19 जुलाई 2010
सूरज के साथ होड़ ( Competing with the sun )
ऐसे असंख्य उत्तम गुणों व शक्तियों के कारण हंसों के प्रधान को लोग राजहंस कहने लगे।
एक दिन राजहंस अपने दल के साथ सरोवर में विहार करके अपने निवास को लौट रहा था। मार्ग में वह काशी राज्य के ऊपर से होकर निकला। पक्षियों के उस विशाल दल को देखने पर ऐसा लगता था, मानो सारे काशी राज्य पर सोने का वितान बिछा दिया गया हो।
काशी के राजा ने बड़े आश्चर्य से उस दल की ओर देखा। उन सभी पक्षियों में तारों के बीच चन्द्रमा के समान शोभायमान राजहंस को देखकर राजा जैसे उस पर मुग्ध हो गये।
काशी नरेश उस राजहंस के राजसी ठाट, तेज आदि राजोचित लक्षणों को देख बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने सुन्दर फूल मालाएँ और पुजापा मँगवा कर राजहंस का अभिनन्दन किया।
राजहंस ने राजा का यह अपूर्व आतिथ्य बड़े ही स्नेहपूर्वक स्वीकार किया और सपरिवार कुछ दिन वहीं बिताकर अपने निवास को लौट गया।
उस दिन से राजहंस के प्रति काशी नरेश के मन में स्नेह बढ़ता गया। दिन रात वे उसी के बारे में सोचने लगे। वे पलक पांवड़े बिछाये राजहंस की प्रतीक्षा करते रहते कि न मालूम वह कब किस दिशा से उधर आ जाए।
एक दिन चित्रकूट पर्वत प्रदेश के हंसों में से दो बाल हंस राजहंस के पास आए और बोले, ‘‘राजन! हम दोनों कई दिनों से सूर्य के साथ होड़ लगाने की इच्छा कर रहे हैं।''
इस पर राजहंस ने समझाया- ‘‘अरे बच्चो! सूरज के साथ तुम्हारी दौड़ कैसी! कहाँ सूरज और कहाँ नन्हीं जान तुम! शायद तुम लोग नहीं जानते कि सूर्य की गति क्या है? तुम उन के साथ दौड़ नहीं सकते, इस दौड़ में प्राणों का खतरा भी हो सकता है! अज्ञानता वश तुम लोगों ने यह निर्णय कर लिया होगा। इसलिए तुम दोनों अपना यह कुविचार छोड़ दो।''
पर उन बालहंसों को हित की ये बातें अच्छी न लगीं। कुछ दिनों के बाद फिर उन बालहंसों ने राजहंस के पास आकर सूर्य के साथ उड़ने की अनुमति माँगी। इस बार भी राजहंस ने उन्हें मना कर दिया। फिर भी छोटे हंसों ने अपने विचार को नहीं त्यागा। कुछ दिनों के बाद तीसरी बार अनुमति माँगी। इस बार भी राजहंस ने स्वीकृति नहीं दी।
आखिर अपनी असमर्थता से अनजान हंस के वे दोनों बच्चे अपने नेता की स्वीकृति के बिना ही सूरज के साथ दौड़ लगाने के लिए युगन्धर पर्वत की चोटी पर पहुँचे। यह चोटी इतनी ऊँची थी, मानो आसमान से बातें कर रही हो।
इधर राजहंस ने अपने परिवार के सदस्यों की गिनती की तो पाया कि उन में दो हंसों की कमी है।
असली बात भॉंपने में राजहंस को देर न लगी। वह उनके लिए चिन्तित हो उठा। फिर सोचा, अब चिन्ता करने से क्या लाभ? किसी तरह से उन दो हंसों को पता लगाना है और उनकी रक्षा करनी ही होगी।
राजहंस शीघ्र ही युगन्धर पर्वत की चोटी पर पहुँचा और बालहंसों से आँख बचा कर एक जगह बैठ गया।
दूसरे दिन सूर्योदय होते ही बालहंस सूर्य के साथ उड़ने लगे।
राजहंस ने भी उन का अनुसरण किया।
उन बालहंसों में से छोटा हंस दोपहर तक उड़्रता रहा, फिर पंखों में जलन के कारण बेहोश हो गया। गिरते समय उसे राजहंस दिखाई पड़ा। वह निराश हो बोला, ‘‘राजन, मैं हार गया।''
इस पर राजहंस ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं, मैं तुम्हारी सहायता के लिए हूँ।'' इस प्रकार प्यार भरे शब्दों में समझाकर उसे अपने पंखों पर चढ़ा लिया और अपने निवास में अन्य सदस्यों के बीच छोड़ दिया।
इस के थोड़ी देर बात दूसरे बालहंस के पंखों में भी पीड़ा होने लगी, मानों उसे सुइयों से चुभोया जा रहा हो।
आ़खिर थककर वह भी बेहोश होने लगा।
उसने भी राजहंस को देख दीनतापूर्वक बचाने की प्रार्थना की। उसे भी राजहंस ने अपने पंखों पर बिठा कर चित्रकूट पर पहुँचा दिया।
अपने परिवार के दो पक्षियों को सूर्य से परास्त होते देख राजहंस को बहुत दुख हुआ। वह यह अपमान सहन नहीं कर पाया। इसलिए वह स्वयं सूरज के साथ होड़ लगाने चल पड़ा।
अपूर्व क्षिप्र गति रखने वाला राजहंस अपनी उड़ान प्रारंभ करने के कुछ ही देर बाद सूर्य बिम्ब से जा मिला और पलक मारते उसे भी पार करके और ऊपर उड़ता चला गया। उसने केवल सूर्य की शक्ति का अनुमान लगाना चाहा था अन्यथा उसे सूर्य से होड़ लगाने की आवश्यकता ही क्या थी।
राजहंस इसलिए थोड़ी देर तक अपनी इच्छानुसार चक्कर काट कर भूलोक पर उतर आया और काशीराज्य में पहुँचा।
राजहंस की प्रतीक्षा में व्याकुल काशी नरेश उसे देखते ही आनन्द विभोर हो उठे।
राजहंस को राजा ने अपने स्वर्ण-सिंहासन पर बिठाया तथा स्वर्ण थाल में खीर और स्वर्ण कलश में शीतल शरबत से उसका आतिथ्य किया। राजहंस ने राजा का आतिथ्य स्वीकार कर सूर्य के साथ उड़ने का सारा वृत्तांत विस्तार के साथ राजा को सुनाया।
सारा वृत्तांत सुनकर राजा राजहंस की अलौकिक शक्ति पर बहुत प्रस हुए। फिर उन्होंने राजहंस से अनुरोध किया, ‘‘हे पक्षी राज, सूर्य के साथ होड़्र लगाने से भी कहीं अधिक अपनी महान शक्ति और प्रज्ञा दिखाइए। उस दृश्य को देखने की कई दिनों से मेरी प्रबल इच्छा है।''
राजहंस ने राजा को अपनी शक्ति का परिचय देने की स्वीकृति देते हुए कहा, ‘‘राजन, आप के राज्य में बिद्युत से भी अधिक द्रुतगति के साथ बाण चलानेवाले धनुर्धारी हों तो ऐसे चार व्यक्तियों को यहाँ बुलवाइए।'' राजा ने ऐसे चार धनुर्धारियों को बुलवाया।
राजा के उद्यान में एक चौकोर स्तम्भ था। राजहंस ने उस के चतुर्दिक चारों धनुर्धारियों को खड़ा कर दिया। इसके बाद वह अपने गले में एक घंटी बाँध कर स्तम्भ पर बैठ गया।
