11 फ़रवरी 2010

आशीर्वाद

आत्मानंद को अपने परिचित युवा मित्र के विवाह पर आयोजित आशीर्वाद समारोह पर स्वरूचि भोज का निमंत्रण मिला था। समय तो 7 बजे अंकित था पर वे घर से ही घंटे डेढ़ घंटे बाद समारोह स्थल के लिए रवाना हुए थे।

विद्युत का जगमगाता प्रकाश दूर से ही आकर्षित कर रहा था। प्रवेश द्वार पर चूनड़ी का साफा बांधे, बंद गले का जोधपुरी कोट पहने एक सान खड़े थे। उनके पास ही खडी थी, आभूषणों में सजी धजी महिला, शायद उनकी पत्नी। जो भी आ रहा था, वह उन्हें आशीर्वाद का लिफाफा देकर भीतर प्रवेश कर रहा था। लिफाफों से उनकेकोट की दोनों जेबें लबालब भरी थीं।

आत्मानंद ने उन्हें ही युवा मित्र का पिता समझ, अपना आशीर्वाद का लिफाफा दे दिया। लम्बी नाल से गलियारे में बिछे कालीन को जूतों से खटाखट से दबाते जैसे ही भीतर पहूंचे, मंच पर दोनों आसन खाली दिखे। सामने कुसिर्यों पर अवश्य महिलाऐं जमीं थीं। कुछ दूर आगे बगल में भोजन पर भीड़ टूटी पड़ी थी।

आत्मानंद को वहां से यथा शीघ्र निपटकर दूसरी जगह आवश्यक रूप से पहुंचना था। इसलिए उन्होंने सीधे पहुंच भोजन किया और बाहर आ जैसे ही गाड़ी स्टार्ट की, उनके कानों में आवाज आई, बारात आ गई - बारात आ गई। वे सोच में पड़ गये। क्या वे मित्र के पिता नहीं थे? क्या वधू पक्ष के भोजन को ही उन्होंने अपना स्वरूचि भोज मान मित्रों को वहीं आमंत्रित किया है। उनके माथे पर सल पड़ गये। सोचने लगे कब तक होता होगा वधू पक्ष का इस तरह शोषण। पढ़ी लिखी लड़की देकर भी इस पुरूष- प्रधान समाज में लड़की का पिता कब तक छला जाता रहेगा। मित्र ने अपना भार दूसरे के कंधे पर डाल दिया। कैसा जमाना आ गया है। यह कहते-कहते उन्होंने अपना माथा ठोक लिया। एक बार तो सोचा कि लौट चलूं और मित्र को इस सबके लिए उपालम्भ भी दूं। लेकिन द्वार पर खडा वह लड़की का पता समझेगा कि दुबारा खाने के लिए आ गया। इसी उहापोह में उनकी गाड़ी गंतव्य की ओर बढ़ती रही। वे सोचते रहे क्या लड़कियों की भ्रूण- हत्या इसीलिए होती है। क्या इसीलिए युवा लड़कियों आत्महत्या कर लेती हैं? क्या इसीलिये विधवाउं अपनी बच्चियों को लेकर कुओं में कूद जीवित समाधि ले लेती हैं? कब रूकेगी लड़के वालों की यह भूख? कब मिलेगा लड़कियों को उचित सम्मान?

गाड़ी गंतव्य पर पहुंच चुकी थी। फाटक लगाते हुए उन्होंने यह सोच संतोष की सांस ली कि जिसे आशीर्वाद चाहिये था, उसे ही उन्होंने आशीर्वाद दिया है। वे प्रसन्न प्रसन्न त्वर गति से भीतर प्रवेश कर गये।

रामायण – उत्तरकाण्ड - लवणासुर वध

अगले दिन प्रातःकाल होने पर जब लवणासुर अपने पुर से बाहर निकला, तब ही शत्रुघ्न हाथ में धनुष बाण ले मधुपुरी को घेर कर खड़े हो गये। दोपहर होने पर वह क्रूर राक्षस हजारों मरे हुये जीवों को लेकर वहाँ आया तो शत्रुघ्न ने उसे द्वन्द्व युद्ध के लिये ललकारा। अभिमानी लवण तत्काल उनसे युद्ध करने के लिये तैयार हो गया और बोला, "तेरे भाई ने रावण को मारा था जो मेरी मौसी शूर्पणखा का भाई था। आज मैं उसका बदला तुझसे लूँगा। तुझे पत नहीं, अब तक मैं बड़े-बड़े शूरवीरों को धराशायी कर चुका हूँ तेरी भला क्या गिनती है?"

यह सुनकर शत्रुघ्न बोले, "नराधम! जब तूने उन वीरों को धराशायी किया होगा तब शत्रुघ्न का जन्म नहीं हुआ था। आज मैं तुझे अपने तीक्ष्ण बाणों से सीधा यमलोक का रास्ता दिखाउँगा।" यह सुनते ही लवण ने क्रोध कर एक वृक्ष उखाड़ कर शत्रुघ्न को मारा, परन्तु उन्होंने मार्ग में ही उसके सैकड़ों टुकड़े कर दिये। फिर उन्होंने उस पर बाणों की झड़ी लगा दी, किन्तु लवण इस आक्रमण से तनिक भी विचलित नहीं हुआ। उल्टे उसने शीघ्रता से एक भारी वृक्ष उखाड़कर उनके सिर पर मारा जिससे उन्हें क्षणिक मूर्छा आ गई। मूर्छित शत्रुघ्न को मरा हुआ समझ वह अपना आहार जुटाने और सैनिों को खाने लग गया। अपना शूल लेने नहीं गया।

मूर्छा भंग होते ही शत्रुघ्न ने रघुनाथजी द्वारा दिया हुआ अमोघ बाण लेकर उसके वक्षस्थल पर छोड़ दिया वह बाण लवण का हृदय चीरता हुआ रसातल में घुस गया और फिर शत्रुघ्न के पास लौट आया। उधर लवणासुर ने भयंकर चीत्कार करके अपने प्राण त्याग दिये। शत्रुघ्न ने उस नगर को फिर से बसाकर उसका नाम मधुपुरी रखा। थोड़े ही दिनों में नगर सब प्रकार से सुख सम्पन्न हो गया। इस नगर को नवीन रूप पाने में बारह वर्ष लग गये। फिर एक सप्ताह के लिये शत्रुघ्न अयोध्या चले गये।

बबूल के गुणकारी नुस्खे

सूखी खाँसी : बबूल के गोंद का छोटा सा टुकड़ा मुँह में रखकर चूसने से खाँसी में आराम होता है।

ज्यादा पसीना : शरीर से बहुत पसीना आता हो तो बबूल की पत्तियाँ पीसकर शरीर पर मसलें। इसके बाद छोटी हरड़ का महीन पिसा हुआ चूर्ण भभूति की तरह पूरे शरीर पर लगाकर मसलें और फिर स्नान कर लें। थोड़े दिन यह प्रयोग करने पर पसीना आना बन्द हो जाता है।

रक्त प्रदर : बबूल का गोंद घी में तल कर फूले निकाल लें और पीस लें। इसके बराबर वजन में असली सोना गेरू पीसकर मिला कर तीन बार छान कर शीशी में भर लें। मासिक ऋतु स्राव के दिनों में सुबह शाम 1-1 बड़ा चम्मच चूर्ण ताजे पानी के साथ लेने से रक्त प्रदर यानी अधिक मात्रा में स्राव होना बन्द हो जाता है।

नवग्रह रत्न एवं समयावधि

ग्रह विशेष की अनुकूलता प्राप्त करने के लिए अक्सर आपको रत्नों की अंगूठी पहनने की सलाह दी जाती है। ग्रह संबंधी रत्न धारण करने से व्यक्ति को लाभ होता है। लेकिन रत्न एक निश्चित समयावधि तक ही प्रभावी होते हैं। समयावधि समाप्त होने के बाद रत्न निष्क्रिय और प्रभावहीन हो जाते हैं। रत्नों को फिर से प्रभावशाली बनाने के लिए फिर से इनकी प्राण-प्रतिष्ठा कराएं या नया रत्न धारण करें, तभी यह लाभकारी सिद्ध होंगे। किस ग्रह के रत्न की समयावधि क्या है, आइए जानें-ग्रह की शुभता या अनुकूलता प्राप्त करने के लिए प्राय: हम रत्नों की अंगूठी धारण करते हैं। इन रत्नों का प्रभाव एक निश्चित समय तक ही रहता है। उसके बाद ये निष्क्रिय हो जाते हैं। नव ग्रह संबंधी रत्नों का प्रभावशाली समय कितने वर्ष, माह, दिन का है। आइए इस पर चर्चा करें-

सूर्य रत्न माणिक्य का प्रभाव धारण करने के दिन से चार वर्षों तक रहता है, अन्य मतानुसार यह 3 माह 18 दिन विशेष प्रभावशाली होता है। इसके बाद यह निष्क्रिय हो जाता है। इसे प्रभावशाली बनाने के लिए दूसरा माणिक्य धारण करें या फिर से प्राण-प्रतिष्ठा कराएं।
चंद्र रत्न मोती धारण करने के दिन से दो साल दो दिन तक प्रभावि रहता है। इसके बाद फिर से प्राण-प्रतिष्ठा कराएं।
मंगल रत्न मूंगे का प्रभाव धारण करने से तीन वर्ष तीन दिन तक रहता है। अन्य मतानुसार 4 माह 27 दिन विशेष प्रभाव देता है। तदुपरांत यह निष्क्रिय हो जाता है। इसके बाद दूसरा मूंगा धारण करें या प्राण-प्रतिष्ठा फिर से कराएं।
बुध रत्न पन्ना का प्रभाव धारण करने से तीन वर्ष तक रहता है। अन्य मतानुसार 2 वर्ष 4 माह 27 दिन विशेष प्रभावशाली रहता है। तदुपरांत यह निष्क्रिय हो जाता है, फिर से दूसरा पन्ना धारण करें या प्राण-प्रतिष्ठा कराएं।बृहस्पति रत्न पुखराज का प्रभाव धारण करने से चार साल तीन माह 18 दिन तक रहता है। अन्य मतानुसार 2 वर्ष 1 माह 18 दिन विशेष प्रभाव डालता है। तदुपरांत निष्क्रिय हो जाता है। दूसरा नया पुखराज धारण कर लें या फिर से प्राण-प्रतिष्ठा करा लें।
शुक्र रत्न हीरा धारण करने के दिन से सात वर्षों तक प्रभावशाली रहता है। अन्य मतानुसार 3 वर्ष 4 माह तक विशेष प्रभाव रखता है। तत्पश्चात निष्क्रिय हो जाता है। इसके बाद दूसरा रत्न धारण करें।
शनि रत्न नीलम धारण करने के दिन से पांच वर्षों तक प्रभावशाली रहता है। अन्य मतानुसार 3 वर्ष 3 दिन विशेष प्रभावी रहता है। तदुपरांत निष्क्रिय हो जाता है। समयावधि बीतने के बाद दूसरा नीलम पहनें या फिर प्राण-प्रतिष्ठा कराएं।
राहु रत्न गोमेद धारण करने के दिन से तीन वर्षों तक प्रभावी होता है। अन्य मतानुसार 2 वर्ष 8 माह 12 दिन विशेष प्रभावी रहता है। इसके बाद निष्क्रिय हो जाता है। दूसरा गोमेद धारण करें या प्राण-प्रतिष्ठा कराएं रत्न की।

केतु रत्न लहसुनिया पहनने के दिन से तीन वर्षों तक प्रभावशाली रहता है। अन्य मतानुसार 4 माह 27 दिन विशेष प्रभाव डालता है। इसके बाद निष्क्रिय हो जाता है। तत्पश्चात दूसरा रत्न पहने या पुराने रत्न की प्राण-प्रतिष्ठा फिर से कराएं।

