ होम अफेयर्स के अधीन पुलिस एक्ट ड्राफ्टिंग कमेटी में सेक्रेटरी पद पर कार्यरत हैं।

अपने 21 वर्षीय पुत्र को एक एक्सीडेंट में खो चुकने के बाद भी डॉ. राव रुके नहीं। अब वे विषम स्थितियों से बाहर आने के लिए ज्यादा काम करते हैं। एक ओर वह एक अनुशासित पुलिस ऑफिसर हैं, तो दूसरी ओर किशोरों के प्रति काफी संवेदनशील दृष्टिकोण रखते हैं। किशोरों की मनोवैज्ञानिक और कैरियर काउंसलिंग के लिए उन्होंने यूरिवी विक्रम चैरिटेबल ट्रस्ट की स्थापना की है। यह संस्था किशोरों के हर प्रकार के मार्गदर्शन में सक्रिय भूमिका निभा रही है।

अच्छा समय, बुरा समय

'यह सब क्या है? मैं आप पर नाराज हो रहा हूं जबकि आप अपने हाथ को देख रहे हैं और मुसकरा रहे हैं,' एक नए फौजी अफसर ने गुस्से से सूबेदार मेजर की ओर देखते हुए कहा।

'कुछ नहीं सर। मैं आपकी बातों को ध्यानपूर्वक सुन रहा हूं। आप जो भी कह रहे हैं, सही है।' सूबेदार मेजर ने जवाब दिया।

'मैं देखता हूं क्या माजरा है,' लेफ्टिनेंट ने अपनी कुर्सी से उठते हुए कहा। वह सूबेदार मेजर के पास गया और ऊपर से नीचे तक उसे देखा। फिर चारों ओर देखा, परंतु वहां ऐसा कुछ नहीं था, जिसके कारण वह प्रसन्न होता। अचानक उसने देखा कि उसके बाएं हाथ पर कुछ लिखा हुआ है। पास जाकर पढ़ा, तो लिखा था, 'यह वक्त भी गुजर जाएगा'।

सूबेदार मेजर आर्मी में जूनियर कमिशंड ऑफिसर होता है। अंगरेजों ने इस श्रेणी को उस समय बनाया था, जब फौज में भारतीय अफसर नहीं होते थे। ऐसा अंगरेजी राज में सौ साल से अधिक रहा। जेसीओ फौज की रीढ़ की हड्‌डी बन गए क्योंकि ये अंगरेजी अफसरों और भारतीय जवानों के बीच एकमात्र कड़ी थे। आज भी इनका महत्व फौज में उतना ही है।

यह सूबेदार मेजर पिछले 20 सालों से सेवा में था। यह बात 80 के दशक की है। शांत और गंभीर जसवंत हर काम को बहुत जिम्मेदारी से करता था। अधिकतर यह उन नए अफसरों के साथ काम करता था, जिन्हें काम के बारे में अधिक जानकारी नहीं होती थी और उन्हें जसवंत के गुणों का पता नहीं होता था। वे अकसर उसे काम करने का वह तरीका बताते, जो सही नहीं होता था। तब जसवंत उनको काम करने का ठीक तरीका बताता था। कुछ अफसर तो समझ जाते, परंतु अधिकतर भड़क जाते थे। जसवंत उनकी बात सुनता रहता और हाथ पर गुदी हुई सूक्ति को पढ़कर मुसकरा देता। उसने कभी अपना आपा नहीं खोया। जल्दी ही अफसर की समझ में आ जाता कि जसवंत किस मिट्‌टी का बना है और उसको काम की पूरी समझ है। जसवंत एक ऐसा उदाहरण है, जो बताता है कि अपने काम को ठीक तरीके से करने की क्षमता विकसित करनी चाहिए। समय की कद्र करनी चाहिए और बदलते समय का मिजाज पहचान चाहिए। व्यक्ति शांत रहकर जो प्राप्त कर सकता है, वह लड़-झगड़कर कभी नहीं। जो तुरंत लाभ हासिल करना चाहते हैं, वह शीघ्र ही परेशान हो जाते हैं क्योंकि अकसर मात खानी पड़ जाती है। यदि हम समय का सम्मान करें, तो शायद अच्छे नतीजे हासिल हो सकते हैं।

मेरा एक मित्र नौकरी के लिए आया और मैंने उसको अपने संपादक मित्र के पास भेज दिया। वह एक अच्छा पत्रकार था, परंतु संपादक शीघ्र कोई निर्णय लेने में असमर्थ था। मेरे मित्र को लगा कि वह जानबूझ कर देर कर रहा है। एक दिन उसके दफ्तर में जाकर कहने लगा कि आज मुझे बता दो 'हां या नहीं'।

