15 मई 2011

आदर्श मानवता के प्रति समर्पित संत कबीर

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय॥

आज से ६०० साल पहले (सन्‌ १३९८) ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा के दिन ब्रह्‌म मुहूर्त में मानवता के मसीहा संत सम्राट सदगुरु कबीर साहिब का अवतरण काशी में लहरतारा नामक स्थान में हुआ था। उनके जन्म के विषय में अलग-अलग धारणाएं हैं, लेकिन इन विभिन्न धारणाओं के पीछे न पड़ते हुए उनके द्वारा स्थापित मानवीय आदर्शों की बात करना ही उचित हो।

भारत एक बहुलवादी देश है। सदियों से यहां अनेक धार्मिक संप्रदायों का सह-अस्तित्व रहा है। यहां विभिन्न धर्मावलंबी एक-दूसरे धर्मों के प्रति सहिष्णुता रखते हुए उन्हें सम्मान देते आए हैं। अपवाद हो सकते हैं, किंतु सामान्य रूप से 'अनेकता में एकता' की भावना भारत में सदैव कायम रही है।

भारत में धर्मों के सह-अस्तित्व का मुख्य कारण सामान्य जन में यह सहचेतना है कि विभिन्न धर्म एक ही परमपिता तक पहुंचने के भिन्न-भिन्न साधन हैं। धर्म-पंथ भले ही अनेक हों, किंतु सभी का लक्ष्य एक है। अनेकता में एकता की समन्वयकारी दृष्टि का सभी धर्मों के संत-महात्माओं ने उपदेश दिए हैं। मुहम्मद, ईसा, नानक, बुद्ध, महावीर, कबीर से लेकर आधुनिक युग में रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ और महात्मा गांधी तक सभी इस विषय में एकमत हैं कि धार्मिक संप्रदाय अनेक हो सकते हैं, किंतु धर्म एक ही है।

कबीर दास जी मूलतः संत थे। कविता तो उनकी वाणी ही थी। इसलिए उन्हें संत कवि भी कहते हैं। निर्गुण भक्ति शाखा के प्रखर व महान संत कबीरदास जी आज के जनमानस को सूफी मत के रहस्यवाद के बहुत निकट हैं, इसलिए विशेषकर भारतीय संत समाज, चाहे वह मुसलिम हो, सिख हो, हिंदू हो या अन्य, सब के सब समान रूप से प्रभावित होकर उनके आदर्श वचनामृत का रसपान करते हैं। कबीर का नाम कबीर दास, कबीर साहब एवं संत कबीर जैसे रूपों में प्रसिद्ध है। यह मध्यकालीन भारत के महापुरुष थे और इनका परिचय, प्रायः इनके जीवनकाल से ही, सफल साधक, भक्त कवि, मत-प्रवर्तक अथवा समाज सुधारक मानकर दिया जाता रहा है। संत कबीरदास के नाम पर कबीर पंथ नामक संप्रदाय भी प्रचलित है। कबीरपंथी लोग इन्हें एक अलौकिक अवतारी पुरुष मानते हैं और इनके संबंध में बहुत सी चमत्कारपूर्ण कथाएं भी सुनी जाती हैं। इनका कोई प्रामाणिक जीवन वृत्त आज तक नहीं मिल सका है, जिस कारण इस विषय में निर्णय करते समय, अधिकतर जनश्रुतियों, ग्रंथों और विविध उल्लेखों तथा इनकी अभी तक उपलब्ध कुछ फुटकल स्थानों के अंतः साक्ष्य का ही सहारा लिया जाता रहा है।

कबीर की सामाजिक चेतना : संतों की आध्यात्मिक परंपरा में सामाजिक चेतना का एक विशेष स्थान होता है। इसलिए कबीर की सामाजिक चेतना का पुट बड़े विस्तार से दिखाई पड़ता है। समाज से नितांत निरपेक्ष भाव की कल्पना संत साहित्य में नहीं है। रुढ़िवादिता जन्य सामाजिक विकारों का निदान कर समाज के नवीन स्वरूप के निर्माण का विधान संतों ने निरंतर किया है, उन संतों में से संत कबीर का स्थान प्रमुख है। उनकी साधना विकास की भूमिका अवश्य है, किंतु उसका सामाजिक मूल्य भी है। इस सामाजिक चेतना स्वर में संत कबीर की वाणी उनकी आत्म संस्करण की धारणा एक मूल्यवान स्वरूप ग्रहण करती है। इसलिए समाज के लिए कबीर की वाणी एक आदर्श शिक्षक के समान है।

दार्शनिक विखंडताओं, सामाजिक वर्गगत जटिलताओं, रूढ़ियों तथा धार्मिक बाह्‌याचारों से त्रस्त जन-साधारण के लिए कबीर ने एक ऐसे वर्गहीन समाज की व्यवस्था का प्रयास किया है जिसमें जीवन की सरलता और सौंदर्य की सहज परख होती है। संत कबीर के दर्शन में समाज का खंडन नहीं बल्कि मंडन है। उन्होंने जीवन में जो कुछ सीखा समाज से सीखा और जो सिखाया वह समाज को सिखाया। कबीर ने समाज का बृहद्‌ स्वरूप प्रस्तुत किया है। संत समाज ही उनकी दृष्टि में आदर्श समाज है क्योंकि संत का संतत्व उसके जीवन के व्यावहारिक और आध्यात्मिक दोनों ही पक्षों पर निर्भर करता है। संत जीवन की पहली कसौटी उसका लौकिक व्यवहार और स्वयं सिद्धत्व का गुण है। संत अपनी सदाचारी वृत्तियों से असंत को भी संत बना देता है। इसलिए संतों की महिमा का गुणगान कबीर ने मुक्त कंठ से किया है। (कबीर ग्रंथावली पेज ३८, ३९ साखी २ व ४)