10 फ़रवरी 2010

रामायण – उत्तरकाण्ड - ब्राह्मण बालक की मृत्यु

एक दिन श्रीराम अपने दरबार में बैठे थे तभी एक बूढ़ा ब्राह्मण अपने मरे हुये पुत्र का शव लेकर राजद्वार पर आया और 'हा पुत्र!' 'हा पुत्र!' कहकर विलाप करते हुये कहने लगा, "मैंने पूर्वजन्म में कौन से पाप किये थे जिससे मुझे अपनी आँखों से अपने इकलौते पुत्र की मृत्यु देखनी पड़ी। केवल तेरह वर्ष दस महीने और बीस दिन की आयु में ही तू मुझे छोड़कर सिधार गया। मैंने इस जन्में कोई पाप या मिथ्या-भाषण भी नहीं किया। फिर तेरी अकाल मृत्यु क्यों हुई? इस राज्य में ऐसी दुर्घटना पहले कभी नहीं हुई। निःसन्देह यह श्रीराम के ही किसी दुष्कर्म का फल है। उनके राज्य में ऐसी दुर्घटना घटी है। यदि श्रीराम ने तुझे जीवित नहीं किया तो हम स्त्री-पुरुष यहीं राजद्वार पर भूखे-प्यासे रहकर अपने प्राण त्याग देंगे। श्रीराम! फिर तुम इस ब्रह्महत्या का पाप लेकर सुखी रहना। राजा के दोष से जब प्रजा का विधिवत पालन नहीं होता तभी प्रजा को ऐसी विपत्तियों का सामना करना पड़ता है। इससे स्पष्ट है कि राजा से ही कहीं कोई अपराध हुआ है।" इस प्रकार की बातें करता हुआ वह विलाप करने लगा।

जब श्रीरामचन्द्रजी इस विषय पर मनन कर रहे थे तभी वशिष्ठजी आठ ऋषि-मुनियों के साथ दरबार में पधारे। उनमें नारद जी भी थे। श्री राम ने जब यह समस्या उनके सम्मुख रखी तो नारद जी बोले, "राजन्! जिस कारण से इस बालक की अकाल मृत्यु हुई वह मैं आपको बताता हूँ। सतयुग में केवल ब्राह्मण ही तपस्या किया करते थे। फिर त्रेता के प्रारम्भ में क्षत्रियों को भी तपस्या का अधिकार मिल गया। अन्य वर्णों का तपस्या में रत होना अधर्म है। हे राजन्! निश्‍चय ही आपके राज्य में कोई शूद्र वर्ण का मनुष्य तपस्या कर रहा है, उसी से इस बालक की मृत्यु हुई है। इसलिये आप खोज कराइये कि आपके राज्य में कोई व्यक्‍ति कर्तव्यों की सीमा का उल्लंघन तो नहीं कर रहा। इस बीच ब्राह्मण के इस बालक को सुरक्षित रखने की व्यवस्था कराइये।"

नारदजी की बात सुनकर उन्होंने ऐसा ही किया। एक ओर सेवकों को इस बात का पता लगाने के लिये भेजा कि कोई अवांछित व्यक्‍ति ऐसा कार्य तो नहीं कर रहा जो उसे नहीं करना चाहिये। दूसरी ओर विप्र पुत्र के शरीर की सुरक्षा का प्रबन्ध कराया। वे स्वयं भी पुष्पक विमान में बैठकर ऐसे व्यक्‍ति की खोज में निकल पड़े। पुष्पक उन्हें दक्षिण दिशा में स्थित शैवाल पर्वत पर बने एक सरोवर पर ले गया जहाँ एक तपस्वी नीचे की ओर मुख करके उल्टा लटका हुआ भयंकर तपस्या कर रहा था। उसकी यह विकट तपस्या देख कर उन्होंने पूछा, "हे तपस्वी! तुम कौन हो? किस वर्ण के हो और यह भयंकर तपस्या क्यों कर रहे हो?"

यह सुनकर वह तपस्वी बोले, "महात्मन्! मैं शूद्र योनि से उत्पन्न हूँ और सशरीर स्वर्ग जाने के लिये यह उग्र तपस्या कर रहा हूँ। मेरा नाम शम्बूक है।" शम्बूक की बात सुकर रामचन्द्र ने म्यान से तलवार निकालकर उसका सिर काट डाला। जब इन्द्र आदि देवताओं ने महाँ आकर उनकी प्रशंसा की तो श्रीराम बोले, "यदि आप मेरे कार्य को उचित समझते हैं तो उस ब्राह्मण के मृतक पुत्र को जीवित कर दीजिये।" राम के अनुरोध को स्वीकार कर इन्द्र ने विप्र पुत्र को तत्काल जीवित कर दिया।

वि‍कास को पंख देगा शि‍क्षा का अधि‍कार

हमारे यहाँ अभी तक जो 100 बच्चे बेसिक शिक्षा में एडमिशन लेते हैं उनमें सिर्फ 12 बच्चे ही ग्रेजुएशन तक पहुँच पाते हैं जबकि योरप में 100 में से 50-70 बच्चे तक कॉलेज पहुँचते हैं। सरकार का आकलन है कि इस विधेयक के कानून बन जाने के बाद भारत में कॉलेज पहुँचने वाले छात्रों की संख्या 2020 तक 30 से 35 फीसदी की सीमा पार कर जाएगी।

स्कूलों को इस कानून पर खरा उतरने के लिए तीन सालों के अंदर तमाम ढाँचागत सुविधाएँ हासिल करनी होंगी। स्‍कूलों को कम से कम 50 प्रति‍शत महि‍ला शि‍क्षकों को भर्ती करना होगा। जहाँ तक सामुदायि‍क स्‍कूलों का सवाल है, तो वे अपने वि‍शेष समुदाय को 50 फीसदी सीटें दे सकते हैं। उच्‍च आय वाले देशों में जहाँ फि‍लहाल पढ़ने की उम्र समूह वाले (5 से 24 साल) 92 फीसदी लोग शि‍क्षा ग्रहण कर रहे हैं, वहीं भारत में यह आँकड़ा अभी तक सि‍र्फ 63 फीसदी है।

भारत के मुकाबले वि‍कास दर में काफी पीछे चलने वाले ब्राजील और रूस में 89 फीसदी स्‍कूल जाने की उम्र के बच्‍चे पढ़ रहे हैं। चीन में भी लगभग 70 फीसदी स्‍कूल जाने की उम्र वाले बच्‍चे स्‍कूल जा रहे हैं।

संयुक्त राष्ट्र के अध्‍ययन अनुमानों के मुताबि‍क 100 फीसदी शि‍क्षा का लक्ष्‍य हासि‍ल करने में भारत को 15 से 20 साल लग जाएँगे जबकि‍ हर साल शि‍क्षा के बजट में पि‍छले साल के मुकाबले 15 से 20 फीसदी की बढ़ोतरी होती रही। गौरतलब है कि‍ शि‍क्षा के लि‍ए हम अपनी तमाम सामूहि‍क प्रति‍बद्धता जताने के बावजूद अभी तक अपने कुल बजट का 5 फीसदी भी खर्च करने के लि‍ए अपने आपको तैयार नहीं कर पाए हैं।

एक तरफ शि‍क्षा के प्रति‍ हमारी शासकीय दरि‍द्रता जगजाहि‍र है, दूसरी तरफ शि‍क्षा के प्रति‍ भारतीय जनमानस की लगन और बढ़-चढ़कर शि‍क्षि‍त होने की प्रक्रि‍या में भारतीयों का उत्‍साह देखने लायक है। इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि‍ पि‍छले आठ वर्षों में बाकी क्षेत्रों के खर्चों में जहाँ बढोतरी 30 से 40 फीसदी तक हुई है वहीं शि‍क्षा के खर्च का आँकड़ा 200 फीसद को पार कर गया है।

एसोचेम (औद्योगि‍क संगठन) के एक अध्‍ययन के मुताबि‍क हाल के वर्षों में पढ़ाई के खर्च में सबसे ज्‍यादा तीव्रता से बढ़ातरी हुई है और यह बढ़ोतरी सि‍र्फ तथाकथि‍त ब्‍लू चि‍प वर्ग में ही नहीं हुई बल्‍कि‍ दूसरे क्षेत्रों में यह बढ़ोतरी देखने लायक है।

एसोचेम के अध्‍ययन के मुताबि‍क औसत मध्‍यमवर्गीय परि‍वार में जहाँ सन् 2000 में एक बच्‍चे की समूची पढ़ाई का खर्चा 25, 000 रु. वार्षि‍क था, वहीं 2008 में यह बढ़कर 65,000 से 80,000 रु. वार्षि‍क हो चुका है। यह लगभग 160 से 200 फीसदी की बढ़ोतरी दर्शाता है जबकि‍ इस दौरान औसत माँ-बाप की आय में अधि‍कतम 30 से 35 फीसदी तक का ही इजाफा हुआ है। अब चूँकि‍ शि‍क्षा को मूलभूत अधि‍कार के दायरे में लाया गया है इससे उम्‍मीद की जा सकती है कि‍ जल्‍द ही शि‍क्षा भारत के लि‍ए संपूर्ण क्रांति‍ का जरि‍या साबि‍त होगी।

हाल के वर्षों में अगर दुनि‍या में एक मजबूत, प्रगति‍शील और लोकतांत्रि‍क देश के रूप में हमारी छवि‍ पुख्‍ता हुई है तो इसमें कहीं न कहीं हमारे मजबूत शैक्षि‍क आधार का भी हाथ है। इसलि‍ए उम्‍मीद की जानी चाहि‍ए कि‍ अब जबकि‍ देश के हर नौनि‍हाल को मुफ्त और अनि‍वार्य शि‍क्षा का हक हासि‍ल हो गया है, तो भारत और तेजी से आगे बढ़ेगा और दुनि‍या का सि‍रमौर बनेगा।

मीठे सेब के अचूक प्रयोग

सेबफल के घरेलू नुस्खे

पेट के कीड़ों के निदान के लिए रोगी को प्रतिदिन दो मीठे सेब दें या प्रतिदिन एक गिलास ताजा सेब का रस दें। इससे कीड़े मर जाते हैं और मल के रास्ते निकल जाते हैं। कब्ज दूर करने के लिए प्रतिदिन सुबह उठकर खाली पेट दो सेब चबा-चबाकर खाएँ। इससे अग्निमांद्य दूर होता है और भूख भी बढ़ जाती है।

पेट में गैस की शिकायत रहती हो तो एक मीठे सेब में लगभग 10 ग्राम लौंग चुभाकर रख दें। दस दिन बाद लौंग निकालकर तीन लौंग तथा एक मीठा सेब नियमित रूप से खाएँ। इस दौरान चावल या उससे बनी चीजें रोगी को खाने को न दें।

बिच्छू का विष उतारने के लिए सेब के ताजा रस में आधा ग्राम कपूर मिलाकर आधे-आधे घंटे बाद पिलाना चाहिए। पके सेब के एक गिलास रस में मिश्री मिलाकर प्रतिदिन सुबह नियमित रूप से पीने से पुरानी से पुरानी खाँसी भी ठीक हो जाती है।

वायग्रा की तरह असर करता है तरबूज

वॉशिंगटनः अब तक सेक्स ड्राइव बढ़ाने के लिए लोग न जाने कौन-कौन से नुस्खे आजमाते थे और तरह-तरह की दवाइयों का उपयोग करते थे। लेकिन हाल में हुई एक रिसर्च से पता चला है कि गर्मियों में शरीर को ठंडा रखने के लिए खाए जाने वाला तरबूज सेक्स ड्राइव बढ़ाने के मामले में किसी वायग्रा से कम नहीं।

अमेरिकी शोधकर्ताओं ने हाल ही में एक रिसर्च में कहा है कि तरबूज का असर वायग्रा की तरह होता है। तरबूज में वह सभी गुण मौजूद हैं जो सेक्स ड्राइव बढ़ाने के लिए शरीर पर असर डालते हैं।

भारतीय मूल के वैज्ञानिक के नेतृत्व में अमेरिकी वैज्ञानिकों की टीम ने यह रिसर्च किया। शोधकर्ताओं ने कहा कि अंग्रेजी में वाटरमेलन, हिंदी में तरबूज, बंगाली में तॉरमूज, मराठी में कलंदर, गुजराती में इंद्रक, और कन्नड़ में करबूजा कहे जाने वाले इस साधारण से फल में वह सभी तत्व मौजूद हैं जो शरीर के ब्लड वेसल्स पर वायग्रा जैसा असर डालते हैं और सेक्स ड्राइव को बढ़ाते हैं।

टेक्सस एएंडएम के फ्रूट और वेजिटेबल इम्प्रूवमंट सेंटर के डायरेक्ट डॉ। भीमनगौडा (भीमू) पाटिल ने कहा- जैसे जैसे हमने तरबूज के बारे में अध्ययन किया हमें पता चला कि यह कोई साधारण फल नहीं। इसमें शरीर के लिए प्रभावकारी प्राकृतिक तत्व मौजूद हैं। अब तक तरबूज के बारे में हम सिर्फ यही जानते थे कि यह तरबूज सेहत के लिए बहुत अच्छा होता है। इसमें 92 प्रतिशत पानी मौजूद होता है और 0 पर्सेंट कैलरी होती है। लेकिन इसके अलावा भी तरबूज से होने वाले फायदों की लिस्ट काफी लंबी है।