‘‘मेरा संकेत पाते ही तुम चारों अपने बाण छोड़ दो। क्षण भर में मैं तुम चारों के बाण लाकर तुम्हारे सामने रख दूँगा। पर तुम लोग मेरे कंठ में बंधी घण्टी की ध्वनि से ही मेरी गति का परिचय पा सकते हो। तुम लोग मुझ को उड़ते हुए देख न सकोगे।'' राजहंस ने उन धनुर्धारियों से कहा।
अपने वचन के अनुसार विद्युत की कौंध की अवधि के अन्दर राजहंस ने धनुर्धारियों के द्वारा छोड़े गये बाण लाकर उन के सामने रख दिये।
राजा तथा उनका परिवार विस्मय में आकर दातों तले अंगुली दबाने लगे।
इस पर राजहंस बोला, ‘‘राजन, आपने जो मेरी गति देखी है, यह मेरी निम्नतम गति है। इसके आधार पर आप अनुमान लगा सकते हैं कि मेरी वास्तविक गति क्या होगी?'' राजा बड़्रे ही आतुर होकर बोले- ‘‘हे पक्षीराज, तुम्हारे वेग का नमूना तो मैंने देख लिया लेकिन क्या इससे भी अधिक वेग रखनेवाला कोई है?'' इस पर राजहंस ने कहा, ‘‘क्यों नहीं? मुझ से भी अनन्त गुना अधिक वेग रखने वाली एक महाशक्ति है। वही काल नामक सर्प है। वह काल सर्प प्रति क्षण विश्र्व के जीवों को अवर्णनीय वेग के साथ नष्ट कर रहा है।''
ये बातें सुन कर राजा भय से कांप उठे।
तब राजहंस के रूप में बोधिसत्व ने काशी राजा को इस प्रकार तत्वोपदेश दिया, ‘‘राजन, जो लोग इस बात का स्मरण रखते हैं कि काल सर्प नामक कोई चीज़ है, उन्हें डरने की आवश्यकता नहीं है। आप जब तक नीति व धर्म के साथ शासन करते रहेंगे, तब तक आप को किसी का कोई भय न होगा। इसलिए आप विधिपूर्वक अपने कर्तव्य करते जाइए।''
बोधिसत्व के उपदेशानुसार काशी राजा ने धर्म मार्ग पर शासन करके अपार यश प्राप्त किया।
Posted by Udit bhargava at 7/19/2010 04:34:00 pm 1 comments
विल्हण-रतिलेखा ( Willhon - Arathilekha )
चालुक्य सम्राट विक्रमादित्य के राजकवि विल्हण का उस समय के कवियों, विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ स्थान था। उनका कहना था कि इस संसार में केवल एक ही ऐसा रस है, जो लोहे के आदमी को भी मोम बना देता है और वह हैं 'प्रेम रस'।
राजकवि विल्हण राजा के विश्वासपात्र थे। इसलिए राजा ने राजकुमारी रतिलेखा की शिक्षा-दीक्षा की सारी जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी। किंतु विल्हण अति सुंदरी रतिलेखा को काव्य पढ़ाते-पढ़ाते प्रेम शास्त्र पढ़ाने लगे और एक दिन जब रतिलेखा और विल्हण गंधर्व विवाह करके गंधर्व क्रीड़ा के लिए तैयार थे, तभी राजा ने उन्हें देख लिया और राजा ने तुरंत विल्हण को फाँसी की सज़ा दे दी।
फाँसी का तख्त नर-मुण्डों की भूमि पर ख़ड़ा प्रतीत हो रहा था। एक तरफ राजा ऊँचे सिंहासन पर विराजमान थे। बधिकों ने विल्हण से कहा, 'अंतिम बेला आ पहुँची है, अपने इष्ट का स्मरण करो।' राजकवि ने उस समय एक श्लोक पढ़ा जिसका अर्थ था- ''जिसने जीवन के सुखों का संपूर्ण मर्म समझने में बराबर का योग दिया, जिसने वाणी को कोमल शब्द उच्चारण करने की सामर्थ्य दी, जिसने मृत्युलोक में ही स्वर्ग की कल्पना को साकार दिया, उसी तरह रतिलेखा का स्मरण विल्हण करता है- विल्हण के लिए वही चरम आनंद की जननी है।''
फिर वही श्लोक सहस्त्रों मुखों से बार-बार मुखरित होने लगा। रतिलेखा राजा के चरणों पर गिरकर विलाप करने लगी, 'हे राजन, विल्हण के साथ ही राज्य की श्री, मुषमा, सुशीलता सबका अंत हो जाएगा। जीवन दासता से कलंकित होगा, रसराज का आदर खत्म हो जाएगा, जन-जन कुमार्गगामी हो जाएँगे। विल्हण को क्षमा करो, नहीं तो उनकी चिता पर गंधर्व विवाह से उनकी पत्नी बन चुकी रतिलेखा भी जीवित ही भस्म हो जाएगी।
फिर तो राजा को जनता और रतिलेखा के सामने झुकना पड़ा और उन्होंने विल्हण को अभयदान देकर दोनों के प्रेम व वैवाहिक संबंधों को स्वीकार किया। यहीं नहीं, इसके बाद राजा ने विल्हण को 'महाकवि' की उपाधि से भी सम्मानित किया।
पट्ट हाथी ( Elephant Board )
जंगल में एक हथिनी रहा करती थी। एक दिन उसके पैर में एक चैला फंस गया जिस से उसका पैर सूझकर दर्द करने लगा। बड़ी कोशिश करके भी वह उस चैले को पैर से निकाल न पाई। इस बीच उसे पेड़ काटने की आवाज़ सुनाई दी। हथिनी लंगड़ाते उनके नज़दीक़ पहुँची।
हथिनी को देखते ही बढ़इयों ने भांप लिया कि वह किसी पीड़ा से परेशान है। इस बीच हथिनी आकर बढ़इयों के सामने लेट गई। बढ़इयों ने छेनी से हथिनी के पैर का चैला निकाला और उसके घाव पर मरहम पट्टी की।
थोड़े ही दिनों में हथिनी चलने-फिरने लायक़ हो गई। इस उपकार के बदले में हथिनी बढ़इयों की मदद करने लगी। वह गिरे हुए पेड़ों को उठाकर ला देती। काटी गई तख़्तियों और पाटियों को नदी के पास नावों तक पहुँचा देती। इस वजह से बढ़इयों और हथिनी के बीच दोस्ती बढ़ती गई। पाँच सौ बढ़ई अपने खाने का थोड़ा हिस्सा हथिनी को खिलाने लगे।
कई दिन बीत गये। हथिनी का एक बच्चा हुआ। वह ऐरावत जाति का था और उसका रंग सफ़ेद था। हथिनी जब बूढ़ी हो गई और उसमें चलने-फिरने की ताक़त न रही, तब वह अपने बच्चे को बढ़इयों के हाथ सौंपकर जंगल में चली गई। इसके बाद सफ़ेद हाथी बढ़इयों की मदद करने लगा। उनके हाथ का खाना खा लेता और उनके बच्चों को अपनी पीठ पर बिठाकर जंगल में घुमा देता। नदी में उन्हें नहलाता और ख़ुशी के साथ अपने दिन गुजार देता था। बढ़ई लोग हाथी को अपने बच्चे के बराबर प्यार करते थे। हाथी उनके परिवार के सदस्य की तरह उनके लिए उपयोगी बनने की कोशिश करता था।
राजा ब्रह्मदत्त को जब यह ख़बर मिली कि जंगल में एक उत्तम नस्ल का सफ़ेद हाथी है, तब वे उसे पकड़ ले जाने के लिए सदल-बल जंगल में चले आये।
बढ़इयों ने सोचा कि राजा मकान बनाने की लकड़ी के वास्ते जंगल में आये हुए हैं। उन लोगों ने राजा को समझाया, ‘‘महाराजा, आप मेहनत उठाकर इस जंगल में क्यों आये? हमें ख़बर कर देते तो ख़ुद हम लकड़ी आपके महल में पहुँचा देते?''