संत और वैष्णव की कबीर दास ने सदा ही प्रशंसा की है। वैष्णव और संत दोनों ही सदाचारी हैं। सदाचार ही भक्ति की भूमिका है और भक्ति सदाचार को रंजक बनाती है। संत कबीर एक ऐसे समाज में विश्वास रखते हैं, जहां धर्मगत, संस्कारगत, व्यवसायगत और अर्थगत किसी प्रकार का विषम भाव नहीं। वे भेदभावना से ऊपर उठकर सबको समत्व की दृष्टि से देखते हैं। वे तो व्यक्ति की अंतर्निहित एकता में विश्वास रखते हैं। कबीर के उस वर्गहीन समाज में ब्राह्‌मण और शूद्र, हिंदू और मुसलमान में कोई जातिगत व धर्मगत भेद नहीं। जाति, धर्म, वर्गगत भेदभावना अनुदार और मानवता विरोधी है, छुआछूत एक भ्रम है। सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए संत कबीर ने छद्‌मवेश और पाखंडों की निंदा की, मिथ्याचारों पर अदम्य प्रहार किया, कुप्रथाओं की भर्त्सना की, निर्धन के शोषण से उपार्जित धन के बल पर विलासमय जीवन व्यतीत करने वाले पूंजीपतियों के आगे कनक और कामिनी की असारता सिद्ध की। समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता को मिटाने के लिए उन्होंने संचय की मनोवृत्ति पर कुठाराघात करते हुए कहा है कि लक्षाधीश को भी अंत समय खाली हाथ जाते देखा है। संचय की यह प्रवृत्ति चिंता का कारण है और समाज में अशांति एवं विषमता फैलाती है।

संत कबीर ने सत्य, क्षमा, दया, त्याग, विश्वबंधुत्व, विनय, समता, समदृष्टि, करनी और कथनी में एकता, संतोष, दीनता आदि के द्वारा समाज को उन्नत बनाने का प्रयत्न किया। सत्य आचरण, मानव प्रेम को प्रोत्साहित करता है, क्षमा व्यक्ति को उदार और महान बनाती है, दया धर्म का मूल है, त्याग संतोष का जनक है, विश्वबंधुत्व से भेदभावना मिटती है। संत कबीर कहते हैं कि विनय से अहंकार मिटता है और समता से विषमता का नाश होता है, कथनी और करनी की एकता से जीवन संतुलित होता है, संतोष से शांति मिलती है और दीनता से मन विकारहीन होता है।

लोक धर्म : आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर की लोक धार्मिता का अत्यंत सूक्ष्मतापूर्वक संधान करते हुए संतों को लोक धर्म का बड़ा समर्थक माना है। वास्तविकता यह है कि कबीर आजन्म अपने व्यवसाय से इतने अधिक जुड़े रहे कि उनको भिक्षावृत्ति और परमुखोपजीविता से घोर घृणा होने लगी। 'आवाध राम सबै करम करिहूं' कहने वाला कबीर सामाजिक आबद्धता अथवा लोक आबद्धता को स्वीकार न करता हो, यह बात कुछ समझ में नहीं आती।

कबीर की धर्म-विषयक धारणा संकीर्णता से अछूती, व्यापक और उदार है। उनका सहज लोकधर्म स्वानुभूति पर आधारित है। भ्रम में भटकते हुए समाज को अंधविश्वासों, पाखंडों, रूढ़ियों, कोरे दार्शनिकवाद-विवादों की व्यर्थता सिद्ध करके कबीर एक ऐसे सहज धर्म को अपनाने का उपदेश देते हैं, जिसका आधार आंतरिक शुचिता, विचारों की पवित्रता, आचरण की सात्विकता है जिसमें दया, प्रेम, सेवाभाव, अहिंसा, सत्य और औदार्य गुण विमान है।

कबीर का मूलमंत्र 'मानवतावाद' है। उन्होंने जीवन पर्यंत अपनी विचारधारा को मानवतावादी दृष्टि से समलंकृत करने का प्रयास किया। उनका यह मानवतावाद मनुष्य जाति तक सीमित न रहकर पशु-पक्षी, जीव-जंतु तथा वनस्पति जगत तक प्रसारित है। युग-प्रवर्तक रामानंद से प्रेरित एवं अनुप्राणित होकर संत कबीर ने जाति-पांति की भेद भावना से ऊपर उठ 'हरि को भजै सो हरि का होई' का उद्‌घोष कर समस्त मानव जाति को समता के धरातल पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया। इसी मानवीय एकता के प्रतिष्ठापन के लिए उन्होंने आध्यात्मिक क्षेत्र में एक ऐसे निर्गुण ब्रह्‌म की स्थापना की जो सभी वर्ग और जाति को स्वीकार हो। उनका वह ब्रह्‌म सभी का सृजनहार है। वह सभी में और सब उसी में वास करते हैं। जब 'हरि में ही पिंड और पिंड में हरि' विमान है तो मानव मानव में ऊंच-नीच की भेद भावना को स्थान कहां?

आदर्श ब्रहमचारी, अतुल पराक्रमी थे श्री परशुराम

श्री परशुराम भगवान् विष्णु के अंशावतार थे। धर्मग्रंथों में लिखा है श्री परशुराम का आर्विभाव वेंशाख मास के शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि के प्रदोषकाल में जिला इंदौर की तहसील महू के गाँव जम्दाग्नेश्वर में हुआ था। इनके प्राकव्य के समय छः ग्रह अपनी राशी अथवा उच्चा स्थिति में थे। दार्शनिक दृष्टि से ये तेज (अग्नि) तत्व के घनीभूत स्वरुप हैं।

इनके क्रोध से बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी कांपते थे। इन्होने कठोर तपस्य से भगवान् शंकर को प्रसन्न करके उनके अमोघ परशु को प्राप्त किया और इसे धारण करने के कारण ही राम से परशुराम कहलाए।

श्री परशुराम के पिता महर्षि जमदग्नि तथा माता रेणुका थीं। जमदग्नि पुत्र होने से उन्होंने 'जामदग्न' भी कहा गया। कहते हैं कि पुत्रोत्पत्ति के लिये रेणुका तथा विश्वामित्र की माता को प्रसाद मिला था, किन्तु देववश प्रसाद दोनों माताओं के बीच बदल गया। इसके फलस्वरूप रेणुका के पुत्र परशुराम जी ब्रह्मण होते हुए भी क्षत्रीय गुण सम्पन्न हो गए। इससे वे स्वभाव से उग्र तथा महान योद्धा बन गए, जबकि विश्वामित्र क्षत्रिय कुल में जन्म लेकर भी ब्रह्मर्षि हो गए। परशुराम में ब्राह्मण और क्षत्रिय तेज का अपूर्व समन्वय मिलता है।

परशुराम जी अपने पिता के बड़े आज्ञाकारी थे। एक बार इनके पिता ने अपनी पत्नी से रूष्ट होकर अपने पुत्र को रेणुका का वध करने का आदेश दिया। पिता की आज्ञा को मानकर परशुराम ने अपनी पत्नी का सिर काट लिया। पिता ने प्रसन्न होकर जब इनसे वर माँगने को कहा, तो परशुराम ने अपनी माता को पुनः जीवित करने का वरदान माँगा। महर्षि के प्रताप से रेणुका जीवित हो गई।