उन्होंने बताया कि तरबूज से होने वाला एक सबसे बड़ा फायदा यह है कि व्यक्ति की सेक्स ड्राइव को बढ़ाता है। बहुत से फलों और सब्जियों में पौषक तत्व मौजूद होते हैं। इन्हें मेडिकल भाषा में पाइथो-न्युट्रिअंट्स कहते हैं, जिनमें ऐसी बायोऐक्टिव क्षमता होती है जो शरीर के साथ आसानी से प्रतिक्रिया करने में सक्षम होते हैं और मानव शरीर पर स्वस्थवर्धक प्रभाव डालते हैं।

तृष्णा का बंधन

न तं दल्हं बन्धनमाहु धीरा यदायसं दारुजं बब्बजं च।
सारत्तरत्ता मणिकुंडलेसु पुत्तेसु दारेसु च या अपेक्खा॥

बौद्ध धर्म कहता है लोहे का बंधन हो, लकड़ी का बंधन हो, रस्सी का बंधन हो, इसे बुद्धिमान लोग बंधन नहीं मानते। इनसे कड़ा बंधन तो है सोने का, चाँदी का, मणि का, कुंडल का, पुत्र का, स्त्री का।

सरितानि सिनेहितानि च सोममस्सानि भवन्ति जन्तुनो।
ते सीतसिता सुखेसिनो ते वे जातिजरूपगा नरा॥

तृष्णा की नदियाँ मनुष्य को बहुत प्यारी और मनोहर लगती हैं। जो इनमें नहाकर सुख खोजते हैं, उन्हें बार- बार जन्म, मरण और बुढ़ापे के चक्कर में पड़ना पड़ता है।

न वे कदरिया देवलोकं वजन्ति बालाह वे न प्पसंसन्तिदानम्‌।
धीरो च दानं अनुमोदमानो तेनेव सो होति सुखी परत्थ॥

बुद्ध कहते हैं कि कंजूस आदमी देवलोक में नहीं जाते। मूर्ख लोग दान की प्रशंसा नहीं करते। पंडित लोग दान का अनुमोदन करते हैं। दान से ही मनुष्य लोक-परलोक में सुखी होता है।

मा पमादमनुयुञ्जेथ मा कामरतिसन्थवं।
अप्पमत्तो हि झायन्तो पप्पोति विपुलं सुखं॥

भगवान बुद्ध कहते हैं कि प्रमाद में मत फँसो। भोग-विलास में मत फँसो। कामदेव के चक्कर में मत फँसो। प्रमाद से दूर रहकर ध्यान में लगने वाला व्यक्ति महासुख प्राप्त करता है।

अप्पमादो अमतपदं पमादो मच्चुनो पदं।
अप्पमत्ता न मीयन्ति ये पमत्ता यथा मता॥

प्रमाद न करने से, जागरूक रहने से अमृत का पद मिलता है, निर्वाण मिलता है। प्रमाद करने से आदमी बे-मौत मरता है। अप्रमादी नहीं मरते। प्रमादी तो जीते हुए भी मरे जैसे हैं।

09 फ़रवरी 2010

रामायण – उत्तरकाण्ड - राजा श्‍वेत की कथा

इन्द्र से वर प्राप्त करके रघुनन्दन राम महर्षि अगस्त्य के आश्रम में पहुँचे। वे शम्बूक वध की कथा सुनकर बहुत प्रसन्न हुये और उन्होंने विश्‍वकर्मा द्वारा दिया हुआ एक दिव्य आभूषण श्रीराम को अर्पित किया। वह आभूषण सूर्य के समान दीप्तिमान, दिव्य, विचित्र तथा अद्‍भुत था। उसे देखकर उन्होंने महर्षि अगस्त्य से पूछा, "मुनिवर! विश्‍वकर्मा का यह अद्‍भुत आभूषण आपके पास कहाँ से आया? जब यह आभूषण इतना विचित्र है तो इसकी कथा भी विचित्र ही होगी। यह जानने का मेरे मन में कौतूहल हो रहा है।"

श्रीराम की जिज्ञासा और कौतूहल को शान्त करने के लिये महर्षि ने कहा, "प्राचीन काल में एक बहत विस्तृत वन था जो चारों ओर सौ योजन तक फैला हुआ था, परन्तु उस वन में कोई प्राणी-पशु-पक्षी तक भी नहीं रहता था। उसमें एक मनोहर सरोवर भी था। उस स्थान को पूर्णतया एकान्त पाकर मैं वहाँ तपस्या करने के लिये चला गया था। सरोवर के चारों ओर चक्कर लगाने पर मुझे एक पुराना विचित्र आश्रम दिखाई दिया। उसमें एक भी तपस्वी नहीं था। मैंने रात्रि वहीं विश्राम किया। जब मैं प्रातःकाल स्नानादि के लिये सरोवर की ओर जाने लगा तो मुझे सरोवर के तट पर हृष्ट-पुष्ट निर्मल शव दिखाई दिया। मैं आश्‍चर्य से वहा बैठकर उस शव के विषय में विचार करने लगा। थोड़ी देर पश्‍चात् वहाँ एक दिव्य विमान उतरा जिस पर एक सुन्दर देवता विराजमान था। उसके चारों ओर सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत अनेक अप्सराएँ बैठी थीं। उनमें से कुछ उन पर चँवर डुला रही थीं। फिर वह देवता सहसा विमान से उतरकर उस शव के पास आया और उसने मेरे देखते ही देखते उस शव को खाकर फिर सरोवर में जाकर हाथ-मुँह धोने लगा। जब वह पुनः विमान पर चढ़ने लगा तो मैंने उसे रोककर पूछा कि हे तेजस्वी पुरुष! आका यह देवोमय सौम्य रूप और यह घृणित आहार? मैं इसका रहस्य जानना चाहता हूँ। मेरे विचार से आपको यह घृणित कार्य नहीं करना चाहिये था।

"मेरी बात सुकर वह दिव्य पुरुष बोला कि मेरे महायशस्वी पिता विदर्भ देश के पराक्रमी राजा थे। उनका नाम सुदेव था। उनकी दो पत्‍नियाँ थीं जनसे दो पुत्र उत्पन्न हुये। एक का नाम था श्‍वेत और दूसरे का सुरथ। मैं श्‍वेत हूँ। पिता की मृत्यु के बाद मैं राजा बना और धर्मानुकूल राज्य करने लगा। एक दिन मुझे अपनी मृत्यु की तिथि का पता चल गया और मैं सुरथ को राज्य देकर इसी वन में तपस्या करने के लिये चला आया। दीर्घकाल तक तपस्या करके मैं ब्रह्मलोक को प्राप्त हुआ, परन्तु अपनी भूख-प्यास पर विजय प्राप्त न कर सका। जब मैंने ब्रह्माजी से कहा तो वे बोले कि तुम मृत्युलोक में जाकर अपने ही शरीर का नित्य भोजन किया करो। यही तुम्हारा उपचार है क्योंकि तुमने किसी को कभी कोई दान नहीं दिया, केवल अपने ही शरीर का पोषण किया है। ब्रह्मलोक भी तुम्हें तुम्हारी तपस्या के कारण ही प्राप्त हुआ है। जब कभी महर्षि अगस्त्यत उस वन में पधारेंगे तभी तुम्हें भूख-प्यास से छुटकारा मिल जायेगा। अब आप मुझे मिल गये हैं, अतएव आप मेरा उद्धार करें और मेरा उद्धार करने के प्रतिदान स्वरूप यह दिव्य आभूषण ग्रहण करें। यह आभूषण दिव्य वस्त्र, स्वर्ण, धन आदि देने वाला है। इसके साथ मैं अपनी सम्पूर्ण कामनाएँ आपको समर्पित कर रहा हूँ। मेरे आभूषण लेते ही राजर्षि श्‍वेत पूर्णतः तृप्‍त होकर स्वर्ग को प्राप्त हुये और वह शव भी लुप्त हो गया।"

तीखा होता प्‍यार का इजहार

चॉकलेट डे पर विशेष

रूठी गर्लफ़्रेंड को मनाना हो तो चॉकलेट, प्यार का इजहार करना हो तो फूलों के साथ चॉकलेट गिफ्ट, रोते बच्चे को हसाना हो तो चॉकलेट... देखा कितने मर्जों की दवा है चॉकलेट। लेकिन सोचिए अगर हमें तीखी चॉकलेट खिलाई जाती तो? सोचए अगर कोई पूछता कि क्या आप चॉकलेट पीना पसंद करेंगे? तो क्या होता...प्यार का इजहार शायद फिर कुछ तीखा हो गया होता। बहुतों को शायद चॉकलेट पसंद ही नहीं होती। चॉकलेट शायद इसीलिए इतनी हिट है क्योंकि वो स्वीट है।

चॉकलेट का इतिहास
'चॉकलेट' इस शब्‍द के बारे में बहुत से तथ्‍य हैं। कुछ के अनुसार यह शब्‍द मूलत: स्‍पैनि‍श भाषा का शब्‍द है। ज्‍यादातर तथ्‍य बताते हैं कि‍ चॉकलेट शब्‍द माया और एजटेक सभ्‍यताओं की पैदाइश है जो मध्‍य अमेरि‍का से संबंध रखती हैं। एजटेक की भाषा नेहुटल में चॉकलेट शब्‍द का अर्थ होता है खट्टा या कड़वा।

चॉंकलेट की प्रमुख सामग्री केको या कोको के पेड़ की खोज 2000 वर्ष पूर्व अमेरिका के वर्षा वनों में की गई थी। इस पेड़ की फलियों में जो बीज होते हैं उनसे चॉकलेट बनाई जाते है। सबसे पहले चॉकलेट बनाने वाले लॉग मैक्सिको और मध्य अमेरिका के थे।

1528 में स्पेन ने जब मैक्सिको पर कब्जा किया तो वहाँ का राजा भारी मात्रा में कोको के बीजों और चॉकलेट बनाने के यंत्रों को अपने साथ स्पेन ले गया। जल्दी ही स्पेन में चॉकलेट रईसों का फैशनेबल ड्रिंक बन गया।

इटली के एक यात्री फ्रेंसिस्को कारलेटी ने सबसे पहले चॉकलेट पर स्पेन के एकाधिकार को खत्म किया। उसने मध्य अमेरिका के इंडियंस को चॉकलेट बनाते देखा और अपने देश इटली में भी चॉकलेट का प्रचार प्रसार किया। 1606 तक इटली में भी चॉकलेट प्रसिद्ध हो गई।

फ्रांस ने 1615 में ड्रिंकिंग चॉकलेट का स्वाद चखा। फ्रांस के लोगों को यह स्वास्थ्य की दृष्टि बहुत लाभदायक पदार्थ लगा। इंग्लैंड में चॉकलेट की आमद 1650 में हुई।
अभी तक लोग चॉकलेट को पीते थे। एक अंग्रेज डॉक्टर सर हैंस स्लोने ने दक्षिण अमेरिका का दौरा किया और खाने वाली चॉकलेट की रेसिपी तैयार की। सोचिए एक डॉक्टर और चॉकलेट की रेसिपी। कैडबरी मिल्क चॉकलेट की रेसिपी इन्हीं डॉक्टर ने बनाई।

आपको जानकार आश्चर्य होगा की पहले चॉकलेट तीखी हुआ करती थी और पी जाती थी। अमरिका के लोग कोको बीजों को पीसकर उसमें विभिन्न प्रकार के मसाले जैसे चिली वॉटर, वनीला, आदि डालकर एक स्पाइसी और झागदार तीखा पेय पदार्थ बनाते थे।

चॉकलेट को मीठा बनाने का श्रेय यूरोप को जाता है जिसने चॉकलेट से मिर्च हटाकर दूध और शक्कर डाली। चॉकलेट को पीने की चीज से खाने की चीज भी यूरोप ने ही बनाया।

यूथ की नजर में पर्सनल मसला है समलैंगिकता

समलैंगिकता को लेकर भले ही धार्मिक नेता हो हल्ला मचा रहे हैं, लेकिन नौजवान पीढ़ी इसे किसी का भी व्यक्तिगत मामला और आईपीसी के सेक्शन 377 को व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन मानती है। वहीं सायकायट्रिस्ट का कहना है कि इसके लिए काफी हद तक जेनेटिक कारण और फैमिली एनवायरनमेंट जिम्मेदार होता है। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन के मुताबिक समलैंगिकता दिमागी बीमारी नहीं है, यह एक व्यावहारिक दिक्कत है।