‘‘मैं लकड़ी ले जाने के वास्ते नहीं आया हूँ; सफ़ेद हाथी को पकड़ ले जाने के वास्ते आया हूँ।'' राजा ने अपने दिल की बात बताई।
बढ़इयों को यह सुनकर बहुत दुख हुआ। लेकिन वे कर भी क्या सकते थे। आखिर यह राजा की इच्छा थी और राजा अपने राज्य में कुछ भी करने के लिए स्वतन्त्र था। उन्होंने यह भी सोचा कि राजा के पास हाथी अधिक सुख और शान के साथ रह सकेगा। इसीलिए हाथी के जाने का दुख होते हुए भी वे राजी हो गये।
‘‘तब तो आप हाथी को अपने साथ ले जाइये।'' बढ़इयों ने उत्तर दिया।
मगर बड़ी कोशिश के बावजूद हाथी टस से मस न हुआ। इस पर राजा का एक कर्मचारी असली बात ताड़ गया और बोला, ‘‘महाराज, यह एक विवेकशील जानवर है। आप अगर इस हाथी को अपने साथ ले जायेंगे तो इन बढ़इयों का भारी नुक़सान होगा। इसका मुआवजा देने पर ही हाथी यहाँ से निकल सकता है।''
राजा ने हाथी के चारों पैर और सूंड के पास एक एक लाख सोने के सिक्के रखकर बढ़इयों को बॉंटने का आदेश दिया। तिस पर भी हाथी वहाँ से नहीं हिला।
इसके बाद राजा ने बढ़इयों की औरतों और बच्चों को कपड़े दिये, तब जाकर हाथी राजा के पीछे चल पड़ा। इसके बाद राजा गाजे-बाजे के साथ हाथी को काशी नगर में ले गये। उसे राजसी अलंकारों से सजाया संवारा गया। फिर सारी गलियों में उसका जुलूस निकाला गया।
अंत में उसके वास्ते एक बढ़िया गज शाला बनाकर उसमें रखा गया। उसकी सेवा के लिए सैकड़ों नौकर-चाकर रखे गये। उसके भोजन का विशेष प्रबन्ध किया गया। वह हाथी राजा का पट्ट हाथी बना। उस पर सिवाय राजा के कोई सवार नहीं हो सकता था।
नगर में उस हाथी के आने के बाद काशी राज्य की सीमा और यश चारों तरफ़ फैलने लगा। उसके प्रभाव से बड़े-बड़े राजा भी काशी राजा से बुरी तरह हार जाते थे। राज्य में सुख-शान्ति और खुशहाली बढ़ने लगी। प्रजा में एक दूसरे के लिए प्रेम और सौहार्द बढ़ने लगा।
कुछ दिन बाद काशी की रानी गर्भवती हुई। उसके गर्भ में बोधिसत्व ने प्रवेश किया। रानी के प्रसव में एक हफ़्ता ही रह गया था; इस बीच काशी राजा का स्वर्गवास हो गया । यह मौक़ा देख कोसल देश के राजा ने काशी राज्य पर अचानक एक दिन हमला कर दिया । मंत्रियों ने आपस में सलाह-मशविरा किया और आख़िर कोसल राजा के पास यह संदेश भेजा, ‘‘आपने कायर की तरह धोखे से हमारे राज्य पर आक्रमण कर दिया है, जब कि सारा राज्य अपने राजा की मृत्यु पर शोक में डूबा हुआ है। यह नीचता है। एक अच्छे पड़ोसी राजा होने के नाते आप को हमारे साथ सम्वेदना और सहायता का हाथ बढ़ाना चाहिये था। खैर, जो भी हो, हमारी रानी का एक हफ़्ते के अन्दर प्रसव होनेवाला है, अगर महारानी ने एक बच्ची को जन्म दिया तो आप काशी राज्य पर बिना युद्ध और रक्तपात के कब्जा कर लीजिये । यदि रानी ने एक लड़के को जन्म दिया तो हम लोग आप के साथ युद्ध करेंगेऔर देश के लिए मर मिटेंगे और जीते जी शत्रुओं को सीमा के अन्दर आने नहीं देंगे।''
कोसल राजा ने उन्हें एक हफ़्ते की मोहलत दी। एक हफ़्ते के पूरा होते ही महारानी ने बोधिसत्व को जन्म दिया। काशी राजा की सेनाएँ कोसल सेना के साथ जूझ गईं। मगर उस युद्ध में कोसल का हाथ ऊँचा मालूम होने लगा। उस हालत में मंत्रियों ने महारानी के पास जाकर निवेदन किया, ‘‘महारानी जी, हमारे पट्ट हाथी का ल़ड़ाई के मैदान में प्रवेश करने पर ही हमारी विजय हो सकती है, लेकिन महाराजा के स्वर्गवास के दिन से लेकर पट्ट हाथी खाना-पीना व नींद को भी तज कर दुख में डूबा हुआ है। हमारी समझ में नहीं आ रहा है कि ऐसी हालत में क्या किया जाये।''
मंत्रियों के मुँह से ये बातें सुनते ही महारानी प्रसूती के कमरे में उठ बैठी, अपने शिशु को राजोचित पोशाक पहनाकर पट्ट हाथी के पास ले गई।
शिशु को उसके पैरों के सामने रखकर प्रणाम करके बोली, ‘‘गजराज, आप अपने मालिक के स्वर्गवास पर चिंता न कीजिए। देखिये, अब यही राजकुमार आपका मालिक है। लड़ाई के मैदान में इसके दुश्मनों का हाथ ऊँचा है। आप जाकर उन्हें हरा दीजिए। वरना इस राजकुमार को अपने पैरों के नीचे कुचलकर मार डालिये।'' रानी के मुँह से ये बातें निकलने की देर थी कि हाथी का दुख जाता रहा। उसने प्यार से राजकुमार को अपनी सूंड से ऊपर उठाया और अपने मस्तक पर बिठा लिया। फिर राजकुमार को रानी के हाथ में सौंप कर लड़ाई के मैदान की ओर चल पड़ा।
हाथी का रौद्र रूप और भयंकर गर्जन करते और अपनी ओर बढ़ते देख कोसल राज्य के सैनिकों का कलेजा कांप उठा। वे तितर-बितर होकर भागने लगे। किसी सैनिक को उसके सामने आने का साहस नहीं हुआ। जो भी उसके सामने आ जाता, उसे कुचलता-रौंदता, उछालता हुआ हाथी तूफान की तरह आगे बढ़ता गया और सीधे कोसल राजा के पास पहुँचा। उनको अपनी सूंड में लपेट कर ले आया और काशी के राजकुमार के पैरों के पास डाल दिया। कोसल राजा ने राजकुमार के चरण छूकर माफ़ी माँग ली। काशी राज्य के मंत्रियों ने उनको क्षमा कर वापस भेज दिया।
बोधिसत्व के सात साल की उम्र होने तक हाथी ने काशी राज्य की रक्षा की। इसके बाद बोधिसत्व गद्दी पर बैठे और उस हाथी को अपना पट्ट हाथी बनाकर बड़ी दक्षता के साथ शासन करने लगे।
रूहानी प्यार कभी खत्म नहीं होता ( Spiritual love would never end )
वो नजरें झुकाकर क्लासरूम की तरफ बढ़ रही है, उसने किताबें अपने सीने के साथ लगाई हुई हैं। जैसे कोई माँ अपने बच्चे को सीने से लगाकर चलती है। इतने में वो एक नौजवान लड़के के साथ टकरा जाती है और किताबें नीचे गिरती हैं, दोनों के मुँह में से एक ही अल्फाज सुनाई देता है सॉरी। बस इस दौरान दोनों की निगाहें एक दूसरे से टकराती हैं, और पहली ही नजर में प्यार हो जाता है। कुछ ऐसा ही दृश्य होता है हिन्दी फिल्मों में, बस जगह और हालात बदल दिए जाते हैं, किताबों की जगह कुछ और आ जाता है। मगर लड़का लड़की आपस में अचानक टकराते हैं और वहाँ से ही प्यार की ज्वाला भड़क उठती है। क्या इसे ही प्यार कहते हैं? मेरा जवाब तो नहीं है, औरों का क्या होगा पता नहीं।