परशुराम आदर्श ब्रह्मचारी होने से अतुल पराक्रम और उत्साह के मूर्तिमान स्वरुप हैं। भीष्म पितामह एवं कर्ण को धनुर्विद्या इन्होने ही सिखाई थी। सीता स्वयंवर में अपने गुरू शिव के धनुष को भगवान् श्री रामचंद्र द्वारा तोड़े जने पर ये महाराजा जनक के दरबार में पहुंचे। पहले तो श्री राम पर क्रोधित हुए, लेकिन बाद में इनका क्रोध शांत हो गया। भगवान् परशुराम के प्रति लोगों की अनन्य आस्था है। उनका तेज अतुलित था। उन्होंने यज्ञ और आदर्श आचार परम्परा के निर्वाह का नया सिद्धांत दिया।

श्री परशुराम से सम्बंधित तीर्थ
परशुराम कुंड यह अरूणाचल प्रदेश में है। कहते हैं कि यहाँ पर जिस जगह भगवान् परशुराम ने परशु मारा था, वहां से जल निकल आया। यहाँ स्नान करने से व्यक्ति ब्रह्म ह्त्या से छूट जाता है।
परशुराम आश्रम बलिया में भृगुक्षेत्र के पंचकोशी मार्ग में परसिया ग्राम हैं, वहां सरयू नदी के किनारे मनियार ग्राम में भगवान् परशुराम का आश्रम हैं। यहाँ के एक वृक्ष के नीचे उन्होंने तपस्या की थी।
परशुराम मन्दिर रुनकता मथुरा से 10 किमी पर रुनकता है। यहाँ महर्षि जमदग्नि का आश्रम था। ऊंचे पहाड़ पर माता रेणुका तथा जमदग्नि का मन्दिर है। नीचे परशुराम जी का मन्दिर है, जहाँ परशुराम जयन्ती पर मेला लगता है।
खाटी कपूरथला के फगवाड़ा से पांच किमी दूर भगवान् परशुराम मन्दिर है। इसे जमदग्नि का तापोस्थान कहा जाता है। गाँव में ब्राह्मणों का एक भी घर नहीं होने से मन्दिर की सेवा सिख समुदाय के लोग करते हैं। उन्होंने ही सड़क पर परशुराम गेटका भी बनवाया है।
रकासन राहों से 10 किमी दूर रेनुका का मन्दिर है। इसके साथ भगवान् परशुराम का टोबा भी है।

रिश्तों को बचाएं उलझने से

ईषा पढी-लिखी समझदार कामकाजी स्त्री थी। मुकुल भी आदर्श पति था। लेकिन जब भी परिवार के सभी लोग एक-साथ होते, ईषा के लिए वातावरण सुखद नहीं रहता। आशा के विपरीत मुकुल अपने घरवालों के साथ मिलकर ईषा का उपहास करने का एक भी मौका हाथ से न जाने देता। कब तक वह इसे मजाक समझ कर अनदेखा व अनसुना करती। उसका तनाव दिन-प्रतिदिन बढता जा रहा था। ईषा अपवाद नहीं उसके जैसी अनेक पत्नियां हैं जो इन्हीं छोटी-छोटी बातों से बेवजह आहत होती रहती हैं। कई बार ये छोटी-छोटी शिकायतें इतनी बडी हो जाती हैं कि रिश्ते खोखले लगने लगते हैं। छोटे-छोटे मतभेद बडी तकरार या अहं के टकराव का कारण बन जाते हैं। यह जरूरी है कि इन उलझनों के पीछे छिपे कारणों को जाना और समझा जाए। आमतौर पर मतभेदों की मुख्य वजहें निम्न होती हैं:
1. साथी की कार्यशैली पर बार-बार टीका-टिप्पणी करना
2. व्यवहार और व्यक्तित्व में कमियां निकालना
3. तनाव के क्षणों में व्यर्थ कुतर्क करके परेशान करना
4.जब सहयोग की उम्मीद हो, तब व्यस्तता का बहाना बनाकर टालना
5. विचारों, व्यवहार और एटीट्यूड पर जबरन नियंत्रण की कोशिश
6. निष्ठा, दृढता और आत्मीयता पर सवाल उठाना
7. परिवार में योगदान को नगण्य मानना

ऐसे बढाएं कदम
अगर आपको अपने साथ ऐसा महसूस हो रहा है तो सचेत हो जाएं। समस्याएं उग्र रूप लें इससे पहले आपको इनके समाधान की दिशा में प्रयास शुरू कर देने चाहिए। हालांकि इसमें कोशिशें दोतरफा होनी जरूरी हैं। परंतु सामने वाले की ओर से पहल का इंतजार इतना भी न करें कि देर हो जाए। साथ ही यह भी ध्यान रखें कि संबंधों को जीत-हार की भावना से लडकर बेहतर नहीं बनाया जा सकता। इन्हें बेहतर सिर्फ एक-दूसरे को समझकर ही बनाया जा सकता है। इसलिए इस दिशा में कदम बढाने से पहले अपने और अपने साथी के स्वभाव, उसकी आदतों और जरूरतों को भी समझने की कोशिश करें। साथ ही यह भी मानकर चलें कि दुनिया में कोई भी इंसान पूर्ण नहीं होता। कमियां आपमें भी हो सकती है और अपनी कमियों को स्वीकारना कोई हार नहीं है। बातचीत के दौरान अगर कहीं आपको लगता है कि गलती आपकी है तो उसे स्वीकारने में संकोच न करें।
इससे बेहतर परिणाम तो मिलेंगे ही, दोनों अपने को जीता हुआ महसूस करेंगे।