फॉरेन ऐंबंसी में काम करने वाली अर्चना का कहना है कि सेक्शन 377 खत्म होना चाहिए क्योंकि लोगों को उनकी सेक्सुअल प्रिफरेंस चुनने का हक देना चाहिए। लेकिन व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि शादी या सेक्स मेल-फीमेल के बीच ही होना चाहिए। ऐड एजंसी में क्रिएटिव राइटर बिमल कहते हैं कि इस दुनिया में बिना किसी को नुकसान पहुंचाए सभी को वह करने का हक है, जो वह चाहते हैं। सेक्सुअल प्रिफरेंस व्यक्तिगत मामला है। यहीं काम कर रहे आदित्य का मानना है कि इसके साथ ही समाज के नजरिए को भी बदलने की जरूरत है। अगर आप इसके खिलाफ हैं तो किसी को भी समझा सकते हैं और उसे अपनी बात पर सहमत कर सकते हैं लेकिन इसे अपराध नहीं माना जाना चाहिए।

मीडिया हाउस में काम करने वाली कामिनी का कहना है कि अगर हेल्थ की चिंता है तो अवेयरनेस बढ़ानी चाहिए, बल्कि होमोसेक्सुअल लोगों को सरकार को भरोसे में लेना चाहिए, ताकि वे खुलकर सामने आएं और अपने संदेह दुनिया के सामने रखें। सॉफ्टवेयर इंजीनियर साहिल कहते हैं कि फिल्मों सहित खबरों तक में जिस तरह से समलैंगिकता की बातें हो रही हैं, उससे सामान्य दोस्ती को भी शक की निगाह से देखा जाने लगा है। दोस्त अपने बीच की नजदीकी को पब्लिकली जाहिर करने से पहले सोचने लगे हैं।

वहीं लोगों की इस दुविधा पर सीनियर सायकायट्रिस्ट डॉ। संदीप वोहरा कहते हैं कि जरूरी नहीं कि हर दोस्ती समलैंगिकता हो। बार-बार इस तरह से शक करने पर बच्चों के मन पर गलत असर भी पड़ सकता है। पैरंट्स को शक करने के बजाय बच्चों से प्यार से साफ-साफ पूछ लेना चाहिए और अगर ऐसी कोई बात हो तो उन्हें प्यार से समझाएं और सायकायट्रिस्ट की मदद लें।

आखिर कोई क्यों समलैंगिक होता है?

आरएमएल हॉस्पिटल में सायकायट्री डिपार्टमेंट की हेड डॉ। स्मिता देशपांडे बताती हैं कि यह अभी तक पता नहीं लग पाया है, लेकिन केस स्टडी से पता चलता है कि इसके लिए काफी हद तक जेनेटिक कारण और फैमिली एनवायरनमेंट जिम्मेदार होता है। वह कहती हैं कि जिसकी फैमिली में पहले कोई समलैंगिक रह चुका हो, उसमें इसकी संभावना ज्यादा रहती है। डॉ. संदीप वोहरा कहते हैं कि अगर किसी बच्चे के मन में अपोजिट सेक्स वालों की नेगेटिव इमेज बन जाए तो वह भी सेम सेक्स की तरफ आकर्षित हो सकता है।

(पहचान छुपाने के लिए नाम बदले गए हैं।)

बैठे गले का इलाज़

कच्चा सुंहागा आधा ग्राम (मटर के बराबर सुहागे को टुकड़ा) मुँह में रखें और रस चुसते रहें। उसके गल जाने के बाद स्वरभंग तुरंत आराम हो जाता है। दो तीन घण्टों मे ही गला बिलकुल साफ हो जाता है। उपदेशकों और गायकों की बैठी हुई आवाज खोलने के लिये अत्युत्तम है।

या सोते समय एक ग्राम मुलहठी के चूर्ण को मुख में रखकर कुछ देर चबाते रहे। फिर वैसे ही मुँह में रखकर सो रहें। प्रातः काल तक गला अवश्य साफ हो जायेगा। मुलठी चुर्ण को पान के पत्ते में रखकर लिया जाय तो और भी आसान और उत्तम रहेगा। इससे प्रातः गला खुलने के अतिरिक्त गले का दर्द और सूजन भी दूर होती है।

या रात को सोते समय सात काली मिर्च और उतने ही बताशे चबाकर सो जायें। सर्दी जुकाम, स्वर भंग ठीक हो जाएगा। बताशे न मिलें तो काली मिर्च व मिश्री मुँह में रखकर धीरे-धीरे चुसते रहने से बैठा खुल जाता है।

या भोजन के पश्चात दस काली मिर्च का चुर्ण घी के साथ चाटें अथवा दस बताशे की चासनी में दस काली मिर्च का चुर्ण मिलाकर चाटें।

08 फ़रवरी 2010

सेक्‍स: महिलाओं के लिए कुछ टिप्‍स

क्या आप संभोग के अंतिम पड़ाव तक पहुंचने में असफल रहती हैं? संभोग के चरम आनंद तक पहुंचने में आपको कठिनाई होती है? या फिर रति निष्पत्ति से पहले ही आप ठंडी पड़ जाती हैं? यदि ऐसा है, तो घबराने की बात नहीं है। यह बात सच है कि पुरुष बिना किसी कठिनाई के संभोग के चरम आनंद तक पहुंच जाते हैं, लेकिन महिलाओं को वहां तक पहुंचने में समय लगता है।


पुरुष पार्टनर की भूमिका अहम
चूंकि गर्भधारण के लिए महिलाओं में रति निष्पत्ति होना जरूरी नहीं है, इसलिए डॉक्टर भी इस बात को ज्यादा तरजीह नहीं देते। हाल ही में अमेरिका में इसी बात पर एक शोध किया गया। शोध में पता चला कि महिलाएं चाहें तो हर बार चरम आनंद प्राप्त कर सकती हैं। बस कुछ बातों को ध्यान में रखने की जरूरत है। इसमें सबसे बड़ी भूमिका पुरुष पार्टनर की होती है। यदि वो सेक्स के बारे में ज्ञान रखता है और आपकी परवाह करता है तो वो आपको चरम आनंद तक पहुंचाने में जरूर मदद कर सकता है।

शोध में पाया गया है कि चरम आनंद तक पहुंचने में सबसे ज्यादा परेशानी 20 से 30 के बीच की उम्र में होती है। तकाम सेक्सोलॉजिस्ट कहते हैं कि यदि आप संभोग के दौरान चरम आनंद तक नहीं पहुंच पाती हैं, तो मैथुन करने के प्रयास करें। गुदा मैथुन चरम आनंद तक पहुंचने की क्रिया को सीखने में मदद करता है। एक शोध के मुताबिक 47 प्रतिशत स्त्रियां पहली बार मैथुन के दौरान ही चरम आनंद पर पहुंचती हैं।

चरम आनंद के लिए कुछ टिप्स
महिलाओं के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि यदि संभोग के बीच में वो रुक जाती हैं, तो वापस वही भावनाएं लाने में काफी समय लगता है। जबकि पुरुष जहां पर रुकते हैं वहीं से शुरू करते हैं। इसलिए संभोग से पहले अपने आस-पास से ऐसी वस्तुओं जैसे मोबाइल फोन, अलार्म घड़ी, टेलीफोन, आदि को हटा दें जो आपको डिस्टर्ब कर सकती है। कमरे की रोशनी कम कर दें।

इसके अलावा यदि आपको लगता है कि कोई बीच में आपके बेडरूम का दरवाजा खटखटा सकता है तो उसके लिए पहले से तैयार रहें। ऐसा होने पर एकदम से प्रतिक्रिया नहीं दें। सेक्स के दौरान सबसे महत्वपूर्ण होती हैं संभोग की क्रियाएं। यदि आपको चरम आनंद पहुंचने में दिक्कत आती है तो क्रियाएं बदल-बदल कर संभोग करें।

अलग-अलग तरीके से सेक्स करने पर चरम सुख तक पहुंचने में आसानी होती है। सबसे अहम बात यह है कि आप बीच-बीच में अपने पार्टनर को इस बात का अहसास दिलाती रहें कि वे रति निष्पत्ति के लिए थोड़ा रुक जाएं, जाकि आपको समय मिल सके। इसके अलावा संभोग से पहले पार्टनर को फोर प्ले के लिए उकसाने से भी लाभ मिलता है।

Hindi Book - ELove CH-25 तालीयोंकी गुंज

अंजली और शरवरी कॉफी हाऊसमें एकदुसरेके सामने बैठे थे और दोनो अपने अपने सोच मे डूबी धीरे धीरे कॉफीकी चुस्कीयां ले रही थी. उनमें एक अजिबसा सन्नाटा फैला हुवा था. आखिर अंजलीने उस सन्नाटेको भंग किया -

'' बराबर 2 दिन हो गए है ... उसकी अगली मेल अभीतक कैसे नही आई ? ''

'' शायद उसे शक हुवा होगा '' शरवरीने कहा।

'' ऐसाही लगता है ... '' अंजली आह भरती हुई बोली।

'' मुझे लग रहा था की इस बार हम उसे पकडनेमें जरुर कामयाब होंगे ... लेकिन अब मुझे चिंता होने लगी है की हम उसे कभी पकडनेमें कामयाबभी होंगे की नही '' अंजलीने कहा।

'' और हा उसे शक होना भी उतनाही खतरनाक है... उसने सारे फोटो अगर इंटरनेटपर डाले तो सारा ही खेल बिगड जाएगा ... और बदनामीभी होगी वह अलग '' शरवरीने कहा।

अंजलीने अपने सोचमें डूबे हूए हालतमें सिर्फ सर हिलाया।

'' एकही झटकेमें उसे पकडना जरुरी है ... नही तो अपना प्लान पुरा फेल हो जाएगा '' अंजलीने कहा ....

.... हॉलमें चल रहे तालीयोंकी गुंजसे अंजली अपने सोचके विश्वसे बाहर आ गई। उसने चारो तरफ अपनी नजरे दौडाई. भाटीयाजींका स्पीच खत्म हो चुका था और वे उसके बगलकेही सिटपर वापस आ रहे थे. वह उनके तरफ देखकर मुस्कुराई, मानो उनके स्पिचकी सराहना कर रही हो. उधर ऍन्कर फिरसे माईकके पास गया था और उसने ऐलान किया - '' अब मै पारितोषीक वितरणके लिए जी. एच. इन्फॉरमेटीक्सकी मॅनेजींग डायरेक्टर ... दि आय. टी वुमन ऑफ दिस इयर... मिस. अंजली अंजुळकर ... उन्हे आमंत्रित करता हूं ...''

अंजली उठ खडी होगई और माइकके पास चली गई। फिरसे हॉल तालीयोंसे गुंज उठा।

'' तो अब हम पारितोषीक वितरणके लिए आगे बढते है ... '' एन्करने माइकपर जाहिर किया।

''... जैसे आप लोग जानते हो ... इस प्रतियोगिता को जब जाहिर किया गया तब हमे इसमें भाग लेनेके लिए इच्छूक लोगोंका बहुत प्रतिसाद मिला... देशभरसे लगभग तिन हजार लोगोंके अप्लीकेशन फॉर्मस हमें मिले .... पहले छाननीमें हमनें उसमेंसे सिर्फ 50 अप्लीकेशन्स चूने ... और अब फायनलमें जो चुने है वे है सिर्फ तिन ... लेकिन उन तिन लोगोंके नाम जाननेके पहले हमें थाडा रुकना पडेगा। क्योंकी पहले हम कुछ लोगोंको कुछ प्रोत्साहनपर प्राईजेस देने वाले है ....''