संपादक ने मना कर दिया और कुछ महीनों तक मेरे मित्र को नौकरी नहीं मिली। संपादक ने मुझे बताया कि यदि वह केवल कुछ दिन और रुक जाता, तो उसको रखना लगभग तय हो चुका था। शांत रहना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि समय बदलता रहता है। ठीक ही कहा गया है, 'अच्छा समय, बुरा समय, बदलता समय।'

अधिकार नहीं कार्य महत्वपूर्ण

घटना काफी समय पहले की है। लगभग पांच वर्ष पहले की। सर्दी के मौसम में धुंध एक समस्या बन जाती है, मुख्यतः हवाई जहाजों की उड़ान में। एक रात दस बजे जेट एअरलाइंस की यात्रा का समय हो गया था। तभी धुंध बननी प्रारंभ हो गई। जेट के कर्मचारियों ने जल्दी-जल्दी यात्रियों को प्लेन में भेजा और सामान चढ़ाया। प्रयत्न यह था कि धुंध के अधिक होने से पहले टेकअप हो जाए। परंतु धुंध एकदम से बढ़ गई और प्लेन को उड़ने की इजाजत नहीं मिली। प्लेन टेक्सी कर चुका था और उड़ने को तैयार था। उसको वापस लाना भी एक कठिन काम था। परंतु जेट एअरवेज के कर्मचारियों ने स्थिति को बड़ी कुशलता के साथ संभाला। इस बात का पूरा ख्याल रखा गया कि यात्रियों को किसी तरह की असुविधा न हो। यात्रियों को पेय पदार्थ सर्व किए गए। लॉबी में पहुंचते ही उनको टिकट शीट और होटल के वाउचर दे दिए गए। बाहर धुंध अधिक थी और कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। कर्मचारियों ने ह्यूमन चेन बनाकर यात्रियों को बस तक गाइड किया। होटल पहुंचने पर जेट के कर्मचारी यात्रियों की सहायता के लिए मौजूद थे। अगले दिन यात्रियों को एअरपोर्ट पहुंचाकर मुंबई के प्लेन में बैठा दिया गया। प्रत्येक यात्री जेट एअरलाइंस के कर्मचारियों की व्यवस्था से बहुत प्रसन्न था और सबने तय किया कि भविष्य में वह केवल जेट से ही यात्रा किया करेंगे।

उसी रात इंडियन एअरलाइंस का प्लेन 7 बजे मुंबई जाने वाला था । यात्री समय पर एअरपोर्ट पहुंच गए, परंतु प्लेन लेट था। आखिर यात्री नौ बजे प्लेन में बैठ गए, पर जहाज को उड़ङ्गने की इजाजत नहीं मिली। यात्री जब लॉबी में आए, तो वहां पूरी तरह अराजकता थी। किसी को कुछ पता नहीं था कि क्या करना है। यात्री एक काउंटर से दूसरे काउंटर भटकते रहे। टिकट शीट लेने में भी छीना झपटी हो रही थी। न होटल का प्रबंध, न बस का और न ही यह पता कि अगली उड़ान कब जाएगी। मेरा एक मित्र उस फ्लाइट पर था और वह आधी रात में किसी तरह कंपनी के गेस्ट हाउस पहुंचा। अगले दिन शाम तक उसको मुंबई की फ्लाइट मिली। उसने तय किया कि वह कभी भी इंडियन एअर लाइंस से यात्रा नहीं करेगा।

कोई शक नहीं है कि दस वर्ष में जेट एअरवेज देश की सर्वप्रथम एअरलाइंस बन गई है। यह कमाल है, उनमें काम करने वाले कर्मचारियों का। मैंने पता लगाने का प्रयत्न किया कि जेट की कार्यक्षमता और यात्रियों कोअधिकतर सुविधा पहुंचाने के प्रयास के पीछे क्या था?