मतभेद सुलझाने के तरीके
अपनी भावनाओं को प्रकट करें। नम्र बनें, लेकिन दृढता व आत्मसम्मान कायम रखें। बिना उत्तेजित हुए खुद को सही साबित करने की कोशिश करें। शांत, उदार व समझदार बनें। गुस्से से कभी जीता नहीं जा सकता। अगर आप अपनी भावनाओं पर नियंत्रण और भाषा पर काबू रखें तो ऐसे विवाद सुलझाने में सफलता की संभावना बढ जाती है। दोषारोपण के खेल से बाहर निकलिए। दूसरे की गलतियां निकालने से केवल आग में घी डालने का काम होता है। इसलिए सामने वाले की पूरी बात सुनने व समझने की कोशिश करें। कई बार ऐसा करने पर आप समझ पाएंगी कि सामने वाला सही था और कहीं आपसे भी चूक हुई है।
एक-दूसरे की भावनाओं का आदर करें। दूसरे के प्रति आदर भाव एक सकारात्मक रवैया है, जो दुश्मन को भी अपना बना देता है। जब भी कभी मतभेदों के बीच आदर का भाव दिखता है, संबंधों के बीच तनाव कम होने लगता है। अपनी शिकायतों और इछाओं के बारे में स्पष्ट रहिए। भावनात्मक सहारे के लिए निरर्थक आरोप मत लगाइए। अपने विचारों की दिशा सही रखिए। अव्यावहारिक निर्णयों में कूदने की भूल न करें। पुराने घावों को भरने की कोशिश करिए न कि नए घावों को और बढाने का प्रयास करें। अनादर से दूरियां और बढती हैं। समझौते की ओर कदम बढाइए। यदि आपको लग रहा है कि आपके आसपास के लोग केवल आपकी गलतियों को ही इंगित कर रहे हैं या निष्पक्ष फैसला नहीं कर रहे तो आप किसी अन्य व्यक्ति को माध्यम बना अपनी बात रख सकती हैं।
ये संबंध दीर्घ और सुखद हों, यह हमेशा याद रखें। माफ करना सीखें- यह भूलने से भी कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है।

भावनाओं पर नियंत्रण
मैरिज कांउसलर डॉ.अनु गोयल कहती हैं कि मतभेद ऐसे अवरोधक हैं जो हर किसी के रास्ते में कभी न कभी किसी न किसी रूप में जरूर सामने आते हैं। यह महत्वपूर्ण है कि आप इनसे दूर रहने व इनका हल निकालने की कोशिश करें न कि इन्हें बढाने या आग में घी डालने का। ख्ाुशी का वातावरण बनाए रखने की कोशिश करें। ऐसे अपवाद कम ही देखने को मिलेंगे जब कोई मतभेदों के बीच शांति न चाहता हो। कई बार इनसे बचने के लिए माफ करना ही एकमात्र हल होता है। यही रास्ता है जो तमाम तकरारों और मतभेदों के बाद भी आपको खुशी प्रदान कर सकता है। पर यह सब तभी संभव है जब पहले आप अपने डर, असुरक्षा और कमजोरियों पर विजय प्राप्त कर चुकी हों। अन्यथा यह तेरा वो मेरा, यह गलत वह सही, तुम ऐसे मैं वैसी जैसे विचार मतभेदों को ही जन्म देते हैं। ऐसे में सबसे प्रभावी हल है, माफ करना या भूल जाना। यह सामान्य राय है कि आपको बहुत सी हिम्मत, विश्वास और प्रयास चाहिए अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखने के लिए। लेकिन ऐसा हर समय नहीं होता। यह ठीक है कि इमोशंस पर नियंत्रण के लिए आपको हिम्मत जुटानी पडती है और विशेष प्रयास भी करने पडते हैं, लेकिन इससे ज्यादा हिम्मत जुटानी पडती है इन सबको सहने के लिए। कडवाहट को भुलाने में ही समझदारी है। बेहतर संबंधों के लिए कोशिशें हमेशा जारी रखें। इस बीच अपने को समय देना न भूलें। मन शांत व सुखी होने पर ही आप सही दिशा में सोच पाएंगी।

दोस्ती या रिश्तेदारी किसका पलड़ा भारी

ईगो से दूर रखें दोस्ती को
मधुश्री, गायिका
पारिवारिक संबंध के नाम पर मेरे जीवन में अब सिर्फ मेरी मम्मी और बहनें हैं, जो मुझे जी-जान से ज्यादा प्यार करती हैं। मैंने गायन के क्षेत्र में अपना करियर बनाने के लिए वर्षो पहले अपना शहर कोलकाता छोड दिया था। उसके बाद से रिश्तेदारों से मेरा संपर्क टूट सा गया। इसलिए मेरी जिंदगी में शुरू से ही दोस्तों की बहुत खास जगह रही है। मेरे स्कूल के दिनों की एक सहेली का नाम राखी है, उससे आज भी हमारी दोस्ती कायम है। इसी तरह मेरे कॉलेज के दिनों के दोस्त शुभ्रो से मेरी इतनी सच्ची दोस्ती है। आज भी जरूरत पडने पर हम एक-दूसरे की मदद को तैयार रहते हैं। मेरा मानना है कि दोस्ती ही एक ऐसा रिश्ता है, जो सामाजिक बंधनों की सभी सीमाओं से परे है। अपने दोस्तों से मेरा बेहद बेतकल्लुफी का रिश्ता है। कभी-कभी हमारे बीच लडाई भी हो जाती है। लेकिन थोडी ही देर के भीतर हम ऐसे हंसने-बोलने लगते हैं जैसे हमारे बीच कभी कोई झगडा हुआ ही नहीं। मेरा मानना है कि दोस्ती में ईगो का टकराव नहीं होना चाहिए। अगर मेरा कोई खास दोस्त मुझसे नाराज होता है तो मैं इस बात का इंतजार नहीं करती कि पहले वह सॉरी बोले। जैसे ही मुझे इस बात का एहसास होता है कि मुझसे गलती हुई है, तो मैं तुरंत सॉरी बोल देती हूं।

जरूरी है विचारों का मिलना
शिखा शर्मा, डायटीशियन
मेरे लिए यह बात ज्यादा महत्वपूर्ण है कि कोई व्यक्ति कैसा है? चाहे वह दोस्त हो या रिश्तेदार, इससे मुझे कोई फर्क नहीं पडता। जिससे मेरे विचार मिलते हों, उससे बातें करना मुझे बहुत अच्छा लगता है। मेरी एक खास सहेली है रेवा चोपडा, जो नर्सरी से बारहवीं तक मेरे साथ पढी है। अब वह साइंटिस्ट बन चुकी है और अमेरिका में रहती है, लेकिन उससे आज भी मेरी दोस्ती कायम है। यह बात सच है कि रिश्तेदारों की तुलना में दोस्त हमारे दिल के ज्यादा करीब होते हैं, क्योंकि दोस्ती में हम सहज होते हैं और रिश्तेदारों की तरह दोस्त हर बात पर शिकायत नहीं करते। अगर किसी से मेरी सच्ची दोस्ती है तो वर्षो बाद भी हम पहले जैसी गर्मजोशी से मिलते हैं। लेकिन रिश्तेदारी निभाने के लिए काफी मेहनत करनी पडती है। चाहे वह मेरा रिश्तेदार या दोस्त कोई भी हो, मतभेद होने पर अगर मुझे अपनी गलती महसूस होती है तो मैं बिना देर किए माफी मांग लेती हूं। अकसर लोग अपने करीबी संबंधों को गंभीरता से नहीं लेते। मैं इसे बहुत गलत मानती हूं किजो लोग हमेशा हमारे साथ रहते हैं, उन्हें हम सॉरी, थैंक्यू बोलने या उनके किसी अच्छे काम की प्रशंसा करने की जरूरत नहीं समझते। जबकि इन छोटे-छोटे शब्दों से रिश्ते और भी प्रगाढ हो जाते हैं।