प्रोत्साहनपर प्राइजेस देनेमें जादा समय न बिताते हूए ऍन्कर एक एकको स्टेजपर बुला रहा था और अंजली उनको प्राईज देकर उनको शाबासकी देकर उनकी वहांसे रवानगी कर रही थी। प्रोत्साहनपर प्राईजेस खत्म हूए वैसे लोगोंमे फिरसें उत्साह बढता हूवा दिखने लगा।

'' अब जिन तिनोंके नाम जाननेके लिए हम उत्सुक है वह वक्त आ चुका है ... सबसे पहले मै तिसरा प्राईज जिसे मिला उस प्रतियोगीका नाम जाहिर करने वाला हूं ... '' एन्करने सब लोगोंकी जिज्ञासा और बढाते हूए एक बडा पॉज लिया , '' तिसरा प्राईज है 1 लाख रुपये कॅश और मोमेंटो... तो थर्ड प्राईज... मि। अमोल राठोड फ्रॉम जयपूर... प्लीज कम ऑन द स्टेज... ''

हॉलमें तालियां गुंजने लगी। एक पतलासा सावला 20 -22 जिसकी उम्र होगी ऐसा एक लडका सामनेके दसमेंसे एक कतारमेंसे खडा होकर स्टेजकी तरफ जाने लगा। उस प्रतियोगीकी तरफ देखकर किसे लगेगा नही की उसे तिसरा प्राईज मिल सकता है ... लेकिन उसके चलनेमें एक जबरदस्त आत्मविश्वास झलक रहा था। अमोल राठोड स्टेजपर आया। जिस आत्मविश्वाससे वह चला था उसी आत्मविश्वासके साथ उसने पुरस्कारका स्विकार किया और अंजलीसे हस्तांदोलन किया। हॉलमें मेडीयाकी भी काफी उपस्थिती थी। पुरस्कार स्विकार करते वक्त बिजली चमकें ऐसे फोटोंकें फ्लॅश दोनोंके उपर चमक रहे थे।

फिरसे हॉलमें मानो जोरसे बारिश हो ऐसे लोगोंने तालियां बजाई। अमोल राठोड स्टेजसे उतरकर फिरसे अपने कुर्सीकी तरफ जाने लगा वैसे ऍन्कर दुसरा प्राईज जिसे मिला उसके नामका ऐलान करनेके लिए सामने आया,

'' दुसरा पारितोषीक है 1।5 लाख रुपये कॅश और मोमेंटो... तो थर्ड प्राईज गोज टू... मिस. अनघा देशपांडे फ्रॉम पुणे ... प्लीज कम ऑन द स्टेज... ''

हॉलमें फिरसे तालियां बजने लगी। एक गोरी उंची पतली नाजूकसी लगभग 20-21 सालकी युवती स्टेजपर आने लगी। अंजली शायद वह खुदभी एक स्त्री होनेसे उस लडकीकी तरफ आंखे भरकर देख रही थी। अनघा स्टेजपर अंजलीके पास आ गई। पुरस्कार देकर अंजलीने उसे गले लगा लिया। फिरसे कॅमेरेके फ्लॅश जैसे बिजली चमके ऐसे चमकने लगे।

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Hindi Book - Elove CH-24 कॉम्पीटीशन

'इथीकल हॅकींग कॉम्पीटीशन - ऑर्गनायझर - नेट सेक्यूरा' ऐसा एक बॅनर बडे अक्षरोंमें स्टेजपर लगाया गया था। आज कॉम्पीटीशन का आखरी दिन था और जितनेवालोंके नाम घोषीत किए जाने थे। पारीतोषीक वितरणके लिए प्रमुख अतिथीके तौर पर अंजलीको बुलाया गया था। स्टेजपर उस बॅनरके बगलमें अंजली प्रमुख अतिथी के लिए आरक्षित कुर्सीपर बैठी हुई थी। और उसके बगलमें एक अधेड उम्र आदमी, भाटीयाजी बैठे थे। वे 'नेट सेक्यूरा' के हेड थे। तभी स्टेजके पिछेसे ऍन्कर सामने माईकके पास जाकर बोलने लगा,

'' गुड मॉर्निंग लेडीज ऍंड जन्टलमन... जैसे की आप सब लोग जानते हो की हमारी कंपनी '' नेट सेक्यूराका यह सिल्वर जूबिली साल है और उसी सिलसिले में हमने 'इथीकल हॅकींग' इस प्रतियोगीता का आयोजन किया था ... आज हम उस प्रतियोगीताके आखरी दौरसे यानीकी पारितोषीक वितरणके दौरसे गुजरने वाले है ... इस पारितोषीक वितरण के लिए हमने एक खास मेहमान को यहां आमंत्रित किया है ... जिन्हे हालहीमें 'आय टी वूमन ऑफ द ईयर' सम्मान देकर गौरवान्वीत किया गया है ... ''

हॉलमें बैठे सब लोगोंकी नजरे स्टेजपर बैठे अंजलीपर टीक गई थी। अंजलीनेभी एक मंद स्मित बिखेरते हूए हॉलमें बैठे लोगोंपर एक नजर दौडाई।

'' और उन खास मेहमानका नाम है ... मिस अंजली अंजुळकर .... उनके स्वागतके लिए मै स्टेजपर हमारे एक्सीक्यूटीव मॅनेजर श्रीमती नगमा शेख इन्हे आमंत्रित करता हूं ...''

श्रीमती नगमा शेखने स्टेजपर आकर फुलोंका गुलदस्ता देकर अंजलीका स्वागत किया। अंजलीनेभी खडे होकर उस गुलदस्तेका बडे विनयके साथ अभिवादन करते हूए स्विकार किया. हॉलमें तालीयां गुंज उठी. मानो एक पलमें वहां उपस्थित लोगोंके शरीमें उत्साह प्रवेश कर गया हो. तालीयोंकी आवाज थमतेही ऍन्कर आगे बोलने लगा -

'' अब मै स्टेजपर उपस्थित हमारे मॅनेजींग डायरेक्टर श्री। भाटीयाजीके स्वागतके लिए हमारे मार्केटींग मॅनेजर श्री. सॅम्यूअल रेक्सजीको यहां आमंत्रित करता हूं ...''

श्री। सॅम्यूअल रेक्सने स्टेजपर जाकर भाटीयाजीका एक गुलदस्ता देकर स्वागत किया। हॉलमें फिरसे तालियां गुंज उठी।

'' अब भाटीयाजींको मै बिनती करता हूं की वे यहां आकर दो शब्द बोलें '' ऍन्करने माईकपर कहां और वह भाटीयाजींकी माईकके पास आनेकी राह देखते हूए खडा रहा।

भाटीयाजी खुर्चीसे उठकर खडे हो गए। उन्होने एक बार अंजलीकी तरफ देखा। दोनों एक दुसरेकी तरफ देखकर मुस्कुराए। और अपना मोटा शरीर संभालते हूए धीरे धीरे चलते हूए भाटीयाजी माईकके पास आकर पहूंच गए।

'' आज इथीकल हॅकींग इस स्पर्धाके लिए आमंत्रित की गई ... जी।एच इन्फॉर्मॆटीक्स इस कंपनीकी मॅनेजींग डायरेक्टर और आय टी वूमन ऑफ दिस इयर मिस अंजली अंजुळकर, यहां उपस्थित मेरे कंपनीके सिनीयर आणि जुनियर स्टाफ मेंबर्स, इस स्पर्धामें शामिल हूए देशके कोने कोनेसे आए उत्साही युवक आणि युवतीयां, और इस स्पर्धाका नतिजा जाननेके लिए उत्सुक लेडीज ऍन्ड जन्टलमन... सच कहूं तो ... यह एक स्पर्धा है इसलिए नही तो हर एक के जिंदगी की हर एक बात एक स्पर्धाही होती है ... लेकिन स्पर्धा हमेशा खिलाडू वृत्तीसे खेली जानी चाहिए ॥ अब देखो ना ... यह इतना बडा अपने कंपनीके स्टाफका समुदाय देखकर मुझे एक पुरानी बात याद आ गई ... की 1984 में हमने यह कंपनी शुरु की थी.... तब इस कंपनीके स्टाफकी गिनती सिर्फ 3 थी ... मै और, और दो सॉफ्टवेअर इंजिनिअर्स... और तबसे हमने हर दिन लढते झगडते .... हर दिनको एक स्पर्धा एक कॉंपीटीशन समझते हूए हम आज इस स्थितीमें पहूंच गए है..... मुझे यह बताते हूए खुशी और अभिमान होता है की आज अपने कंपनीने इस देशमेंही नही तो विदेशमेंभी अपना झंडा फहराया है और आज अपने स्टाफकी गिनती... 30000 के उपर पहूंच चूकी है ...''

हॉलमें फिरसे एकबार लोगोंने तालियां बजाते हूए हॉल सर पर उठा लिया। तालीयां थमनेके बाद भाटीयाजी फिरसे आगे बोलने लगे. लेकिन स्टेजपर बैठी अंजली उनका भाषण सुनते हूए कब अपने खयालोंमे डूब गई उसे पताही नही चला ...

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Hindi Book - ELove CH-23 अवार्ड

उस दिलको दर्द देनेवाले, नही दिल को पुरी तरह तबाह कर देनेवाले घटनाको घटकर अब लगभग 10-15 दिन हो गए होंगे। उस घटना को जितना हो सके उतना भूलनेकी कोशीश करते हूए अंजली अब पहले जैसे अपने काममें व्यस्त हो गई थी। या यू कहिए उन घटनासे होनेवाले दर्दसे बचनेके लिए उसने खुदको पुरी तरह अपने काममें व्यस्त कर लिया था। उसी बिच अंजलीको आयटी क्षेत्रमें भूषणाह समझे जाने वाला 'आय टी वुमन ऑफ द ईअर' अवार्ड मिला। उस अवार्डकी वजहसे उसके यहां प्रेसवालोंका तांता लगने लगा था। उस भिडकी अब अंजलीकोभी जरुरत महसूस होने लगी थी। क्योंकी उस तरहसे वह अपने अकेलेपनसे और कटू यादोंसे बच सकती थी। पिछले चारपांच दिनसे लगभग रोजही कभी न्यूजपेपरमें तो कभी टिव्हीपर उसके इंटरव्हू आ रहे थे।

अंजली ऑफीसमें बैठी हूई थी। शरवरी उसके बगलमेंही बैठकर उसके कॉम्प्यूटरपर काम कर रही थी। उस बुरे अनुभवके बाद अंजलीका चॅटींग और दोस्तोंको मेल भेजना एकदमही कम हुवा था। खाली समयमें वह यूंही बैठकर शुन्यमें ताकते हुए सोचते बैठती थी। उसके दिमागमें मानो अलग अलग तरहकी विचारोंका सैलाब उठता था। लेकिन वह तुरंत उन विचारोंको अपने दिमागसे झटकती थी। अबभी उसके मनमें विचारोंका सैलाब उमड पडा था। उसने तुरंत अपने दिमागमें चल रहे विचार झटकर अपने मनको दुसरे किसी चिजमे व्यस्त करनेके लिए टेबलका ड्रावर खोला। ड्रॉवरमें उसे उसने संभालकर रखे हूए न्यूजपेपरके कुछ कटींग्ज दिखाई दिए। ' आय टी वुमन ऑफ द इअर - अंजली अंजुळकर' न्यूज पेपरके एक कटींगपर हेडलाईन थी। उसने वह कटींग बाहर निकालकर टेबलपर फैलाया और वह फिरसे वह समाचार पढने लगी।

यह समाचार पढनेके लिए अब इस वक्त मेरे पिताजी होने चाहिए थे....

उसके जहनमें एक विचार आकर गया।

उन्हे कितना गर्व महसूस हुवा होता... अपनी बेटीका ...

लेकिन भाग्यके आगे किसका कुछ चला है? ...

अब देखोना अभी अभी आया हुवा विवेकका ताजा अनुभव ...

वह सोच रही थी तभी कॉम्प्यूटरका बझर बजा।

काफी दिनोंसे चॅटींग और मेलींग कम करनेके बाद ज्यादातर उसे किसीका मेसेज नही आता था ....

फिर यह आज किसका मेसेज होगा ...

कोई हितचिंतक?...

या कोई हितशत्रू...

आजकल कैसे हर बातमें उसे दोनो पहेलू दिखते थे - एक अच्छा और एक बुरा। ठेस पहूंचनेपर आदमी कैसे संभल जाता है और हर कदम सोच समझकर बढाता है।

अंजलीने पलटकर मॉनीटरकी तरफ देखा।

'' विवेकका मेसेज है ...'' कॉम्प्यूटरपर बैठी शरवरी अंजलीकी तरफ देखकर सहमकर बोली। शरवरीके चेहरेपर डर और आश्चर्य साफ नजर आ रहा था। वह भावनाए अब अंजलीके चेहरेपरभी दिख रही थी। अंजली तुरंत उठकर शरवरीके पास गई। शरवरी अंजलीको कॉम्प्यूटरके सामने बैठनेके लिए जगह देकर वहांसे उठकर बगलमें खडी हो गई। अंजलीने कॉम्प्यूटरपर बैठनेके पहले शरवरीको कुछ इशारा किया वैसे शरवरी तुरंत दरवाजेके पास जाकर जल्दी जल्दी कॅबिनसे बाहर निकल गई।

'' मिस। अंजली ... हाय ... कैसी हो ?'' विवेकका उधरसे आया मेसेज अंजलीने पढा।

एक पल उसने कुछ सोचा और वह भी चॅटींगका मेसेज टाईप करने लगी -

'' ठीक है ... '' उसने मेसेज टाईप किया और सेंड बटनपर क्लीक करते हूए उसे भेज दिया।

'' तुम्हे फिरसे तकलिफ देते हूए मुझे बुरा लग रहा है ... लेकिन क्या करे? ... पैसा यह साली चिजही वैसी है ... कितनेभी संभलकर इस्तमाल करो तो भी खतम हो जाती है ...'' उधरसे विवेकका मेसेज आ गया।

अंजलीको शक थाही की कभी ना कभी वह और पैसे मांगेगा ...