पहली नजर में प्यार कभी हो ही नहीं सकता, वह तो एक आकर्षण है एक दूसरे के प्रति, जो प्यार की पहली सीढ़ी से भी कोसों दूर है। जैसे दोस्ती अचानक नहीं हो सकती, वैसे ही प्यार भी अचानक नहीं हो सकता। प्यार भी दोस्ती की भाँति होता है, पहले पहले अनजानी सी पहचान, फिर बातें और मुलाकातें। सिर्फ एक नए दोस्त के नाते, इस दौरान जो तुम दोनों को नजदीक लेकर आता है वह प्यार है। कुछ लोग सोचते हैं कि अगर मेरी शादी मेरे प्यार से हो जाए तो मेरा प्यार सफल, नहीं तो असफल। ये धारणा मेरी नजर से तो बिल्कुल गलत है, क्योंकि प्यार तो नि:स्वार्थ है, जबकि शरीर को पाना तो एक स्वार्थ है। इसका मतलब तो ये हुआ कि आज तक जो किया एक दूसरे के लिए वो सिर्फ उस शरीर तक पहुँचने की चाह थी, जो प्यार का ढोंग रचाए बिन पाया नहीं जा सकता था।
सच तो यह है कि प्यार तो रूहों का रिश्ता है, उसका जिस्म से कोई लेना देना ही नहीं, मजनूँ को किसी ने कहा था कि तेरी लैला तो रंग की काली है, तो मजनूँ का जवाब था कि तुम्हारी आँखें देखने वाली नहीं हैं। उसका कहना सही था, प्यार कभी सुंदरता देखकर हो ही नहीं सकता, अगर होता है तो वह केवल आकर्षण है, प्यार नहीं। माँ हमेशा अपने बच्चे से प्यार करती है, वो कितना भी बदसूरत क्यों न हो, क्योंकि माँ की आँखों में वह हमेशा ही दुनिया का सबसे खूबसूरत बच्चा होता है।
एक वो जिन्होंने प्यार को हमेशा रूह का रिश्ता बनाकर रखा, और जिस्मानी रिश्तों में उसको ढलने नहीं दिया, उनको आज भी वो प्यार याद आता है, उसकी जिन्दगी में आ रहे बदलाव उनको आज भी निहारते हैं। उसको कई सालों बाद फिर निहारना आज भी उनको अच्छा लगता है। रूहानी प्यार कभी खत्म नहीं होता। वो हमेशा हमारे साथ कदम दर कदम चलता है। वो दूर रहकर भी हमको ऊर्जावान बनाता है।
कुबेर का सरोवर ( Kubera's lake )
दोनों पुत्रों की पैदाइश के दो साल बाद रानी का देहांत हो गया। इस पर राजा ने दूसरा विवाह किया। कुछ समय बाद नई रानी ने भी एक पुत्र को जन्म दिया। यह ख़बर सुनते ही राजा बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने रानी से कहा, ‘‘रानी, इस शुभ अवसर पर तुम कोई वर मांग लो।''
‘‘यह वर मैं अपनी ज़रूरत के व़क्त मांग लूँगी।'' रानी ने जवाब दिया।
छोटी रानी के पुत्र का नाम आदित्य था। उसने राजोचित सारी विद्याएँ सीख लीं। जब आदित्य जवान हो गया, तब एक दिन रानी ने राजा से कहा, ‘‘महाराज, आपने आदित्य के जन्म के समय वर मांगने को कहा था, उसे अब मैं मांगती हूँ। आप आदित्य को युवराजा के रूप में अभिषेक कीजिए।''
यह सुनकर राजा निश्चेष्ट हो गये और थोड़ी देर सोचकर बोले, ‘‘मेरी पहली पत्नी के दो पुत्रों के होते हुए आदित्य को मैं युवराजा कैसे बना सकता हूँ? यह न्याय संगत नहीं है।''
मगर रानी को जब भी मौक़ा मिलता वह अपने पुत्र को युवराजा बनाने की इच्छा प्रकट कर राजा को सताने लगी। राजा ने भांप लिया कि रानी अपना हठ नहीं छोड़ेगी। उनके मन में यह संदेह भी पैदा हुआ कि रानी के द्वारा बड़े राजकुमारों की कोई हानि भी हो सकती है। इसलिए वे उन्हें बचाने का उपाय दिन-रात सोचने लगे।
राजा ने एक दिन अपने दोनों बड़े पुत्रों को बुलवाकर सारी बातें समझाईं और बोले, ‘‘तुम दोनों थोड़े समय के लिए नगर को छोड़कर कहीं और रह जाओ। मेरे बाद तुम्ही लोगों को यह राज्य प्राप्त होगा, इसलिए उस व़क्त लौटकर राज्य का भार संभाल सकते हो। तब तक तुम दोनों भूल से भी इस राज्य के अन्दर प्रवेश न करना।''
अपने पिता की इच्छा के अनुसार महाशासन और सोमदत्त नगर को छोड़कर जब राज्य की सीमा पर पहुँचे, तब उन लोगों ने देखा कि छोटा राजकुमार आदित्य भी उनके पीछे चला आ रहा है। तीनों मिलकर कुछ दिनों के बाद हिमालय के जंगलों में पहुँचे।
एक दिन वे तीनों अपनी यात्रा की थकान मिटाने के लिए एक पेड़ के नीचे बैठ गये। उस व़क्त महाशासन ने आदित्य से कहा, ‘‘मेरे छोटे भैया! उधर देखो, एक सरोवर दिखाई दे रहा है! तुम वहाँ जाकर अपनी प्यास बुझा लो और हमारे लिए कमल पत्रों वाले दोने में पानी ले आओ।''
आदित्य जाकर ज्यों ही सरोवर में उतरा, त्यों ही जल पिशाच उसे पकड़ कर जल के नीचे वाले अपने घर में ले गया। बड़ी देर तक आदित्य को न लौटते देख महाशासन चिंतित हुआ और इस बार महाशासन ने सोमदत्त को भेजा। उसको भी जल पिशाच ने पकड़ लिया।
थोड़ी देर तक इंतजार करने के बाद महाशासन अपने भाइयों को लौटते न देख खतरे की आशंका करके तलवार लेकर ख़ुद चल पड़ा। वह सरोवर में उतरे बिना किनारे पर खड़े हो पानी की ओर परख कर देख रहा था । इसे भांपकर जल पिशाच ने अंदाजा लगाया कि ये अपने भाइयों के जैसे जल्दबाजी में आकर जल में न उतरेंगे।
इसके बाद जल पिशाच एक बहेलिये का वेष धरकर महाशासन के पास आया और बोला, ‘‘खड़े खड़े देखते क्या हो? प्यास लगी है तो सरोवर में उतर कर प्यास क्यों नहीं बुझाते?''
यह सलाह पाकर महाशासन ने सोचा कि दाल में कुछ काला है, तब बोला, ‘‘तुम्हारा व्यवहार देखने पर मुझे शक होता है कि तुमने ही मेरे दोनों भाइयों को गायब कर डाला है।''
‘‘तुम तो विवेकशील मालूम होते हो। मैं सच्ची बात बता देता हूँ, ज्ञानी लोगों को छोड़ बाक़ी सभी लोगों को, जो इस सरोवर के पास आते हैं, पकड़ कर मैं बन्दी बनाता हूँ। यह तो कुबेर का आदेश है!'' जल पिशाच ने कहा।
‘‘इसका मतलब है कि तुम ज्ञानियों से उपदेश पाना चाहते हो! मैं तुम्हें ज्ञानोपदेश कर सकता हूँ! लेकिन थका हुआ हूँ।'' महाशासन ने कहा। झट जल पिशाच उसे पानी के तल में स्थित अपने निवास में ले गया। अतिथि सत्कार करने के बाद उसे उचित आसन पर बिठाया। वह ख़ुद उसके चरणों के पास बैठ गया।
महाशासन ने जो कुछ अपने गुरुओं से सीखा था, वह सारा परम ज्ञान जलपिशाच को सुनाया। दूसरे ही क्षण जलपिशाच बहेलिये का रूप त्यागकर अपने निज रूप में आकर बोला, ‘‘महात्मा, आप महान ज्ञानी हैं ! मैं आपके भाइयों में से एक को देना चाहता हूँ। दोनों में से आप किसको चाहते हैं?''