बहुत खास जगह है दोस्तों की
मैत्रेयी पुष्पा, साहित्यकार
मेरे लिए तो दोस्त ही सब कुछ हैं। मुझे अपने दोस्त इसलिए अच्छे लगते हैं क्योंकि दोस्त हम अपनी मर्जी से चुनते हैं, जबकि रिश्तेदार हमारे लिए पहले से ही तय होते हैं, उन्हें बदल पाना संभव नहीं है। रिश्तेदारी में अगर कोई व्यक्ति हमें नापसंद हो तब भी मजबूरी में उससे संबंध निभाना ही पडता है। जबकि दोस्ती में ऐसी कोई मजबूरी नहीं होती। हम अपने दिल की जो बातें माता-पिता या भाई-बहनों से नहीं कह पाते वे सारी बातें दोस्तों से कहते हैं। जहां तक मेरे दोस्तों का सवाल है तो बचपन से अब तक कई लोगों से मेरी बहुत अच्छी दोस्ती हुई और आज भी पुरानी सहेलियों से संपर्क बना हुआ है। मेरी बचपन की सहेली कांति भोपाल में रहती है। आज भी जब मैं भोपाल जाती हूं तो उससे जरूर मिलती हूं। निर्मला राजे मेरे कॉलेज के दिनों की घनिष्ठ सहेली हैं, जिनसे अब भी मिलना-जुलना होता रहता है। इसके अलावा साहित्यिक जगत में राजेंद्र यादव मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं, जिन्होंने हमेशा मेरा मार्गदर्शन किया है। हालांकि भारतीय समाज में आज भी स्त्री और पुरुष की मित्रता को लोग शक की निगाहों से देखते हैं, लेकिन मुझे इन बातों से कोई फर्क नहीं पडता। मेरा मानना है कि संकट की घडी में दोस्त ही आपके काम आते हैं। रिश्तेदार और जाति-बिरादरी के लोग मदद करने के बजाय अकसर मुश्किलें बढा देते हैं।

दोनों की है अहमियत
अंशु पाठक, इंटीरियर डिजाइनर
मेरा मानना है कि किसी भी इंसान के सामाजिक जीवन में रिश्तेदारों और दोस्तों की समान अहमियत होती है। दोनों में से किसी को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। मुझे ऐसा लगता है कि स्त्रियों के जीवन में रिश्तेदारों का स्थान ज्यादा महत्वपूर्ण होता है क्योंकि किसी लडकी की शादी एक व्यक्ति से नहीं, बल्कि उसके पूरे परिवार से होती है। इसलिए शादी के बाद पति के रिश्तेदारों से बेहतर संबंध बनाए रखने की जिम्मेदारी पत्नी की ही मानी जाती है। हालांकि मुझे ऐसा लगता है कि दोस्ती की तुलना में रिश्तेदारी निभाना ज्यादा मुश्किल है, क्योंकि रिश्तेदारी में अपेक्षाएं अधिक होती हैं। इसके अलावा रिश्तेदार दूसरों से आपकी बुराइयां करने से भी बाज नहीं आते। फिर हमें सामाजिक संबंधों को बेहतर बनाने के लिए संतुलन बनाकर चलना पडता है। आज की दिनचर्या इतनी व्यस्त है कि लोगों के पास एक-दूसरे से मिलने-जुलने का समय नहीं होता। लेकिन ई मेल और एसएमएस जैसी आधुनिक तकनीकों के कारण अब समय के अभाव में भी दूर बैठे दोस्तों और रिश्तेदारों से संपर्क कायम रखना आसान हो गया है।

गहरा होता है खून का रिश्ता
रानी खानम, कथक नृत्यांगना
वैसे, तो हर संबंध की अपनी अलग गरिमा और अहमियत होती है। हमारे लिए दोस्त और रिश्तेदार दोनों ही जरूरी हैं। लेकिन मुझे ऐसा महसूस होता है कि खून का रिश्ता बहुत गहरा होता है। कई बार रिश्तेदार भी बहुत अच्छे दोस्त साबित होते हैं। रिश्तेदार हमारे पारिवारिक जीवन से संबंधित होते हैं। भले ही उनके साथ लंबे अरसे से हमारा मिलना-जुलना न हो, फिर भी जब कभी उनसे हमारी मुलाकात होती है तो हम उनके साथ अलग ही तरह का जुडाव महसूस करते हैं। उनसे जुडी सारी पुरानी यादें फिर से ताजा हो उठती हैं। मेरा मानना है कि चाहे दोस्ती हो या रिश्तेदारी, किसी भी इंसान को अपने संबंधों का निर्वाह बहुत ईमानदारी से करना चाहिए। जिंदगी में दोनों रिश्ते होने बहुत जरूरी हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो रिश्तेदारों के बिना अपना पूरा जीवन गुजार देते हैं लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम होता कि वह जीवन की ढेर सारी खुशियों से वंचित रह गए। दोस्तों की भी हमारी जिंदगी में खास जगह होती है क्योंकि उनके साथ हमारा बेहद बेतकल्लुफी भरा रिश्ता होता है। जहां तक मेरी जिंदगी का सवाल है तो मेरी दोनों बडी बहनों शमशाद और शहनाज से मेरा बेहद दोस्ताना रिश्ता है और हर जरूरत पर वे हमेशा मेरी मदद के लिए हाजिर होती हैं।

08 मई 2011

कैसे बढ़ाए मित्रता

लोगों को जानें
सबसे पहले लागों को जाने। नए लोगों को पहचानें। उनका स्वभाव कैसा है, क्या पसंद है, क्या नहीं। उनके विचार आपसे कितने मिलते हैं, यह सब जानें। बाहर कितने लोग ऐसे हैं, जो आपको जानते हैं, आपसे पहचान बढाना चाहते हैं और आपको पसंद करते हैं, यह जानें। वेबसाइट पर सोशल नेटवर्किंग जॉइन करें। सोशल एक्टिविटी या क्लब में जाएं। नए-नए लोगों से मिलें। उन्हें जानने की कोशिश करें। क्या पता उस भीड में कोई आपका दोस्त बन जाए। जो आपको समझ सके और जिसे आप समझ सकें।