'' मुझे इस बार 20 लाख रुपएकी सख्त जरुरत है ...'' उधरसे विवेकका मेसेज आ गया।

अभी तो तुम्हे 50 लाख रुपए दिए थे ... अब मेरे पास पैसे नही है ...'' अंजलीने झटसे टाईप करते हूए मेसेज भेज भी दिया।

मेसेज टाईप करते हूए उसके दिमागमें औरभी काफी विचारोंका चक्र चल रहा था।

'' बस यह आखरी बार ... क्योंकी यह पैसे लेकर मै परदेस जानेकी सोच रहा हूं '' उधरसे विवेकका मेसेज आया।

'' तुम परदेस जावो ... या और कही जावो ... मुझे उससे कुछ लेना देना नही है ... देखो ... मेरे पास कोई पैसोका पेढ तो नही है ... '' अंजलीने मेसेज भेजा।

'' ठिक है ... तुम्हे अब मुझे कमसे कम 10 लाख रुपए तो भी देने पडेंगे ... पैसे कब कहा और कैसे पहूंचाने है वह मै तुम्हे मेल कर सब बता दुंगा ...'' उधरसे मेसेज आया।

अंजली कुछ टाईप कर उसे भेजनेसे पहलेही विवेकका चॅटींग सेशन बंद हो गया था। अंजली एकटक उसके सामने रखे कॉम्प्यूटरके मॉनिटरकी तरफ देखने लगी। वह देखतो मॉनिटरके तरफ थी लेकिन उसके दिमागमें विचारोंका तांता लग गया था। लेकिन फिरसे उसके दिमागमें क्या आया क्या मालूम?, वह झटसे उठकर खडी हो गई और लंबे लंबे कदम भरते हूए कॅबिनसे बाहर निकल गई।

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Hindi Books - ELove CH-22 ब्रिफकेस

घना जंगल। जंगलमें चारो तरफ बढे हूए उंचे उंचे पेढ। और पेढोंके निचे सुखे पत्ते फैले हूए थे। जंगलके पेढोंके बिचसे बने संकरे जगहसे रास्ता ढूंढते हूए एक काली, काले कांच चढाई हूई, कार तेडेमेडे मोड लेते हूए सुखे पत्तोसे गुजरने लगी। उस कारके चलनेके साथही उस सुखे पत्तोका एक अजिब मसलने जैसा आवाज आ रहा था। धीरे धीरे चल रही वह कार उस जंगलसे रास्ता निकालते हूए एक पेढके पास आकर रुकी। उस कारके ड्रायव्हर सिटका काला शिशा धीरे धीरे निचे सरक गया। ड्रायव्हींग सिटपर अंजली काला गॉगल पहनकर बैठी हूई थी। उसने कारका इंजीन बंद किया और बगलके पेढके तनेपर लगे लाल निशानकी तरफ देखा।

उसने यही वह पेढ ऐसा मनही मन पक्का किया होगा...

फिर उसने जंगलमें चारो ओर एक नजर दौडाई। दुर-दुरतक कोई परींदाभी नही दिख रहा था। आसपास किसीकीभी उपस्थिती नही है इसका यकिन होतेही उसने अपने बगलके सिटपर रखी ब्रिफकेस उठाकर पहले अपने गोदीमें ली। ब्रिफकेसपर दो बार अपना हाथ थपथपाकर उसने अपना इरादा पक्का किया होगा। और मानो अपना इरादा डगमगा ना जाए इस डरसे उसने झटसे वह ब्रिफकेस कारके खिडकीसे उस पेढके तरफ फेंक दी। धप्प और साथही सुखे पत्तोंका मसलनेजैसा एक अजिब आवाज आया।

होगया अपना काम तो होगया ...

चलो अब अपनी इस मसलेसे छूट्टी होगई...

ऐसा सोचते हूए उसने छुटनेके अहसाससे भरी लंबी आह भरी। लेकिन अगलेही क्षण उसके मनमें एक खयाल आया।

क्या सचमुछ वह इस सारे मसलेसे छूट चूकी थी? ...

या वह अपने आपको एक झूटी तसल्ली दे रही थी...

उसने फिरसे चारो तरफ देखा। आसपास कहीभी कोई मानवी हरकत नही दिख रही थी। उसने फिरसे कार स्टार्ट की। और एक मोड लेते हूए कार वहांसे तेज गतिसे चली गई। मानो वहांसे निकल जाना यह उसके लिए इस मसलेसे हमेशाके लिए छूटनेजैसा था।

जैसेही कार वहांसे चली गई, उस सुनसान जागहके एक पेढके उपर, उंचाईपर कुछ हरकत हो गई। उस पेढके उपर उंचाई पर बैठे, हरे पेढके पत्तोके रंगके कपडे पहने हूए एक आदमीने उसी हरे रंगका वायरलेस बोलनेके लिए अपने मुंहके पास लीया।

'' सर एव्हरी थींग इज क्लिअर ... यू कॅन प्रोसीड'' वह वायरलेसपर बोला और फिरसे अपनी पैनी नजर इधर उधर घूमाने लगा। शायद वह, वहांसे चली गई कार कही वापस तो नही आ रही है, या उस कारका पिछा करते हूए वहां और कोई तो नही आयाना, इस बातकी तसल्ली करता होगा।

'' सर एव्हती थींग इज क्लिअर... कन्फर्मींग अगेन'' वह फिरसे वायरलेसपर बोला।

उस पेढपर बैठे आदमीका इशारा मिलतेही जिस पेढके तनेको लाल निशान लगाया हुवा था, उस पेढके बगलमेंही एक बढा सुखे हूए पत्तोका ढेर था, उसमें कुछ हरकत होगई। कार शुरु होनेका आवाज आया और उस सुखे हूए पत्तोके ढेरको चिरते हूए, उसमेंसे एक कार बाहर आ गई। वह कार धीर धीरे आगे सरकती हूई जहां वह ब्रीफकेस पडी हूई थी वहा गई। कारसे एक काले कपडे पहना हूवा और मुंहपरभी काले कपडे बंधा हूवा एक आदमी बाहर आ गया। उसने अपनी पैनी नजरसे इधर उधर देखा। जहां उसका आदमी पेढपर बैठा हूवा था उधरभी देखा और उसे अंगुठा दिखाकर इशारा किया। बदलेमें उस पेढपर बैठे आदमीनेभी अंगूठा दिखाकर जवाब दिया। शायद सबकुछ कंट्रोलमें होनेका संकेत दिया। उस कारमेंसे उतरे, उस काले कपडे पहने आदमीने आसपास कोई उसे देखतो नही रहा है इसकी तसल्ली करते हूए वह निचे पडी हूई ब्रीफकेस धीरेसे उठाई। ब्रीफकेस उठाकर कारके बोनेटपर रखकर खोलकर देखी। हजार रुपयोंके एकके उपर एक ऐसे रखे हूए बंडल्स देखतेही उसके चेहरेपर काले कपडेके पिछे, एक खुशीकी लहर जरुर दौड गई होगी। और उन नोटोंकी खुशबू उसके नाकसे होते हूए उसके मश्तिश्क तक उसे एक नशा चखाती हूए दौड गई होगी। उसने उसमेंसे एक बंडल उठाकर उंगली फेरकर देखकर फिरसे ब्रिफकेसमें रख दिया। उसने फिरसे ब्रिफकेस बंद की। पेढपर बैठे आदमीको फिरसे अंगुठा दिखाकर सबकुछ ठिक होनेका इशारा किया। वह काला साया वह ब्रिफकेस उठाकर फिरसे अपने कारमें जाकर बैठ गया। कारका दरवाजा बंद हो गया, कार शुरु होगई और धीरे धीरे गति पकडती हूई तेज गतिसे वहांसे अदृष्य होगई। मानो वहांसे जल्द से जल्द निकल जाना उस कारमें बैठे आदमीके लिए उन नोटोंपर जल्द से जल्द कब्जा जमाने जैसा था।

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Hindi Books - ELove CH-21 विवेक कहा गया होगा ?

जॉनी अपनेही धुनमें मस्त मजेमें सिटी बजाते हूए रास्तेपर चल रहा था। तभी उसे पिछेसे किसीने आवाज दिया।

'' जॉनी...''

जॉनीने वही रुककर सिटी बजाना रोक दिया। आवाज पहचानका नही लग रहा था इसलिए उसने पिछे मुडकर देखा। एक आदमी जल्दी जल्दी उसीके ओर आ रहा था। जॉनी असमंजससा उस आदमीकी तरफ देखने लगा क्योंकी वह उस आदमीको पहचानता नही था।

फिर उसे अपना नाम कैसे पता चला ?..

जॉनी उलझनमें वहा खडा था। तबतक वह आदमी आकर उसके पास पहूंच गया।

'' मै विवेकका दोस्त हूं ... मै उसे कलसे ढूंढ रहा हूं ... मुझे कॅफेपर काम करनेवाले लडकेने बताया की शायद तुम्हे उसका पता मालूम हो '' वह आदमी बोला।

शायद उस आदमीने जॉनीके मनकी उलझन पढ ली थी।

'' नही वैसे वह मुझेतो बताकर नही गया। ... लेकिन कल मै उसके होस्टेलपर गया था... वहां उसका एक दोस्त बता रहा था की वह 10-15 दिनके लिए किसी रिस्तेदारके यहां गया है ...'' जॉनीने बताया।

'' कौनसे रिस्तेदारके यहां ?'' उस आदमीने पुछा।

'' नही उतना तो मुझे मालूम नही ... उसे मैने वैसा पुछाभी था लेकिन वह उसेभी पता नही था ... उसे सिर्फ उसकी मेल मिली थी '' जॉनीने जानकारी दी।

अंजली अपने कुर्सीपर बैठी हूई थी और उसके सामने रखे टेबलपर एक बंद ब्रिफकेस रखी हूई थी। उसके सामने शरवरी बैठी हूई थी। उनमें एक अजीबसा सन्नाटा छाया हूवा था. अचानक अंजली उठ खडी हो गई और अपना हाथ धीरेसे उस ब्रिफकेसपर फेरते हूए बोली, '' सब पहेलूसे अगर सोचा जाए तो एकही बात उभरकर सामने आती है ..''

अंजली बोलते हूए रुक गई। लेकीन शरवरीको सुननेकी बेसब्री थी।

'' कौनसी ?'' शरवरीने पुछा।

'' ... की हमें उस ब्लॅकमेलरको 50 लाख देनेके अलावा फिलहाल अपने पास कोई चारा नही है ... और हम रिस्क भी तो नही ले सकते ''

'' हां तुम ठिक कहती हो '' शरवरी शुन्यमें देखते हूए, शायद पुरी घटनापर गौर करते हूए बोली।

अंजलीने वह ब्रिफकेस खोली। ब्रिफकेसमें हजार हजारके बंडल्स ठिकसे एक के उपर एक करके रखे हूए थे. उसने उन नोटोंपर एक नजर दौडाई, फिर ब्रिफकेस बंद कर उठाई और लंबे लंबे कदम भरते हूए वह वहांसे जाने लगी. तभी उसे पिछेसे शरवरीने आवाज दिया -

'' अंजली...''

अंजली ब्रेक लगे जैसे रुक गई और शरवरीके तरफ मुडकर देखने लगी।

'' अपना खयाल रखना '' शरवरीने अपनी चिंता जताते हूए कहा।

अंजली दो कदम फिरसे अंदर आ गई, शरवरीके पास गई, शरवरीके कंधेपर उसने हाथ रखा औड़ मुडकर फिरसे लंबे लंबे कदम भरते हूए वहांसे चली गई।

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रामायण – उत्तरकाण्ड - राजा दण्ड की कथा

महर्षि अगस्त्य से श्‍वेत की कथा सुनकर श्रीरामचन्द्र ने पूछा, "मुनिराज! कृपया यह और बताइये कि जिस भयंकर वन में विदर्भराज श्‍वेत तपस्या करते थे, वह वन पशु-पक्षियों से रहित क्यों हो गया था?"