जेट में कर्मचारियों में यह भावना भरी जाती है कि उनको अपनी कंपनी को शिखर पर पहुंचाना है। इसके लिए टीम वर्क पर अधिकतम जोर दिया जाता है और टीम नेता को पूरे अधिकार दिए जाते हैं। चूंकि मौके पर टीम लीडर ही उपस्थित होता है इसलिए उसको ही यह तय करना होता है कि इस संकट की घड़ी में क्या किया जाए। उसको किसी से पूछने की जरूरत नहीं होती। जब एअरपोर्ट पर यह सब हंगामा हो रहा था, तो जेट के उच्च अधिकारियों को कुछ पता नहीं था। जब सब ठीक हो गया, तो उनको अगले दिन सुबह बता दिया गया कि संकट था और उसको किस तरह से संभाला गया। प्रत्येक को शाबाशी मिली।

इंडियन एअरलाइंस में ऐसा कुछ नहीं है, प्रत्येक छोटी सी बात के लिए उच्च अधिकारियों से पूछा जाता है। उसकी आज्ञा का इंतजार किया जाता है। इससे निर्णय लेने में देर होती है। मौके पर उपस्थित न होने के कारण उन्हें पता ही नहीं होता कि मामला कितना गंभीर है। यात्रियों की परेशानियों को वे महसूस ही नहीं कर पाते। परिणाम यह होता है कि संगठन के प्रति लोगों का विश्वास कम हो जाता है। ऐसा ही उस रात हुआ, जिसका परिणाम यह हुआ कि जेट को यात्रियों का विश्वास प्राप्त हुआ और इंडियन एअर लाइंस को नहीं। आज के समय में सफलता अधिकार के कारण नहीं, बल्कि कार्य के कारण मिलती है। जो इसे समझ लेते हैं, सफलता के मार्ग पर बढ़ते रहते हैं।

अघिकतम कार्य क्षमता की ओर

लगभग कुछ माह पूर्व भारतीय योग संस्थान के राजोरी गार्डन केंद्र के वार्षिक कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला। वहां जा कर पता लगा कि योगाभ्यास से किस प्रकार शक्तिशाली व्यक्तित्व का विकास होता है। यही नहीं, अधिकतर समस्याएं, जो आज के समय में कम आयु में ही व्यक्ति को घेर लेती हैं, दूर रखी जा सकती हैं। उच्च रक्तचाप, हृदय संबंधी रोग, मधुमेह, दमा मानसिक तनाव आदि अधिकतर समस्याओं को दूर रख कर एक स्वस्थ्य जीवन जिया जा सकता है। किस प्रकार यह संभव है? और क्या है योग साधना? ये दो प्रश्न मेरे जेहन में उभरे। दोनों का ही उत्तर मैंने खोजने का प्रयत्न किया है।

योग के दर्शन में न जा कर सामान्य ज्ञान के लिए योगाभ्यास व्यक्ति को यह सिखाता है कि शरीर व मन को किस प्रकार प्राकृतिक अवस्था में रखा जाए। अधिकतर समस्याओं का जन्म तभी होता है, जब हम अपने शरीर और मन को इस अवस्था से दूर ले जाते हैं कि दोनों ही उनको स्वीकार नहीं करते। देखा जाए, तो योग का आरंभ उस समय हुआ जब मनुष्य ने कृषि अवस्था में प्रवेश किया। लगभग ऽ००० वर्ष पहले भारत में जब नदियों के किनारे स्थायी निवास प्रारंभ हुए, तो कुछ व्यक्तियों ने प्राकृतिक नियमों तथा उससे संबंधी बातों की खोज प्रारंभ की। ये व्यक्ति, जो ऋषि-मुनि कहलाए, आत्म प्रयोगों के आधार पर अनेक समाधानों पर पहुंचे। इसके आधार पर इन्होंने अनेक नियमों और अभ्यासों को बनाया। व्यक्ति के स्वास्थ्य से संबंधित नियम व अभ्यास ही योग विज्ञान बना।

आखिर कैसे योगाभ्यास अधिकतर मानसिक और शारीरिक समस्याओं को दूर करता है। इसके कई कारण हैं। एक तो योगाभ्यास से शरीर की प्राकृतिक लोच बनी रहती है। अधिकतर समस्याएं, मुख्यतः जोड़ों की, शरीर में दृढ़ता के कारण पैदा होती है। यह इसी प्रकार है कि दरवाजा यदि खुलता रहे, तो सहज रहता है। परंतु अधिक समय प्रयोग न रहने पर जम जाता है।

दूसरे, यह शरीर के विभिन्न अंगों में तालमेल स्थापित करने का अभ्यास कराता है। इससे शरीर में अनुशासन आता है। और इच्छानुसार विभिन्न अंगों को नियंत्रित किया जा सकता है।