‘‘मैं आदित्य को चाहता हूँ।'' महाशासन ने कहा।
‘‘बड़े को छोड़ छोटे की मांग करना क्या धर्म संगत होगा।'' जलपिशाच ने पूछा।
‘‘इसमें अधर्म की बात क्या है? अपनी माँ की संतान में से मैं बचा हुआ हूँ, ऐसी हालत में मेरी सौतेली माँ के भी एक पुत्र तो होना चाहिए न? अपने भ्रातृ-प्रेम से प्रेरित होकर यह भोला आदित्य हमारे पास चला आया है। अगर हम दोनों बड़े भाई नगर को लौट जायें, तब लोग हमसे पूछें कि आदित्य कहाँ है? तब हमारा यह कहना कहाँ तक न्याय संगत होगा कि जलपिशाच ने उसे निगल डाला है?'' यों महाशासन ने जलपिशाच से उल्टा सवाल पूछा।
इस पर जलपिशाच ने महाशासन के चरणों में प्रणाम करके कहा, ‘‘आप ज़ैसे महान ज्ञानी को मैंने आज तक नहीं देखा है, मैं आपके दोनों छोटे भाइयों को मुक्त कर देता हूँ। आप लोग इस जंगल में मेरे अतिथि बनकर रहिए!''
इस पर महाशासन और उसके छोटे भाई जलपिशाच के अतिथि बनकर रह गये। थोड़े समय बाद उन्हें ख़बर मिली कि उनके पिता ब्रह्मदत्त का स्वर्गवास हो गया है। इस पर महाशासन अपने दोनों छोटे भाइयों तथा जलपिशाच को साथ ले काशी चले गये।
महाशासन का राज्याभिषेक हुआ। तब उसने सोमदत्त को अपने प्रतिनिधि के रूप में तथा आदित्य को सेनापति के पद पर नियुक्त किया। अपना उपकार करने वाले जलपिशाच के वास्ते एक सुंदर निवास का प्रबंध किया और उसकी सेवा के लिए नौकर नियुक्त किया।
रामायण - बालकाण्ड 1 ( Ramayana - Balkand 1 )
तब नारद ने, वाल्मीकि को श्रीराम की कथा सविस्तार सुनायी। नारद महामुनि के वहाँ से निकलते-निकलते स्नान का समय हो गया। उनके चले जाने के बाद वाल्मीकि अपने शिष्य भरद्वाज को लेकर तमसा नदी के तट पर गये।
वहॉं उन्होंने क्रौंच पक्षियों की एक जोडी देखी। वल्कल वस्त्र पहनकर पानी में उतरते हुए वे क्रौंच पक्षियों का आनंद व उत्साह देखते रह गये। इतने में एक भील ने पुरुष पक्षी पर अपना बाण चलाया। वह नीचे गिरकर छटपटाने लगा। मादा पक्षी आर्तनाद करने लगी। यह दृश्य देखकर वाल्मीकि के हृदय में उस पक्षी पर दया उमड़ आयी। उस किरात पर उन्हें बड़ा क्रोध आया। उनके मुँह से अनायास ही एक श्लोक निकल पड़ा, जिसमें उन्होंने कहा, "अरे ओ कठोर मानव, तुमने प्रेम में मग्न दो पक्षियों में से एक को मार डाला। जीवन भर तुम सुखी और शांत नहीं रहोगे।''
अपने मुँह से निकले श्र्लोक पर वाल्मीकि स्वयं विस्मित हुए। आश्रम लौटने के बाद भी उसी श्र्लोक के बारे में सोचते रहे।
इतने में ब्रह्मा उन्हें देखने आये। उन्हें देखते ही वाल्मीकि तुरंत उठ खडे हो गये और साष्टांग प्रणाम किया। फिर वे मौन खड़े रहे। तब ब्रह्मा ने कहा, "वाल्मीकि, मेरे अनुग्रह के कारण तुम कविता करने लगे हो। तुमने तो इसके पूर्व राम की कथा सुन ली है। उस कथा को महाकाव्य के रूप में रचो। जब तक यह पृथ्वी है, तब तक वह भी शाश्वत रहेगा। जब तक वह होगा, तुम्हारा संचार उत्तम लोकों में होता रहेगा।'' यों कहकर ब्रह्मा अदृश्य हो गये।
यों ब्रह्मा के प्रोत्साहन से प्रेरित होकर वाल्मीकि ने रामायण की रचना की, जिसे पढ़कर किसने आनंद नहीं लिया होगा।
वैवस्वत सूर्य का पुत्र था। इक्ष्वाकु वैवस्वत का पुत्र था। वैवस्वत ने सातवॉं मनु होकर शाश्वत कीर्ति कमायी। उनके तदुपरांत इक्ष्वाकु के संतान सूर्यवंशज कहलाये जाने लगे। इनमें से सगर भी एक था। वह छे चक्रवर्तियों में से एक था। स्वर्ग से गंगा को ले आनेवाले भगीरथ इसी सगर का पोता था। सूर्यवंश के राजाओं ने अयोध्या नगर को अपनी राजधानी बनाकर कोसल देश पर शासन किया। वैवस्वत मनु ने स्वयं अयोध्या का निर्माण किया।
शत्रुओं के लिए दुर्भेद्य अयोध्या पर सूर्यवंशी राजा दशरथ शासन करते थे । वे ऐश्वर्य में कुबेर से कम नहीं थे । वे महा पराक्रमी थे।
दृष्टि, जयंत, जिय, सिद्धार्थ, अर्थसाधक, अशोक, मंत्रपाल, सुमंत ये आठों दशरथ के मंत्री थे। वसिष्ठ महामुनि इनके कुलगुरु थे। वसिष्ठ व वामदेव उनके पुरोहित थे। गुप्तचरों के द्वारा उन्हें जानकारी मिलती रहती थी कि देश के किस कोने में क्या हो रहा है। अपने मंत्रियों की सहायता से दशरथ न्यायपूर्वक शासन चलाते थे। उनकी प्रजा हर तरह से सुखी थी। किसी पर कोई अन्याय नहीं करता था। सभी वर्णों के लोग अपने-अपने धर्म का पालन करते थे। इनके राज्य में कोई दीन-दुखी नहीं था।
दशरथ को किसी बात की कमी नहीं थी, किन्तु वे संतानहीन थे । इसी को लेकर वे बहुत चिंतित रहते थे। एक दिन उन्होंने सोचा कि अश्र्वमेध याग करके देवताओं को संतुष्ट करूँ और संतान पाऊँ। अपने मंत्रियों में से अग्रगण्य सुमंत के द्वारा उन्होंने वसिष्ठ, वासुदेव, सुयज्ञ, बाबालि आदि गुरुओं को तथा अन्य ब्राह्मण श्रेष्ठों को बुलवाया और उनकी सलाह माँगी। उन्हें अश्वमेध यज्ञ का विचार अच्छा लगा।
उन सबके चले जाने के बाद मंत्री सुमंत ने दशरथ से कहा, "महाराज, आपने जिस अश्वमेध यज्ञ की बात सोची है, वह नितांत उचित है। परंतु इस याग को संपादित करने की शक्ति व महिमा केवल ऋश्यशृंग में ही है। उनसे बढ़कर कोई और नहीं है। उनका वृत्तांत मुझसे सुनिये,'' फिर सुमंत ने यों उनकी कथा सुनायीः
अंगदेश का शासक रोमपाद दशरथ के मित्रों में से एक था। एक बार अंगदेश में भयंकर अकाल पड़ा। रोमपाद इस अकाल को लेकर चिंताग्रस्त हो गया। ब्राह्मणों को बुलवाकर अकाल के अंत का उपाय पूछा।
ब्राह्मणों ने कहा, "महाराज, ऋश्यशृंग, विभंडक मुनि का पुत्र है। जहाँ वह रहता है, वहाँ अकाल नहीं पड़ता। उसे अंगदेश बुलवाइये, अपनी पुत्री शांता से उसका विवाह रचाइये, उसे अंगदेश में ही स्थायी रूप से रहने का प्रबंध कीजिये तो अकाल मिट जायेगा और देश सुभिक्ष होगा।''