रघुनाथ जी की जिज्ञासा सुनकर महर्षि अगस्त्य ने बताया, "सतयुग की बात है, जब इस पृथ्वी पर मनु के पुत्र इक्ष्वाकु राज्य करते थे। राजा इक्ष्वाकु के सौ पुत्र उत्पन्न हुये। उन पुत्रों में सबसे छोटा मूर्ख और उद्‍दण्ड था। इक्ष्वाकु समझ गये कि इस मंदबुद्धि पर कभी न कभी दण्डपात अवश्य होगा। इसलिये वे उसे दण्ड के नाम से पुकारने लगे। जब वह बड़ा हुआ तो पिता ने उसे विन्ध्य और शैवल पर्वत के बीच का राज्य दे दिया। दण्ड ने उस सथान का नाम मधुमन्त रखा और शुक्राचार्य को अपना पुरोहित बनाया।

"एक दिन राजा दण्ड भ्रमण करता हुआ शुक्राचार्य के आश्रम की ओर जा निकला। वहाँ उसने शुक्राचार्य की अत्यन्त लावण्यमयी कन्या अरजा को देखा। वह कामपीड़ित होकर उसके साथ बलात्कार करने लगा। जब शुक्राचार्य ने अरजा की दुर्दशा देखी तो उन्होंने शाप दिया कि दण्ड सात दिन के अन्दर अपने पुत्र, सेना आदि सहित नष्ट हो जाय। इन्द्र ऐसी भयंकर धूल की वर्षा करेंगे जिससे उसका सम्पूर्ण राज्य ही नहीं, पशु-पक्षी तक नष्ट हो जायेंगे। फिर अपनी कन्या से उन्होंने कहा कि तू इसी आश्रम में इस सरोवर के निकट रहकर ईश्‍वर की आराधना और अपने पाप का प्रायश्‍चित कर। जो जीव इस अवधि में तेरे पास रहेंगे वे धूल की वर्षा से नष्ट नहीं होंगे। शुक्राचात्य के शाप के कारण दण्ड, उसका राज्य और पशु-पक्षी आदि सब नष्ट हो गये। तभी से यह भूभाग दण्डकारण्य कहलाता है।" यह वृतान्त सुनकर श्रीराम विश्राम करने चले गये। दूसरे दिन प्रातःकाल वे वहाँ से विदा हो गये।

महाभारत - एकलव्य की गुरुभक्ति

आचार्य द्रोण राजकुमारों को धनुर्विद्या की विधिवत शिक्षा प्रदान करने लगे। उन राजकुमारों में अर्जुन के अत्यन्त प्रतिभावान तथा गुरुभक्त होने के कारण वे द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य थे। द्रोणाचार्य का अपने पुत्र अश्वत्थामा पर भी विशेष अनुराग था इसलिये धनुर्विद्या में वे भी सभी राजकुमारों में अग्रणी थे, किन्तु अर्जुन अश्वत्थामा से भी अधिक प्रतिभावान थे। एक रात्रि को गुरु के आश्रम में जब सभी शिष्य भोजन कर रहे थे तभी अकस्मात् हवा के झौंके से दीपक बुझ गया। अर्जुन ने देखा अन्धकार हो जाने पर भी भोजन के कौर को हाथ मुँह तक ले जाता है। इस घटना से उन्हें यह समझ में आया कि निशाना लगाने के लिये प्रकाश से अधिक अभ्यास की आवश्यकता है और वे रात्रि के अन्धकार में निशाना लगाने का अभ्यास करना आरम्भ कर दिया। गुरु द्रोण उनके इस प्रकार के अभ्यास से अत्यन्त प्रसन्न हुये। उन्होंने अर्जुन को धनुर्विद्या के साथ ही साथ गदा, तोमर, तलवार आदि शस्त्रों के प्रयोग में निपुण कर दिया।

उन्हीं दिनों हिरण्य धनु नामक निषाद का पुत्र एकलव्य भी धनुर्विद्या सीखने के उद्देश्य से द्रोणाचार्य के आश्रम में आया किन्तु निम्न वर्ण का होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे अपना शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया। निराश हो कर एकलव्य वन में चला गया। उसने द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उस मूर्ति को गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। एकाग्रचित्त से साधना करते हुये अल्पकाल में ही वह धनु्र्विद्या में अत्यन्त निपुण हो गया।

एक दिन सारे राजकुमार गुरु द्रोण के साथ आखेट के लिये उसी वन में गये जहाँ पर एकलव्य आश्रम बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। राजकुमारों का कुत्ता भटक कर एकलव्य के आश्रम में जा पहुँचा। एकलव्य को देख कर वह भौंकने लगा। इससे क्रोधित हो कर एकलव्य ने उस कुत्ते अपना बाण चला-चला कर उसके मुँह को बाणों से से भर दिया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाये थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी किन्तु बाणों से बिंध जाने के कारण उसका भौंकना बन्द हो गया।

कुत्ते के लौटने पर जब अर्जुन ने धनुर्विद्या के उस कौशल को देखा तो वे द्रोणाचार्य से बोले, "हे गुरुदेव! इस कुत्ते के मुँह में जिस कौशल से बाण चलाये गये हैं उससे तो प्रतीत होता है कि यहाँ पर कोई मुझसे भी बड़ा धनुर्धर रहता है।" अपने सभी शिष्यों को ले कर द्रोणाचार्य एकलव्य के पास पहुँचे और पूछे, "हे वत्स! क्या ये बाण तुम्हीं ने चलाये है?" एकलव्य के स्वीकार करने पर उन्होंने पुनः प्रश्न किया, "तुम्हें धनुर्विद्या की शिक्षा देने वाले कौन हैं?" एकलव्य ने उत्तर दिया, "गुरुदेव! मैंने तो आपको ही गुरु स्वीकार कर के धनुर्विद्या सीखी है।" इतना कह कर उसने द्रोणाचार्य की उनकी मूर्ति के समक्ष ले जा कर खड़ा कर दिया।

द्रोणाचार्य नहीं चाहते थे कि कोई अर्जुन से बड़ा धनुर्धारी बन पाये। वे एकलव्य से बोले, "यदि मैं तुम्हारा गुरु हूँ तो तुम्हें मुझको गुरुदक्षिणा देनी होगी।" एकलव्य बोला, "गुरुदेव! गुरुदक्षिणा के रूप में आप जो भी माँगेंगे मैं देने के लिये तैयार हूँ।" इस पर द्रोणाचार्य ने एकलव्य से गुरुदक्षिणा के रूप में उसके दाहिने हाथ के अँगूठे की माँग की। एकलव्य ने सहर्ष अपना अँगूठा दे दिया। इस प्रकार एकलव्य अपने हाथ से धनुष चलाने में असमर्थ हो गया तो अपने पैरों से धनुष चलाने का अभ्यास करना आरम्भ कर दिया।

विवादों का विश्वविद्यालय

रवींद्र नाथ टैगोर के सपनों की विश्वभारती की परंपरा में भ्रष्टाचार, कुप्रबंधन और गुटबाजी का पलीता लगा हुआ है। विश्वविद्यालय का गुरुकुल जैसा परिसर इन दिनों राजनीति का अखाड़ा बना हुआ है। इस संस्थान की स्थापना के समय पुरातन गुरुकुल परंपरा के आदर्श को ध्यान में रखा गया था। इस संस्थान के संस्थापक के शब्दों में यहाँ विश्व भर की शिक्षा की प्यास बुझेगी। आज की तारीख में यह संस्थान विवादों के केंद्र में है। भ्रष्टाचार से लेकर खस्ताहाल प्रबंधन तक के आरोपों का अंबार लगा हुआ है। आखिर कैसे बिगड़े हालात?

यहाँ बात बंगाल के शांतिनिकेतन स्थित प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय विश्वभारती की हो रही है। संस्थापक गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर का जमाना देख चुके लोग आज इसके मौजूदा हालात पर खून के आंसू रो रहे हैं। यहाँ के कुलपति रजत कांत राय के खिलाफ धन लेकर मनमर्जी से नियुक्तियां करने, फर्जी मेडिकल बिल जमा कर 10 लाख से अधिक रुपए का री-इंबर्शमेंट लेने, यहाँ के प्राथमिक स्कूल में अपने रिश्तेदारों को नौकरियाँ देने और गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर की कुछ पेंटिंग्स को अवैध तरीके से एक निजी कंपनी को बेच देने से आरोप लग रहे हैं। विश्वविद्यालय परिसर में पिछले 15 सितंबर से धरना-प्रदर्शन पर बैठे विश्वभारती के शिक्षकों-कर्मचारियों के संगठनकर्मी सभा के अध्यक्ष देवव्रत सरकार का दावा है कि 12वीं पास लोगों तक को शिक्षक पद पर नियुक्त कर लिया गया है।

हालात यह हैं कि विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से कर्मी सभा के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई गई। मामला आगे बढ़ा और भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर सीबीआई जांच की मांग पर 24 अक्टूबर से विश्वविद्यालय में हड़ताल करा दी गई। उसी दिन बेहद नाटकीय अंदाज में कर्मी सभा के खिलाफ विश्वविद्यालय के वीसी भी धरने पर बैठ गए। वीसी ने राज्यपाल से मिलकर अपना पक्ष रखा है लेकिन हालात बिगड़ते जा रहे हैं। विश्वविद्यालय में गुटबाजी चरम पर है। अब ताजा घटनाक्रमों के संदर्भ में विश्वविद्यालय के काले अतीत की खूब चर्चा है।

गुटबाजी की स्थिति तब से ही चली आ रही है, जब 1951 में इसे केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा मिला। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने महान वैज्ञानिक सत्येंद्र नाथ बोस को यहाँ का वीसी बनाया था। उनके जमाने में चित्रकार रामकिंकर बैज और अंग्रेजी के एक वरिष्ठ प्राध्यापक के बीच गुटबाजी चरम पर थी। कैंपस दो गुटों में बंट गया था। विवाद बढ़ा तो नेहरूजी ने मशहूर कृषि वैज्ञानिक लियोनार्द एमहर्स्ट की अगुवाई में जांच आयोग बिठाया, जिसने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि वीसी बोस प्रतिष्ठित वैज्ञानिक हैं लेकिन अच्छे प्रशासक नहीं।

उस जमाने में हालात गुटबाजी और अन्य प्रशासनिक दायित्वों को लेकर सीमित रहे लेकिन रवींद्र के सपनों के इस मंडप पर 2004 से भ्रष्टाचार की छाया मंडराने लगी। तब के वीसी दिलीप सिन्हा पर आरोप लगा कि उन्होंने फर्जी अंकपत्र के आधार पर अपने एक रिश्तेदार को गणित का प्राध्यापक बना दिया। उन्होंने देशभर में कई कॉलेजों को अवैध रूप से मान्यता पत्र जारी कर दिया। दोनों ही मामलों में केंद्रीय जाँच टीम ने सिन्हा के खिलाफ आरोपों को सही पाया और उन्हें जेल भी हुई। उनके बाद आए वीसी सुजीत बासु के जमाने में टैगोर को मिले नोबेल पुरस्कार के मेडल और अन्य बहुमूल्य पेंटिंग आदि चोरी चले गए और अब वीसी रजत कांत राय के खिलाफ आरोपों का पुलिंदा! आश्रम से जुड़े रहे कुछ ऐसे लोगों की मानें तो अगर 1951 में विश्वभारती को यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन के अंतर्गत लाए जाने के बजाय इसके मूल स्वरूप को बचाए रखते हुए कोई अलग दर्जा दिया जाता तो शायद यहाँ के परिवेश में राजनीति, गुटबाजी, चूहादौड़ और अन्य गंदगियों का प्रवेश नहीं होता।

यह भारत का अकेला ऐसा विश्वविद्यालय है जहाँ केजी से लेकर डॉक्टरेट तक की पढ़ाई की व्यवस्था है। गुरुदेव ने ऐसे शैक्षणिक केंद्र का सपना देखा था जहाँ किसी प्रकार की कोई दीवार न हो। यहाँ के बांग्ला विभाग और विद्या भावना (कला) के 41 साल तक प्रमुख रह चुके बुजुर्ग अमृतसूदन भट्टाचार्य का मानना है कि यहाँ ऐसे वीसी की जरूरत है जो टैगोर की फिलॉसफी को समझता हो। यहाँ केंद्र ने भारत के बेस्ट स्कॉलर्स को वीसी बनाया लेकिन यह देखने की कोशिश नहीं की कि वे टैगोर के विचारों को कितना समझ पाते हैं।

शायद अपने आखिरी दिनों में गुरुदेव भी आज के हालात को ताड़ चुके थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में कई दफा विश्वभारती के तेजी से विस्तार पर नाखुशी जताते हुए टिप्पणी की थी कि इसे किसी आम विश्वविद्यालय की तरह नहीं बनना चाहिए। ऐसा होने पर विश्वभारती अपना मूल स्वरूप खो बैठेगा। 1941 में टैगोर के निधन के बाद विश्वभारती को सरकारी फंड मिलना शुरू हुआ। 1951 में इसे केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा मिला। यहाँ पढ़ा चुके 92 साल के पेंटर दिनकर कौशिक के अनुसार, शायद वहीं से गड़बड़ियों का पौधारोपण हो गया। कौशिक यहाँ 1940 में नंदलाल बोस और रामकिंकर बैज से चित्रकारी सिखने आए थे। शांतिनिकेतन में ही रह रहे टैगोर खानदान के वंशज सुप्रिय टैगोर यहाँ के पाठ भवन के प्रिंसिपल की हैसियत से चार दशक पहले रिटायर हुए। उनके अनुसार, "केंद्रीय विश्वविद्यालय बनने पर यहाँ फंड अफरात आने लगा। गुरुदेव के जमाने में धन की कमी महसूस की जा रही थी जो दूर हो गई थी लेकिन नियुक्तियों और कामकाज में जिस तरह से सरकारी नियमों की पैठ बढ़ी गड़बड़ियाँ बढ़ती चली गईं।

याद करो और उगल दो!