अच्छे श्रोता बनें
कई बार बोलने से भला सुनना होता है। अच्छे संबंध बनाने के लिए अच्छा श्रोता होना जरूरी है। एक अच्छा श्रोता दूसरे के जीवन के बारे में गहराई से जान सकता है। दूसरों के जीवन में रुचि दिखा सकता है। कितनी बार ऐसा होता कि आप दूसरे की बात समझ पाते हैं? दूसरे की बात को ध्यान से सुनते हैं? दूसरे को सुनना, समझना और भावनाओं को महसूस करना कम ही लोग कर पाते हैं। अगर आप यह गुण विकसित कर लें तो आपसे अच्छे किसी के भी संबंध नहीं हो सकते। अगर आप दूसरे की बात ध्यान से सुनते हैं तो आप सच्चे मन से अपनी भावनाओं को उसके प्रति व्यक्त कर सकते हैं।

जो हैं वही नजर आएं
अगर आप दिखावा करते हैं, यानी जो आप नहींहै, वह बनने की कोशिश करेंगे तो कभी खुश नहीं रह पाएंगे। नए संबंध बनाने और पुराने संबंध से बाहर निकलने का सबसे बढिया फार्मूला है, जो आप हैं वही रहें। किसी के साथ छल या दिखावा न करें। जिस दिन आप खुद के बारे में सच-सच बताना सीख लेंगे उस दिन आप हर संबंध में सफल हो जाएंगे। क्या आप किसी मूवी को देखने के लिए इसलिए राजी होते हैं, क्योंकि आपका दोस्त उसे देखना चाहता है? या फिर वास्तव में आपको भी फिल्म देखने में रुचि है? कुछ काम दूसरों की खुशी के लिए भी करने चाहिए यह बात सच है, लेकिन खुद को सच साबित करना भी अहम है। अगर आपको मूवी देखना पसंद नहींतो यह बताने में हिचक न महसूस करें कि आप अपने दोस्त की पसंद के खातिर फिल्म देखने के लिए राजी हुए हैं।

जरूरी है आत्मविश्वास
पूरे आत्मविश्वास के साथ दूसरों के कॉम्पि्लमेंट को स्वीकारें और धन्यवाद दें। जब दूसरों से मिलें और बात करें तो आंख से आंख मिलाकर बात करें। इससे आपका आत्मविश्वास झलकता है।
साथ ही यह भी पता चलता है कि आपकी बातों में कितनी सच्चाई है। आप दूसरे की बात में कितनी रुचि ले रहे हैं। जो करना चाहते हैं, उसे आत्मविश्वास के साथ पूरा करें। यही बात दूसरे भी पसंद करते हैं। इस तरह आपके संबंधों का दायरा बढता जाएगा। जब दूसरे आपके बारे में जानने लगेंगे तो वे आप में रुचि भी लेंगे।

बिना सोचे-समझे रिश्ते न बनाएं
आप अकेलेपन से बोर हो चुके हैं? क्या आप बॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड बनाना चाहते हैं? या फिर आप किसी ऐसी गर्ल फ्रेंड के इंतजार में हैं, जिसे अपनी बाइक में पीछे बैठाना चाहते हैं? खुद से पूछें कि आप किसी से संबंध या रिश्ते क्यों बनाना चाहते हैं? उस रिश्ते में क्या खोजना चाहते हैं? उस रिश्ते से क्या हासिल करना चाहते हैं? क्या आप संबंध बनाने के लिए तैयार हैं? इन बातों पर विचार करने के बाद ही किसी से संबंध जोडने में ही समझदारी है। आप अकेले हैं और बस दोस्ती या संबंध बनाना चाहते हैं, इस चक्कर में बिना सोचे-समझे संबंध न बनाएं।

नई जगह खोजें
नए लोगों से मिलने के लिए नई जगह खोजें। शॉपिंग मॉल, म्यूजियम, बुक क्लब, हेल्थ क्लब या जिम जाएं। सोशल क्लब जॉइन करें, जहां आप दूसरों को जान सके मिल सकें और उनके शौक को जान सकें। किसी आमंत्रण को टालें नहीं जरूर जाएं। सामाजिक दायरा बढाने से नए-नए लोगों से परिचय होगा और आपकी मित्रता भी बढेगी। योग क्लासेज जाएं, वहां लोगों से मिलें-जुलें।

अच्छे दिखें, अच्छा महसूस करें
सौंदर्य हर किसी को आकर्षित करता है। इसलिए खुद से प्यार करें और अच्छा महसूस करें। अच्छे और स्मार्ट बनने की कोशिश करें। आपको स्वत: ही खुशी महसूस होगी। अगर आपका वजन अधिक है तो उसे संतुलित करने की कोशिश करें। अपने चेहरे पर सूट करने वाला नया हेयरकट लें। 

पार्लर जाएं और ग्रूमिंग क्लासेज लें। कपडों का अच्छा कलेक्शन पसंद करें और जो आप पर अच्छा लगे पहनें। एक कंप्लीट मेकओवर कराएं। अच्छी चीज से सभी लोग प्रभावित होते हैं। खुद में अच्छा महसूस करने पर आपमें आत्मविश्वास भी झलकने लगेगा। मदर टेरेसा ने ठीक ही कहा था कि एक-दूसरे के लिए मुस्कराएं। अपनी पत्नी के लिए मुस्कराएं, अपने पति के लिए मुस्कराएं, अपने बच्चे के लिए मुस्कराएं। यह न देखें कि वह कौन है, बस मुस्कुराती रहें, फिर देखें कि आपके चाहने वालों की कतार खडी जाएगी। दूसरों से बहुत अपेक्षाएं न रखें, बस खुद से कोइ गलती न होने पाए, इस बात का पूरा खयाल रखें।

छल, कपट के बिना आप दूसरों की मदद करें, सम्मान करें और मुस्कराएं, आपके संबंध प्रगाढ होते जाएंगे।

07 मई 2011

जीवन की सुख-समृद्धी में भवन वास्तु व्यवस्था का महत्व

देवताओं के शिल्पी भगवान् विश्वकर्मा के अनुसार वास्तु-शास्त्र का ज्ञान मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के लिये सहायक होता है अर्थात रिद्धि-सिद्धि का वास्तु शास्त्र से अंतरंग संबंध है। भूमि क्रय से लेकर गृह प्रवेश तक हमें वास्तु के नियमों का पालन करना चाहिए। कई बार हमें यह सुनने को मिलता है कि अमुक मकान बहुत अपशकुनी है। यदि हम उनकी वास्तु व्यवस्था भूमिक्रय एवं गृह प्रवेश के समय का अधयन्न करें तो अवश्य ही हमें कहीं न कहीं दोष प्रकाश में आयेंगे। कुछ लोग वास्तु को केवल भवन तकनीक का नाम देते हैं किन्तु मेरा मानना है कि वास्तु एक धार्मिक अनुष्ठान है। आर्थिक रूप से आपको सम्पन्नता आपके कर्म, भाग्य के अतिरिक्त आपके भूखण्ड/भवन पर भी निर्भर करती है। इस हेतु वास्तु से सम्बंधित कुछ ख़ास नियमों को निम्न प्रकार से अंकित किया जा रहा है:-