तब रोमपाद ने अपने पुरोहित और मंत्रियों को बुलवाया और उनसे कहा, "आप लोग जाइये और ऋश्यशृंग को यहाँ ले आइये।''
यह सुनते ही पुरोहित व मंत्री डर गये, क्योंकि ऋश्यशृंग अरण्य व तपस्या को छोड़कर कहीं निकलता नहीं था। किसी के बुलाने से जानेवालों में से नहीं था। क्रोधित होकर शाप देने की संभावना भी थी। उसे ले आना हो तो कोई मायामय उपाय ढूँढ़ना होगा। पुरोहित ने वह उपाय रोमपाद को यों सुनायाः
"महाराज, ऋश्यशृंग बचपन से ही लेकर अरण्य में ही रहा और वेदों का अध्ययन किया। तपस्या में ही अधिकतर मग्न रहता है। लेकिन उसे प्राकृतिक सौन्दर्य देखते हुए वन में घूमना अच्छा लगता है। वैसे वह बाहर कभी नहीं जाता लेकिन वन के फूलों, पशु-पक्षियों को देखते हुए वह कोसों दूर निकल जाता है। उसमें सांसारिक ज्ञान लेश मात्र भी नहीं है। उसे यह भी नहीं मालूम कि स्त्रियाँ कैसी होती हैं। हम चंद नर्तकियों को उसके पास भेजें तो शायद वह उनके प्रति आकर्षित होकर उनके साथ यहाँ चला आये।
रोमपाद ने इसके लिए अपनी सहमति दे दी। कुछ नर्तकियों को अच्छी तरह से अलंकृत करके उन्हें ऋश्यशृंग के आश्रम में भेजा। ऋश्यशृंग सदा पिता की सेवा सुश्रूषा में लगा रहता था और आश्रम को छोड़कर कहीं जाता नहीं था। परंतु एक दिन किसी कारणवश वह आश्रम के बाहर आया। नर्तकियाँ गीत गाती हुई, नृत्य करती हुई उसके पास पहुँचीं। उनके नयनाभिराम स्वरूपों, अलंकारों, मधुर कंठों को सुनकर ऋश्यशृंग आश्र्चर्य में डूब गया और उनके प्रति आकर्षित हो गया।
नर्तकियों ने उससे पूछा, "आप कौन हैं? इस अरण्य में क्यों अकेले घूम रहे हैं?'' "मैं विभंडक महामुनि का पुत्र हूँ। आप आश्रम आयेंगी तो मैं आपकी उचित रूप से पूजा करूँगा,'' ऋश्यशृंग ने कहा। वे उसके साथ-आश्रम गयीं और उसके दिये कंद, फल खाये। उन नर्तकियों ने भी अपनी तरफ से कुछ पकवान उसे दिये और कहा, "ये भी फल हैं, इन्हें चखकर देखिये। हमें तपस्या करने के लिए अभी लौटना है,'' यह कहती हुई वे वहाँ से चली गयीं।
ऋश्यशृंग ने उनके दिये पकवान खाये और समझा कि वे भी फल ही हैं। परंतु वे पकवान फलों से अधिक स्वादिष्ट थे। दूसरे दिन, उन्हें देखने और मिलने की आशा लेकर वह उसी स्थल पर गया, जहाँ वे कल उससे मिली थीं।
उसे देखते ही उन नर्तकियों ने कहा, "महाशय, आप भी हमारे आश्रम में पधारियेगा। वहाँ आपकी अच्छी आवभगत होगी।''
ऋश्यशृंग ने सानंद अपनी स्वीकृति दे दी और उनके साथ चल पड़ा। ऋश्यशृंग ने अंगदेश में जैसे ही पदार्पण किया, वर्षा होने लगी। रोमपाद ने ऋश्यशृंग का स्वागत किया, साष्टांग नमस्कार किया और उसे इस प्रकार से अपने देश में ले आने के लिए क्षमा माँगी। फिर अपनी पुत्री शांता से उसका विवाह करवाया। ऋश्यशृंग, शांता के साथ अंगदेश में ही बस गया।
सुमंत की बतायी इस कथा को सुनकर दशरथ बहुत ही आनंदित हुए। वसिष्ठ महामुनि की अनुमति पाकर, अपनी पत्त्नियों व मंत्रियों को लेकर दशरथ अंगदेश गये। रोमपाद ने दशरथ का भव्य स्वागत किया। फिर सहर्ष अपने दामाद ऋश्यशृंग व पुत्री शांता को दशरथ के साथ अयोध्या भेजा।
ऋश्यशृंग के अयोध्या आये कुछ दिन बीत गये। वसंत ऋतु ने प्रवेश किया। दशरथ न ऋश्यशृंग से कहा, "कृपया आप यज्ञ का प्रारंभ कीजिये और स्वयं उसे चलाइये।'' अश्वमेध यज्ञ के लिए बहुत बड़े पैमाने पर तैयारियाँ शुरू हो गयीं। यज्ञ करनेवाले, वेदों का पठन करनेवाले सुयज्ञ, वामदेव, बाबालि, काश्यप आदि ब्राह्मण श्रेष्ठ निमंत्रित किये गये। सरयू नदी के उत्तरी तट पर यज्ञशाला का निर्माण हुआ।
शुभ मुहूर्त के दिन दशरथ यज्ञशाला पहुँचे। यज्ञ शुरू हो गया। प्रथम हविर्भाग इंद्र को अर्पित करने के बाद होम चलने लगा।
अश्वमेध यज्ञ तीन दिवसों का यज्ञ है। शास्त्रोक्त विधि से समाप्ति के बाद दशरथ ने यज्ञ करानेवाले ऋत्विजों को सारी भूमि दान में दे दी। उन्होंने दशरथ से कहा, "महाराज, भूमि लेकर हम क्या करेंगे? इस भूमि के बदले हमें मणियाँ, सोना, गायें या कुछ और जो भी है, दान में दीजिये।'' दशरथ ने उन्हें दस लाख गायें, सौ करोड़ का सोना, चार सौ करोड़ की चांदी दान में दिये।
ब्राह्मणों को जो भी दान में मिला, उसे उन्होंने ऋश्यशृंग व वसिष्ठ को समर्पित कर दिया। इतने में एक दरिद्र ब्राह्मण वहाँ आया और दशरथ के सामने हाथ फैलाये। दशरथ ने तुरंत अपने हाथ का कंकण उतारा और उस ब्राह्मण को दे दिया। सब ब्राह्मणों ने दशरथ की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
अश्वमेध यज्ञ जैसे ही पूरा हुआ, ऋश्यशृंग ने दशरथ से पुत्र कामेष्टि विधि पूरी करवायी। समस्त देवी-देवता आकर अपने-अपने उचित स्थानों पर आसीन हो गये। उस अवसर पर देवताओं ने ब्रह्मा से सविस्तार बताया कि वे रावणासुर के हाथों कितना सताये जा रहे हैं।
ब्रह्मा ने उनसे कहा, "दुष्ट रावण ने वरदान माँगा था कि उसकी मृत्यु देव, दानव, गंधर्व, यक्ष के हाथों न हो। उसकी दृष्टि में मानवों की कोई हस्ती ही नहीं थी। वह उन्हें अशक्त, निस्सहाय व भीरु मानता था। उसका विश्वास था कि मनुष्य जैसा प्राणी भला उसका क्या बिगाड़ सकता है! इसी कारण उसने मनुष्यों से रक्षा नहीं माँगी। सुनो, महाविष्णु दशरथ की पत्त्नियों में से किसी का एक पुत्र होकर जन्म लेंगे और नर रूप में रावण का संहार करेंगे।'' यह घोषणा सुनकर देवता बहुत प्रसन्न हुए।
इतने में होम कुंड से जगमगाता हुआ एक दिव्य स्वरूपी प्रकट हुआ। वह दिव्य स्वरूपी अपने हाथों में एक कलश लिये हुए था। वह कलश सोने का था और उसका ढक्कन चांदी का। उस दिव्य स्वरूपी ने दशरथ से कहा, "राजन्, देवताओं ने इस कलश में अपनी पकाई खीर भर कर दी है । प्रजापति की आज्ञा के अनुसार मैं इसे लेकर आया हूँ। यह खीर तुम अपनी पत्त्नियों को खिलाओगे तो वे गर्भवती होंगी और पराक्रमी पुत्रों को जन्म देंगी।''