तीसरे, यह व्यक्ति में प्रत्येक प्रकार की क्षमता को बढ़ाता है। योग्याभ्यास से हडि्‌डयों में लचक मांसपेशियों में संतुलन, रक्त का सुचारु संचार और विभिन्न गं्रथियों के उचित स्राव के कारण तनाव रहित जीवन संभव होता है। इससे एकाग्रता बढ़ती है और व्यक्ति अधिक व अच्छा काम कर सकता है।

आज के जीवन में सफलता के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति औरों से एक कदम आगे रहे। यह तभी संभव है, जब वह योगाभ्यास से शारीरिक तथा मानसिक क्षमता को अधिकतम करे।

06 जनवरी 2012

आत्मसम्मान

उस समय मैं दिल्ली के एक कॉलेज में पढ़ाता था। एक दिन सुबह एक मित्र अपने यहां काम करने वाली माई के बेटे राज को लेकर आए। उसके नंबर बहुत अच्छे तो नहीं थे, परंतु वह आगे पढ़ना चाहता था। साथ ही उसको वित्तीय सहायता की भी आवश्यकता थी। लड़के की आवश्यकता और एक गरीब परिवार की सहायता के उद्‌देश्य से मैंने न केवल उस लड़के को बीए में दाखिला दिया, बल्कि उसके लिए आर्थिक सहायता का भी प्रबंध कर दिया। कुछ दिनों के बाद मुझे वह लड़का एक लड़की के साथ रेस्तरां में बैठा हुआ दिखा। तीन साल में वह पढ़ने में कम और अन्य बातों में अधिक समय व पैसा लगाने लगा था। उसने किसी तरह बीए तो पास कर लिया परंतु आज 30 साल बाद वह एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क है।

कुछ ही समय बाद मैं टाइम्स ऑफ इंडिया की मैगजीन में संपादन करने लगा। एक दिन दफ्तर में एक लड़का मामूली से कपड़े पहने आया। वह एक सामान्य परिवार का था और दिल्ली के कॉलेज में पढ़ना चाहता था। उसकी भी वही समस्या थी। दाखिला और आर्थिक सहायता। परंतु राज और मानस में एक अंतर था। मानस स्कॉलरशिप और अनुदान के रूप में आर्थिक सहायता नहीं चाहता था। वह ट्‌यूशन करना चाहता था, जिससे वह जो भी धन प्राप्त करे, वह उसकी मेहनत से कमाया हुआ हो। मानस के लिए भी मैंने दाखिले और ट्‌यूशन की व्यवस्था कर दी। मानस ने सदैव स्वयं को संतुलित रखा। उसने कठिन मेहनत की और सिविल सर्विसेज में अच्छे अंक लाया। आज वह आईएएस है तथा दिल्ली में जॉइंट सेक्रेटरी है।

क्या कारण है कि दो लड़कों में से एक निम्न स्तर पर रह गया परंतु दूसरा सफलता की ऊंचाइयों को पार करता चला गया। दोनों में आत्मसम्मान का फर्क है। राज में आत्मसम्मान नहीं था, जबकि मानस में यह भरपूर था। राज ने पैसे को लापरवाही से गंवाया और मानस ने इसका प्रयोग अपनी स्किल्स को बेहतर करने में लगाया, यदि आप सफल व्यक्तियों केजीवन का अध्ययन करें, तो इस अंतर को अवश्य पहचान सकते हैं।

कैसे होते हैं आत्मसम्मानी? कई बातों से आप इसको पहचान सकते हैं। पहला, वे आशावादी होते हैं, कभी भी उत्तरदायित्व से नहीं भागते। गांधी जी का ही उदारहण लें। अधिकतर लोग मानते थे कि अंग्रेजी राज्य कभी समाप्त नहीं हो सकता। गांधी जी ने विश्वास दिलाया कि अंग्रेजों को भारत छोड़ना होगा। उन्होंने अपना पूरा उत्तरदायित्व भी निभाया। जिन लोगों में आत्मसम्मान की कमी होती है। वे दूसरों की आलोचना ही करते रहते हैं और बताते रहते हैं कि काम क्यों नहीं हो पा रहा है। वे काम के बजाए गप्पबाजी में ज्यादा समय गुजारते हैं।

दूसरे, मानस जैसे व्यक्तियों में आत्मविश्वास होता है और कुछ कर गुजरने का जुनून। वे दूसरे व्यक्तियों के प्रति संवेदनशील होते हैं और उनके आत्मसम्मान की इज्जत करते हैं। राज जैसे व्यक्ति बातें ज्यादा करते हैं और अपने बारे में ही बोलते रहते हैं। दूसरों को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ते। इससे उनकी दूसरों से अनबन बनी रहती है और कोई उनका विश्वास नहीं करता। मानस जैसे व्यक्तियों को लोग आदर से देखते हैं।