भूमि चयन
आपकी जन्मतिथि एवं जन्म कुण्डली पर स्थित ग्रहों के अनुरूप ही दिशा विशेष मुखी भूखण्ड का चयन करना चाहिए। भूखण्ड आयताकार अथवा वर्गाकार होना चाहिए। विषमबाहु भूखण्ड का चयन नहीं करना चाहिए। किन्तु यदि भूखण्ड का उत्तर-पूर्वी कोना बढ़ा हुआ हैं तो ऐसे भूखण्ड को शुभ माना जाता है। यदि भूखण्ड का केंद्र स्थल धंसा हुआ है, तो ऐसे भूखण्ड चयन नहीं करना चाहिए।

भूमि क्रय एवं शिलान्यास
भूमि का क्रय एवं शिलान्यास शुभ मुहूर्त में किसी विद्वान् ज्योतिषी से सलाह मशविरा करने के उपरान्त करना चाहिए।

निर्माण संबंधी नियम
1.   पूर्वी तथा उत्तरी भाग में पश्चिम तथा दक्षिणी भाग की उपेक्षा अधिक खाली रखें एवं पूर्वी तथा उत्तरी भाग का तल पश्चिमी एवं दक्षिणी भाग की तुलना में नीचा होना चाहिए।

2.   यदि पूर्वी भाग में चबूतरा अथवा बरामदा बनवाना हो तो बरामदे का तल एवं छत नीची होना चाहिए।

3.   पूर्वी भाग में कूड़ा-करकट, पत्थर एवं मिट्टी के ढेर, अनुपयोगी सामान का संग्रह कदापि नहीं करें। पूर्व मुखी भवन में पूर्वी भाग की चाहरदीवारी अन्य भागों की उपेक्षा नीची होनी चाहिए विशेषतः पश्चिमी भाग की तुलना में।

4.   उत्तर मुखी भवन में चाहरदीवारी का निर्माण गृह निर्माण पूर्व होने के पश्चात करवाना चाहिए।

5.   यदि उत्तरी भाग में बरामदा बनवाना हो तो बरामदे की छत एवं फर्श निम्न होनी चाहिए। भूखण्ड/भवन के उत्तरी भाग में अनुपयोगी एवं भारी सामान एकत्र नहीं करें।

6.   पश्चिमी भाग में चबूतरे/बरामदें का तल नीचा नहीं होना चाहिए। पश्चिमी भाग में कूड़ा एवं अनुपयोगी सामान का संग्रह कर सकते हैं।

7.   दक्षिणी भाग में कुआं होने पर अर्थ हानि एवं दुर्घटना संभावित है। दक्षिणी भाग के कमरे यदि अन्य भागों की उपेक्षा ऊंचे बनवाये जावें तो सत्परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। किन्तु दक्षिणी भाग के निर्मित स्थल एवं खाली स्थल का तल अन्य भागों की उपेक्षा नीचा नहीं होना चाहिए। भूमिगत जलस्त्रोत उत्तर-पूर्वी भाग में होना चाहिए किन्तु इसका ध्यान रखें कि यह उत्तर-पूर्वी भाग के दक्षिणी-पश्चिमी भाग से मिलाने वाले रेखा पर नहीं हो।

8.   भवन एवं भूखण्ड का उत्तर-पूर्वी भाग दोषरहित रहना चैये। यदि उत्तर-पूर्वी भाग अग्रेत हो एवं अन्य कोई वास्तु दोष उपस्थित नहीं हो तो यह माना जाता है कि उस भवन के निवासी धन के अभाव में कष्ट नहीं उठाएंगे, साथ ही उनकी संतान मेधावी हो।

9.   यदि भूखण्ड के उत्तर-पूर्वी भाग से सताते हुए तालाब, नहर अथवा कुआं हो तो इसे शुभ संकेत माना जाता है। भूखण्ड का उत्तर-पूर्वी भाग समस्त भागों की उपेक्षा नीचा होना चाहिए।

10.   यदि उत्तर-पूर्वी भाग के उत्तरी भाग में मार्ग प्रहार हो तो यह संकेत माना जाता है।

11.   वर्षा का जल यदि भूखण्ड के उत्तरी-पूर्वी भाग से निकलता हो तो यह शुभ लक्षण माना जाता है।

12.   उत्तरी-पूर्वी भाग में शौचालय का निर्माण कदापि नहीं करें न ही सैप्टिक टैंक का निर्माण करावें।

13.   यदि आपका भवन दक्षिण-पूर्व मुखी है तो निम्न बातों का ध्यान रखें।

(A)  दक्षिण-पूर्वी भाग अग्रेत नहीं होना चाहिए।
(B)  उत्तरी भाग में खाली स्थल छोड़ना चाहिए किन्तु यह खाली स्थल दक्षिणी भाग में छोड़े गए खाली स्थल से अधिक होना चाहिए। इसी प्रकार पूर्व में पश्चिम की उपेक्षा अधिक खाली स्थल होना चाहिए।
(C)  चाहरदीवारी का फाटक दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम अथवा पूर्व, दक्षिण-पूर्व में नहीं रखें।
(D)  जहाँ तक सम्भव हो उत्तर पूर्वी दीवार को हद बनाकर निर्माण नहीं करवाएं। उत्तर एवं पूर्वी भाग दक्षिण एवं पश्चिम भाग की तुलना में ऊंचा भी नहीं होना चाहिए।

14.   भूखण्ड एवं भवन की दक्षिण-पश्चमी भाग अन्य समस्त भागों की तुलना में ऊंचा होना चाहिए।

15.   दक्षिण-पश्चिम भाग अग्रेत नहीं होना चाहिए।

16.   उत्तर-पूर्वी भाग में सीढियां होने पर आर्थिक हानि संभावित है। सीढ़ियों का निर्माण दक्षिण, पश्चिम अथवा दक्षिण-पश्चिम भाग में करवाना चाहिए।

17.   रसोईघर दक्षिण-पूर्वी भाग में होना चाहिए। किन्तु उत्तर-पूर्वी, दक्षिण-पश्चिमी एवं दक्षिणी भाग में निर्माण नहीं करवाएं।