दशरथ ने बड़े ही आनंद से उस कलश को अपने हाथों में लिया और उस दिव्य स्वरूपी की प्रदक्षिणा की।
दशरथ ने उस कलश में भरी खीर का आधा भाग कौसल्या को दिया। शेष खीर में आधा भाग सुमित्रा को और शेष आधा भाग कैकेयी को। तीनों को देने के बाद जो बचा, उसे पुनः सुमित्रा को दिया। शीघ्र ही तीनों गर्भवती हुईं।
एक ओर महाविष्णु मानव रूप में प्रकट होने की तैयारियाँ कर रहे थे तो दूसरी ओर ब्रह्मा की आज्ञा के अनुसार देवताओं ने काम रूपी बानरों की सृष्टि की। देवेंद्र से बाली, सूर्य से सुग्रीव, कुबेर से गंधमादन, अश्र्विनी देवताओं से मैंदद्विविद, विश्वकर्मा से नल, अग्नि से नील, वरुण से सुषेण, पर्जन्य से शरथ, वायुदेव से हनुमान जन्मे। ये सबके सब महाबली वानर श्रेष्ठ थे। शेष देवताओं से हज़ारों वानर जन्मे। ये वानर ऋष्यमूक नामक पर्वत के निकट बस गये और वाली, सुग्रीव को अपना राजा बनाकर तथा नल, नील, हनुमान आदि को अपना मंत्री बनाकर जीवन यापन करने लगे।
पुत्र कामेष्टि की पूर्ति के बारहवें महीने में चैत्र शुक्ल नवमी के दिन पुनर्वसु नक्षत्र में कौसल्या ने राम को जन्म दिया। पुष्यमी नक्षत्र में कैकेयी ने भरत को जन्म दिया। अश्लेषा नक्षत्र में मध्याह्न समय पर सुमित्रा ने लक्ष्मण और शत्रुघ्न को जन्म दिया। अयोध्या नगर के नागरिकों ने आनन्दोत्सव मनाया। गलियाँ नाचने-गानेवालों से खचाखच भर गयीं। पूरे राज्य में खुशी की लहर फैल गई। गरीबों में भोजन और वस्त्र बाँटे गये। महीनों तक वातावरण में शीत-संगीत का स्वर गूंजता रहा। राजा के महल में ही नहीं, बल्कि हर प्रजा के घर में राजकुमारों के जन्म का उत्सव मनाया जा रहा था। दशरथ ने विपुल मात्रा में ब्राह्मणों को गोदान व अन्नदान किया।
चारों बालक क्रमशः बडे होने लगे। यद्यपि राम, लक्ष्मण एक ही मॉं के पुत्र नहीं थे, परंतु सदा मिल जुलकर रहते थे। उसी प्रकार भरत, शत्रुघ्न दोनों एक साथ घूमते-फिरते, खेलते-कूदते थे। चारों ने वेद शास्त्रों का अध्ययन किया, धनुर्विद्या में निष्णात बने और पिता की सेवा-सुश्रूषा करते हुए युवक हुए। दशरथ उनके विवाह को लेकर मंत्रियों और पुरोहितों से सलाह-मशविरा करने लगे।
राजा और मंत्री जब इसी चर्चा में तल्लीन थे, तब द्वारपालक ने आकर कहा, "महाराज, कुशिक वंश के, गाधि राजकुमार विश्वामित्र महामुनि आपके दर्शनार्थ आये हैं और द्वार पर प्रतीक्षा कर रहे हैं।''
दशरथ तुरंत पुरोहित को लेकर विश्वामित्र से मिलने गये और उनकी पूजा की, उनका सादर स्वागत किया।
विश्वामित्र ने कहा, "राजन्, तुम और तुम्हारी प्रजा सकुशल है न? शत्रु का कोई भय तो नहीं है न?'' कुशल-मंगल जानने के बाद उन्होंने वसिष्ठ से बातें कीं और राजभवन में प्रवेश करके उचित आसन पर आसीन हो गये।
"महामुनि, आपके आगमन से हम धन्य हुए। कहिये, मुझसे आपको क्या चाहिये।'' दशरथ ने पूछा।
विश्वामित्र प्रसन्न होते हुए बोले, "राजन्, जिस काम पर मैं आया हूँ उसे पूरा करके प्रमाणित करो कि तुम सत्यनिष्ठ हो। मैंने एक यज्ञ प्रारंभ किया, किन्तु दो पराक्रमी राक्षसों ने मेरी यज्ञ वेदिका पर रक्त मांस बिखेर दिया और मेरे व्रत संकल्प को बिगाड़ डाला। तुम मेरे साथ अपने बड़े बेटे राम को भेज दो। मारीच, सुबाहु नामक उन दोनों राक्षसों से मेरे यज्ञ की रक्षा करेगा।''
यह सुनते ही दशरथ को लगा कि उसका हृदय मानों फट गया हो। भय-दुख उमड़-उमड़कर आने लगे। सिंहासन से उतरकर कांपते हुए स्वर में दशरथ ने कहा,"महामुनि, राम अभी बालक है। उसके सोलह साल भी पूरे नहीं हुए। वह धनुर्विद्या भी भली-भांति नहीं जानता। भला, वह राक्षसों से क्या लड़ेगा? मेरे पास एक अक्षौहिणी सेना है। मैं स्वयं आकर उनसे युद्ध करूँगा और उन्हें मार डालूँगा। बताइये तो सही, आख़िर वे राक्षस हैं कौन?''
विश्वामित्र ने कहा, "तुम तो रावण नामक राक्षस राजा को जानते हो। ब्रह्मा को प्रस करके उसने कितनी ही अमोघ शक्तियाँ प्राप्त कीं। रावण विश्रवस का पुत्र है, कुबेर का साक्षात् छोटा भाई है। जब वह स्वयं यज्ञ को भंग नहीं कर सकता, तब इन बलशाली मारीच, सुबाहु को भेजता रहता है।''
"बाप रे! रावण? उसका सामना भला मैं क्या करूँगा? जब यह काम मुझसे ही नहीं हो सकता तो बालक राम क्या करेगा?'' दशरथ ने अपनी असहायता जतायी। क्रोध से विश्वामित्र की आँखें लाल हो गयीं। यह कहते हुए वे अचानक उठ गये, "महाराज, वचन से मुकर गये न? क्या यही तुम्हारी सत्यनिष्ठा है? अपकीर्ति ढोते हुए सुखी रहो।''
तब कुलगुरु वसिष्ठ ने दशरथ को डॉंटते हुए कहा,"राजन्, जो करना नहीं चाहिये, वह तुम कर रहे हो। वचन से मुकरकर इक्ष्वाकु वंश को कलंकित कर रहे हो। तुमने विश्वामित्र को क्या समझ रखा है? कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं, जिसे वे न जानते हों। नये अस्त्रों की सृष्टि भी वे कर सकते हैं। क्या तुमने यह समझ रखा है कि वे उन राक्षसों को मार नहीं सकते, इसीलिए तुम्हारे पास आये हैं? तुम्हारे पुत्रों का भला करने के लिए ही वे आये हैं। तुम्हारे पुत्रों के विश्वामित्र के साथ रहने से न केवल उनकी विद्या और ज्ञान में पूर्णता आयेगी, बल्कि तुम्हारे पुत्रों को यश मिलेगा। सर्वत्र उनकी कीर्ति फैलेगी। तुम्हारे पुत्र साधारण मानव नहीं हैं। वे दिव्य पुरुष हैं। भविष्य में जो कार्य उनके द्वारा सम्पन्न होनेवाला है, उसकी आधारशिला तैयार करने के लिए विश्वामित्र तुम्हारे बालकों को लेने आये हैं। इसीलिए निश्श्चिन्त होकर राम को उनके साथ भेजो। जब तक वे उनके साथ हैं, उनका कोई भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता।''