समय है आत्मसम्मानी बनने का।

आपसी रिश्ते

लगभग 25 साल पहले मेरे कैरियर में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया। कॉलेज की आराम की नौकरी छोड़कर एक नई पत्रिका कैरियर कम्पटीशन टाइम्स के संपादन का ऑफर मिला। निमंत्रण भारत के एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र समूह से था, परंतु मुझे डर था कि मैं इस महत्वपूर्ण कार्य को सफलता से कर पाऊंगा या नहीं। मार्ग निर्देशन के लिए मैं अपने एक सम्मानित गुरु केपास गया, वे जेएनयू में प्रोफेसर थे,। उनको सब बातें बताईं और पूछा कि क्या निर्णय लेना चाहिए। उन्होंने कहा, 'अवश्य जाओ, क्योंकि इस प्रकार का अवसर जीवन में एक बार ही मिलता है, परंतु याद रखना सफल व्यक्ति के मित्र कम शत्रु अधिक बनते हैं। सबसे अधिक खतरा अपनों से होता है, संभलकर चलना, तो कोई समस्या नहीं आएगी।'

मैंने घर आकर उनकी राय पर सोचा। संक्षेप में उन्होंने अंतरव्यक्तिगत संबंधों पर महत्व देने को कहा था। काफी सोचने के बाद मैंने तय किया कि हां करने से पहले मैं पत्रिका में काम करने वाले व्यक्तियों से मिल लूं। समय लेकर मैं पत्रिका के दफ्तर गया। सब लोगों ने जोरदार स्वागत किया। मैंने केवल एक प्रश्न पूछा, 'आपमें से किसी का हक तो नहीं मारा जाएगा? यदि आपमें से कोई भी इस पद का दावेदार है, तो मैं नहीं आऊंगा।' सबने कहा कि उनमें से कोई भी इस पद की अपेक्षा नहीं करता है। मैंने जॉइन कर लिया है। नौ वर्षों में मुझे सबका पूर्ण सहयोग मिला है और कभी कोई समस्या नहीं आई।

यह सारी समझ संवेदनशील होने की है। यह संवेदनशीलता अधिक महत्वपूर्ण बन जाती है, जब आप सफलता की उच्चतम सीढ़ी पर होते हैं और अधिक महत्वपूर्ण बन जाती है। जैसे-जैसे आप सफल होते जाते हैं, वैसे-वैसे आपके पास अधिक अधिकार या पैसा या दोनों ही आते जाते हैं। आपके मित्र तथा संबंधी आपसे मदद की आशा करने लगते हैं। ऐसा प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि या तो आप पैसे से उनकी मदद करें या उनको उनके कामों में मदद पहुंचाएं। ऐसा उम्मीद करना स्वाभाविक है, क्योंकि यह मानवीय स्वभाव है कि हम दूसरे से मदद की अपेक्षा करें। मदद करने में कोई हानि भी नहीं है, यदि इससे अन्य व्यक्तियों को नुकसान नहीं पहुंचता। यहीं पर संवेदनशीलता की आवश्यकता आती है।

हर एक व्यक्ति का हर काम नहीं कराया जा सकता है और न ही कराना चाहिए। यहां पर विवेक से काम लेना होता है। देखना होता है कि कौन सा काम कराना चाहिए और कौन सा नहीं। जो काम हो सकता है, उसको करने से आपसी संबंध अच्छे होते हैं, परंतु समस्या तब आती है, जब काम कराना संभव नहीं होता है। उस समय यदि आप संभलकर नहीं चले, तो व्यक्तिगत संबंध खराब हो जाते हैं, जो आपके पास काम लेकर आया है वह बहुत आशा रखता है और मानकर चलता है कि आप पर उसका हक है। यदि आप टका सा जवाब दे देते हैं, तो वह अपमानित अनुभव करता है। अच्छा हो कि आप उसको कारण बताएं और समझाएं कि आप उसकी पूरी मदद करना चाहते हैं, परंतु उसका काम क्यों नहीं हो सकता। यदि उसको यकीन हो जाएगा कि आपके प्रयत्न के बावजूद काम नहीं हुआ, तो उसको कोई गिला नहीं होगा और आपके आपसी संबंध बरकरार रहेंगे।