18.   भवन के मुख्य प्रवेश द्वार पर शुभ मुहूर्त में गणपति की स्थापना करें किन्तु गणपति का मुंह दक्षिण दिशा की ओर नहीं होना चाहिए।

19.   केंद्र स्थल पर किसी दीवार/खम्बे का निर्माण नहीं करें।

03 मई 2011

अपनाएं सकारात्मक दृष्टिकोण


जीवन में घटने वाली किसी भी घटना या परिस्थिति का अपना कोई स्वतंत्र मूल्य नहीं होताघटनाओं या परिस्थितियों के जिस दृष्टिकोण से हम आत्मसात करते हैं, वही उसका मूल्य हो जाता है। 

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म्पूर्ण व्यक्तित्व विकास के लिये सकारात्मक दृष्टिकोण का होना बहुत जरूरी है। लोग अक्सर अपने दृष्टिकोण से ही अपना मूल्यांकन, दूसरों के आचार-व्यवहार और विचारों के अच्छे-बुरे होने का निर्णय लेते हैं। जीवन में लोग उन्हीं चीजों को महत्व देते हैं, जिन्हें वह स्वयं महत्वपूर्ण मानते हैं अथवा जिस क्षेत्र में उनकी योग्यता अच्छी होती है, उसी क्षेत्र को वे अच्छा मानते हैं।

दृष्टि और दृष्टिकोण का अंतर
इस सन्दर्भ में आगे चर्चा करने से पहले हमें दृष्टि और दृष्टिकोण का अंतर समझना होगा। आपकी दृष्टी जहाँ तक जाती है, वह आपका दृष्टिकोण नहीं है वह तो आपका सिर्फ देखना होता है। पर उसी चीज को आप किस नजरिये से देखते हैं वह आपका दृष्टिकोण होता है। यदि आप अपने किसी कार्य को करने से पहले ही सफल होते हुए देखते हैं तो वह आपका सकारात्मक दृष्टिकोण होगा, वहीं अगर आप अपने किसी कार्य को करने से पहले ही असफल होते हुए देखते हैं या सोचते हैं तो वह आपका नकारात्मक दृष्टिकोण होगा। कहने का तात्पर्य यह है कि जैसा आप सोचने व देखने का नजरिया रखते हैं वह थीं वैसा ही आपके साथ घटित होता है। दरअसल आपकी सोच ही आपकी आतंरिक शक्ति बन जाती है। अच्छी सोच जहाँ सफलता दिलाने के लिये मजबूत आत्मबल प्रदान करती है, वहीं गलत सोच आपका आत्मबल कमजोर करती है। दरअसल आपका सकारात्मक दृष्टिकोण आपको वह तस्वीर दिखाता है, जिसे आप अपनी नज़रों से नहीं देख पाते।

स्वयं पर भरोसा जरूरी
दरअसल महत्वपूर्ण बात यह है कि आपका दृष्टिकोण आपके स्व-विश्वास से बनता है। यदि आपको स्वयं पर भरोसा है, तो आपका दृष्टिकोण भी सकारात्मक होगा। ऐसे में आप जो भी योजना बनाएंगे, उसके एवज में आप अपने विश्वास के बल पर उस योजना को कामयाब होते पहले ही देख लेते हैं।

भविष्य की प्लानिंग करें
आज रिलायंस पूरी दुनिया में किसी परिचय की मोहताज नहीं है। दूसरी तरफ कुछ लोग भविष्य के विषय में सोचना बेकार का काम समझते हैं। दरअसल उनका अपना कोई दृष्टिकोण नहीं होता, भविष्य की कोई प्लानिंग नहीं होती। उस पर तुर्रा यह कि 'हम आज में जी रहे हैं,' आज जीओ, आज खाओ-पीओ, मौज करो। कल की जब कोई बात होती तब देखेंगे। उनकी यही सोच उन्हें असफलता की ओर ले जाती है। ऐसे लोग जीवन में कभी कुछ नहीं बन पाते। वे कुँए के मेंढक की भांति 'आज' नामक कुँए में डुबकियां मारते रहते हैं और 'कल' नामक मीठे पानी वाली गंगा का कभी आनंद नहीं ले पाते। कडवा सच यह है कि वे जानते ही नहीं कि इस 'आज में 'कल' छिपा है। 'कल' जिसे वे 'आज' कहेंगे, वही उनका भविष्य है, लेकिन विचारों की व्यापकता और सकारात्मक दृष्टिकोण न होने के कारण वे लोग आगे नहीं बढ़ पाते।

इस प्रकार के लोगों का व्यक्तित्व भी प्रभावशाली नहीं बन पाता। नायक वाले गुण, दूसरों को चुम्बक की भांति अपनी ओर खींचने वाला, आकर्षित करने वाला आकर्षण उनमें पैदा ही नहीं हो पाता। दूसरों को सम्मोहित करने वाला आकर्षण कैसे पैदा हो, वे इस बट को जानते-समझने की जरूरत ही नहीं समझते।

सकारात्मक सोच रखें
जिस दिन आप अपने दृष्टिकोण को सकारात्मक बना लेंगे, उस दिन आप पाएंगे कि आपमें स्वतः कई प्रकार की असीम शक्तियों का विकास हो चुका है। आप पाएंगे कि आपका आत्मविश्वास पहले से कई गुना बढ़ चुका है। आपके चेहरे पर एक मनमोहक व प्रभावशाली चमक आ चुकी है। आपके माथे पर तेज आ गया है। आपकी बातों में वजन, चाल में अजब से शान और विश्वास आ चुका है। आप यह देखकर आश्चर्यचकित रह जाएंगे कि लोग खुद-ब-खुद आपसे आकर्षित होकर आपकी तरफ खींचे चले आ रहे हैं।

जीवन का वट वृक्ष विचार शक्ति पर ही निर्भर करता है। आप अपने बारे में जैसा सोचते हैं, वैसा ही बन पाते हैं। जहाँ कोई एक सकारात्मक विचार आपको सुख-समृद्धी के अथाह सागर तक ले जाता है, तो वही कोई नकारात्मक विचार आपको अन्धकार और गुमनामियों की खाई में धकेल देता है। साधू बनेंगे या शैतान, यह पाके विचार के अनुसार अपने चारों तरफ का वातावरण तैयार करते हैं। यदि आप अपने विचारों में सकारात्मकता ले आएं तो आप शैतान को साधू में बदल सकते हैं। इस तरह देखेंगे कि आपकी दुनिया ही बदल जाएगी।