वसिष्ठ के हितबोध से दशरथ में धैर्य आ गया। उन्होंने राम, लक्ष्मण को विश्वामित्र के सुपुर्द किया। राम, लक्ष्मण विश्वामित्र के पीछे-पीछे जाने लगे। दोनों के पास धनुष बाण थे। उनके हाथों में खड्ग भी थे।
बालकाण्ड 2
बालकाण्ड 3
बालकाण्ड 4
बालकाण्ड 5
अयोध्या काण्ड - 1
अयोध्या काण्ड - 2
अयोध्या काण्ड - 3
अयोध्या काण्ड - 4
अयोध्या काण्ड - 5
अयोध्या काण्ड - 6
अयोध्या काण्ड - 7
अयोध्या काण्ड - 8
अयोध्या काण्ड - 9
अयोध्या काण्ड - 10
अरण्य काण्ड - 1
अरण्य काण्ड - 2
अरण्य काण्ड - 3
अरण्य काण्ड - 4
अरण्य काण्ड - 5
अरण्य काण्ड - 6
अरण्य काण्ड - 7
किष्किन्धा काण्ड - 1
किष्किन्धा काण्ड - 2
किष्किन्धा काण्ड - 3
किष्किन्धा काण्ड - 4
किष्किन्धा काण्ड - 5
किष्किन्धा काण्ड - 6
किष्किन्धा काण्ड - 7
सुन्दर काण्ड - 1
सुन्दर काण्ड - 2
सुन्दर काण्ड - 3
सुन्दर काण्ड - 4
सुन्दर काण्ड - 5
सुन्दर काण्ड - 6
सुन्दर काण्ड - 7
युद्ध काण्ड - 1
युद्ध काण्ड - 2
युद्ध काण्ड - 3
युद्ध काण्ड - 4
युद्ध काण्ड - 5
युद्ध काण्ड - 6
युद्ध काण्ड - 7
बूढ़े पिता और पत्नी ( Old father and wife )
बचपन से ही उसकी बुद्धि तीक्ष्ण थी। अपनी अवस्था के बालकों से वह अधिक ज्ञानी और विचारवान था। माता-पिता का दुलारा था, लेकिन दादा का तो वह मानों प्राण था।
दादा बहुत ही बूढ़े थे। वे घर का कोई काम नहीं कर सकते थे। उलटे घर के लोगों को उनकी सेवा में रहना पड़ता। यह बात कमल की माँ को बहुत अखरती थी।
एक दिन कमल की माँ ने अपने पति से कहा, ‘‘मैं तो तुम्हारे पिता की सेवा करते-करते खुद ही स्वर्ग सिधार जाऊँगी। सारा दिन उसी की टहल करते रहो। लगता है घर में और काम ही नहीं हैं। आखिर यह कब तक चलता रहेगा!''
‘‘जब तक उनकी आयु है, तब तक उनकी सेवा करना हमारा धर्म बनता है। आखिर मौत के पहले किसी का गला घोंट कर तो नहीं मार सकते।'' किसान ने थोड़ी तेज आवाज़ में कहा।
‘‘मार डालने में भी क्या बुराई है? ज़िन्दा रहने में न उसे सुख है न हमें। तिल-तिल कर मरने से तो अच्छा है एक बार मौत आ जाये।''
किसान से अधिक पत्नी की आवाज़ तेज़ थी। किसान को पहले पत्नी की बात बहुत बुरी लगती थी। लेकिन धीरे-धीरे पत्नी के दबाव में आकर उसकी बातों से वह भी सहमत हो गया। वह भी सोचने लगा कि पिता को मार देने में कोई पाप नहीं है, बल्कि वे बुढ़ापे की पीड़ा से मुक्त हो जायेंग़े। उसने एक योजना भी बना ली।
एक दिन किसान ने अपने पिता से कहा, ‘‘बाबूजी! खेत में एक कुआँ खोदवाने के लिए पड़ोसी गाँव के महाजन से कर्ज़ ले रहा हूँ। महाजन कहता है कि दस्तावेज़ पर आप के हस्ताक्षर भी आवश्यक हैं। इसलिए मेरे साथ गाड़ी पर कृपा करके चलिये।''
उसका पिता बेटे की बात सच मान कर उसके साथ चल पड़ा। कमल भी ज़िद करके अपने दादा के पास बैठ गया।
रास्ते में एक छोटा-सा जंगल था। किसान ने जंगल के बीच गाड़ी रोक दी। वह एक फावड़ा लेकर उतर पड़ा और बोला, ‘‘तुम दोनों गाड़ी में ठहरो। मैं अभी आता हूँ।''
पिता के जाने के बाद कमल भी एक फावड़ा लेकर उसी ओर चल पड़ा। थोड़ी दूर पर कमल का पिता एक झाड़ी के पास गड्ढा खोद रहा था। उसी झाड़ी के दूसरी ओर कमल भी एक गड्ढा खोदने लग गया।
थोड़ी देर में कुछ आहट पाकर किसान रुक गया। जिधर से आहट आ रही थी, उधर जाकर उसने देखा। ‘‘अरे कमल, तुम यहाँ गड्ढा क्यों खोद रहे हो?''
‘‘जिस काम के लिए आप खोद रहे हैं, मैं भी उसी काम के लिए खोद रहा हूँ।'' कमल के उत्तर ने पिता को झकझोर दिया।
पिता ने साहस करके पूछा, ‘‘क्या तुम्हें मालूम है कि मैं क्यों यह गड्ढा खोद रहा हूँ?''
‘‘मुझे मालूम तो नहीं है लेकिन किसी कार्य के लिए ही ऐसा कर रहे होंगे। आप का अनुसरण करने में क्या कोई दोष है?'' कमल के भोलेपन ने उसके हृदय को छू दिया।
वह अपने बेटे से कुछ छिपा न सका। उसने कहा, ‘‘मैं अपने पिता को दफ़नाने के लिए यह गड्ढा खोद रहा हूँ। उनके मरने पर उनके अन्तिम संस्कार की जिम्मेदारी मुझ पर है, क्योंकि मैं उनका पुत्र हूँ।''
‘‘लेकिन दादा तो अभी जीवित हैं।'' कमल ने जैसे पिता का षड्यंत्र ताड़ लिया हो।
‘‘क्षणभंगुर जीवन का क्या भरोसा! वे किसी समय दम तोड़ सकते हैं। वे बहुत वृद्ध हो चुके हैं।'' पिता ने पुत्र को समझाने की कोशिश की।
‘‘जीवन तो किसी का शाश्र्वत नहीं है। इसलिए मैं भी अपने पिता के लिए क़ब्र खोद रहा हूँ। पुत्र होने के नाते उन्हें दफ़नाने की जिम्मेदारी मेरी है।'' कमल उसी भोलेपन में कह गया।
उसके पिता को लगा जैसे वह आसमान से नीचे गिर गया हो। बेटे ने उसकी आँख की पट्टी खोल दी। उसे अब समझ में आया कि वह नीच कर्म करने जा रहा था। लज्जा से वह गड़ गया।
किसान अपने पिता और पुत्र के साथ घर लौट आया। किसान की पत्नी उस दिन बहुत प्रस थी और विशेष भोजन तथा मिष्टा बना कर अपने पति की प्रतीक्षा कर रही थी। लेकिन गाड़ी में ससुर को देख कर उसकी सारी प्रसता निराशा में बदल गई।
किसान ने, अपनी पत्नी को कमल के गाड़ी में साथ जाने तथा अपने पिता के लिए गड्ढा खोदने का सारा समाचार सुना दिया।
उसकी पत्नी को काटो तो खून नहीं। वह सिर पीटती हुई बोली, ‘‘हाय भगवान? कैसा युग आ गया! हम बेटे को कितना लाड़-प्यार से पालते हैं, लेकिन वह अपने जीवित पिता के लिए ही क़ब्र खोदता है !''
‘‘लेकिन मैं भी तो वही काम करने जा रहा था। क्या उन्होंने मुझे बचपन में लाड़-प्यार से नहीं पाला?'' किसान ने पत्नी की ओर एक विशेष प्रयोजन से देखा।
उसके बाद पत्नी ने अपने बूढ़े ससुर के प्रति कोई शिकायत नहीं की।
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