जरा गौर कीजिए एक "टिपिकल" भारतीय स्कूल की क्लास पर: "पढ़ाते" टीचर और "पढ़ते" बच्चे। यानी टीचर बोलेंगे और बच्चे सुनेंगे व जो सुना उसे याद रखने की कोशिश करेंगे। यानी टीचर ब्लैकबोर्ड पर लिखेंगे और बच्चे अपनी कॉपी में उसे जस का तस उतारेंगे व जो उतारा उसे याद रखने की कोशिश करेंगे।

बच्चों को फिक्र कि सब कुछ याद करना है और टीचर को फिक्र कि इतने समय में सारा कोर्स पूरा करना है। आज यह पाठ निपटा दिया, कल वह और शनिवार तक उसके बाद वाला चैप्टर भी कम्पलीट करवा देना है।

इस झटपट, टारगेट ओरिएंटेड शिक्षण में वे बच्चे रोड़ा होते हैं, जो सवाल करते हैं। टाइम वेस्ट करते हैं वे बच्चे! तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार कोर्स "निपटाने" में बाधा खड़ी करते हैं। अच्छे स्टूडेंट वे होते हैं जो कुछ पूछते नहीं, सिर्फ सुनते हैं। जो सोचते नहीं, सिर्फ रटते हैं।

कहने की जरूरत नहीं कि यह प्रक्रिया न बच्चों के लिए आनंददायी है और न ही शिक्षकों के लिए। तेजी से भागती दुनिया में आज जो पढ़ाया, वह कल, परसों, नरसों कब तक उपयोगी रहेगा, कहा नहीं जा सकता।

ऐसे में निर्धारित पाठ बेवजह रटाने के बजाए होना यह चाहिए कि बच्चों में सीखने की ललक पैदा की जाए, तर्क करने का कौशल विकसित किया जाए। उनकी जिज्ञासा को खाद-पानी दिया जाए, उसमें मट्ठा न डाला जाए। तभी तो बेजान रोबोट के बजाए तैयार होंगे चीजों को जानने-समझने वाले युवा। नई खोज करने वाले युवा, नए शिखर छूने वाले युवा।

07 फ़रवरी 2010

रत्नों के प्रकार

* मासर मणि- यह अकीक पत्थर के समान होता है।

* माक्षिक- यह सोना मक्खी के रंग का पत्थर है।

* माणिक्य- यह गुलाबी तथा सुर्ख लाल रंग का होता है तथा काले रंग का भी पाया जाता है। गुलाबी रंग का माणिक्य श्रेष्ठ माना गया है।

* मूवेनजफ- यह सफेद रंग का काली धारी से युक्त पत्थर होता है। यह फर्श बनाने के काम आता है।

* मूँगा- यह लाल, सिंदूर वर्ण तथा गुलाबी रंग का होता है। यह सफेद व कृष्ण वर्ण में भी प्राप्य है। इसका प्राप्ति स्थान समुद्र है। इसका दूसरा नाम प्रवाल भी है।

* मोती- यह सफेद, काला, पीला, लाल तथा आसमानी व अनेक रंगों में पाया जाता है। यह समुद्र से सीपों से प्राप्त किया जाता है।

* रक्तमणि- यह पत्थर लाल, जामुनी रंग का सुर्ख में कत्थे तथा गोमेद के रंग का पाया जाता है, इसे 'तामड़ा' भी कहा जाता है।

* रक्ताश्म- यह पत्थर गुम, कठोर, मलिन, पीला तथा नीले रंग लिए, हरे रंग का तथा ऊपर लाल रंग का छींटा भी होता है।

* रातरतुआ- यह स्वच्छ लाल तथा गेरुआ रंग का होता है। यह रात्रि ज्वर को दूर करता है।

* लहसुनिया- यह बिल्ली के आँख के समान चमकदार होता है। इसमें पीले, काले तथा सफेद रंग की झाईं भी होती है। इसका दूसरा नाम वैदूर्य है।

* लालड़ी- यह रत्न रक्त रंग का, पारदर्शक कांतिपूर्ण, लाल रंग तथा कृष्णाभायुक्त होता है, इसे सूर्यमणि भी कहते हैं।

* लास- यह मकराने की जाति का पत्थर है।

* लूधिया- यह गुम तथा हरे रंग का होता है। इसका उपयोग खरल बनाने में किया जाता है।

* शेष मणि- यह काले डोरे से युक्त सफेद रंग का होता है। सफेद रंग के डोरे से युक्त काले रंग के पत्थर को सुलेमानी कहा जाता है।

* शैलमणि- यह पत्थर मृदु, स्वच्छ, सफेद तथा पारदर्शक होता है, इसे स्फटिक तथा बिल्लौर भी कहते हैं।
* शोभामणि- यह पत्थर स्वच्छ पारदर्शक तथा अनेक रंगों में पाया जाता है। इसे वैक्रान्त भी कहते हैं।

* संगिया- यह चाक से मिलता-जुलता मुलायम पत्थर होता है।

* संगेहदीद- यह भारी भूरापन लिए स्याही के रंग का होता है। इसका औषधि में प्रयोग होता है।

* संगेसिमाक- यह गुम सख्त तथा मलिनता लिए लाल रंग का होता है, जिस पर सफेद रंग के छींटे होते हैं। इसका उपयोग खरल बनाने तथा नीलम व माणिक्य को पीसने के काम आता है।

* संगमूसा- यह काले रंग का पत्थर होता है। इसका उपयोग प्याले व तश्तरी बनाने में होता है।

* संगमरमर- यह पत्थर सफेद, काले तथा अन्य कई रंगों में होता है। इसका उपयोग मूर्तियों तथा मकान बनाने के काम में किया जाता है।
* संगसितारा- यह कषाय रंग का पत्थर है। इसमें सोने के समान छींटे चमकते दिखाई देते हैं।
* सिफरी- यह अपारदर्शी, हरापन लिए आसमानी रंग का होता है। यह औषधि के काम में आता है।
* सिन्दूरिया- यह गुलाबी रंग का पानीदार चमकदार व मृदु पत्थर होता है।
* सींगली- यह गुम स्याही तथा रक्त मिश्रित माणिक्य जाति का पत्थर होता है। इसके अंदर छह कलाओं से युक्त सितारे होते हैं।
* सीजरी- यह अकीक के समान विविध रंगों में फूल-पत्तीदार व दाग डालने वाला पत्थर होता है।
* सुनहला- यह पीले रंग का नरम तथा पूर्ण पारदर्शक होता है।
* सूर्यकान्त- इसका रंग चमकदार श्वेत रंग का होता है।

* सुरमा- यह काले रंग का पत्थर होता है तथा इसका उपयोग नेत्रांजन बनाने में होता है।

* सेलखड़ी- यह सफेद रंग का मृदु पत्थर होता है, इसका उपयोग क्रीम, पावडर आदि बनाने के काम में किया जाता है।

* स्फटिक- यह मृदु सफेद रंग का पारदर्शी व चमकदार होता है। इसे फिटकरी भी कहा जाता है।

* सोनामक्खी- इसे स्वर्ण माक्षिक भी कहते हैं। यह कंकड़ के समान पीत वर्ण का होता है। इसका उपयोग औषधि में करते हैं।

* हजरते बेर- यह औषधि में उपयोग होने वाला मटमैला बेर के समान होता है।

* हजरते ऊद- यह पत्थर गुलाबी रंग का लचकदार तथा खुरदरा होता है।

* हरितोपल- यह हरे रंग का चमकदार पत्थर होता है।

* हकीक- यह पत्थर पीले, काले, सफेद, लाल तथा अनेक रंगों में पाया जाता है। यह अपारदर्शी होता है।

* हरितमणि- यह चिकना, कठोर, अपारदर्शी तथा सफेद काले अंगूरी व गुलाबी रंग का होता है।

* हीरा- यह सफेद, नीला, पीला, गुलाबी, काला, लाल आदि अनेक रंगों में होता है। सफेद हीरा सर्वोत्तम है तथा हीरा सभी प्रकार के रत्नों में श्रेष्ठ है।


इन्हें भी देखें :-
रत्न चिकित्सा
रत्नों क़ी  श्रेष्ठता  
नवग्रह रत्न एवं समयावधि
रत्नों के प्रकार
संयुक्त रत्न पहनना श्रेष्ठ फलदायी
रत्नों क़ी उत्त्पत्ति
रत्नों के प्राप्ति स्थान
धन देता है श्वेत मोती

संयुक्त रत्न पहनना श्रेष्ठ फलदायी

रत्न कोई भी हो अपने आपमें प्रभावशाली होता है। हीरा शुक्र को अनुकूल बनाने के लिए होता है तो नीलम शनि को। इसी प्रकार माणिक रत्न सूर्य के प्रभाव को कई गुना बड़ा कर उत्तम फलदायी होता है। मोती जहाँ मन को शांति प्रदान करता है ‍तो मूँगा उष्णता को प्रदान करता है। इसके पहनने से साहस में वृद्धि होती है।
पुखराज रत्न सभी रत्नों का राजा है। इसे पहनने वाला प्रतिष्‍ठा पाता है व उच्च पद तक आसीन हो सकता है। अपनी योग्यतानुसार रत्न पहनने से कार्य में आने वाली बाधाओं को दूर कर राह आसान बना देते हैं। यूँ तो रत्न अधिकांश अलग-अलग व अलग-अलग धातुओं में पहने जाते है। लेकिन मेरे 20 वर्षों के अनुभव से संयुक्त रत्न पहनवाकर कईयों को व्यापार में उन्नति, नौकरी में पदोन्नति, राजनीति में सफलता, कोर्ट-कचहरी में सफलता, शत्रु नाश, कर्ज से मुक्ति, वैवाहिक ‍तालमेल में बाधा को दूर कर अनुकूल बनाना, संतान कष्ट, विद्या में रुकावटें, विदेश, आर्थिक उन्नति आदि में सफल‍ता दिलाई।
जन्मपत्रिका के आधार पर व ग्रहों की स्थितिनुसार संयुक्त रत्न पहन कर उत्तम लाभ पाया जा सकता है। संयुक्त रत्न में माणिक-पन्ना, पुखराज-माणिक, मोती-पुखराज, मोती-मूँगा, मूँगा-माणिक, मूँगा-पुखराज, पन्ना-नीलम, नीलम-हीरा, हीरा-पन्ना, माणिक-पुखराज-मूँगा, माणिक-पन्ना, मूँगा भी पहना जा सकता है।
क्या नहीं पहना जा सकता इसे भी जान लेना आवश्यक है। लहसुनियाँ-हीरा, मूँगा-नीलम, नीलम-माणिक। संयुक्त रत्न तभी पहने जाते है जब जन्मपत्रिका में देख व अनुकूल ग्रहों की अवस्था हो या दशा-अन्तर्दशा चल रही है। ऐसी स्थिति में श्रेष्‍ठ फलदायी होते हैं।
कभी-कभी व्यापार नहीं चल रहा हो, अच्छी सफलता नहीं मिल रही हो तो चार रत्न यथा पुखराज-मूँगा, माणिक व पन्ना पहनें तो सफलता मिलने लग जाती है। रत्नों की सफलता तभी मिलती है जब शुभ मुहूर्त में उसी के नक्षत्र में बने हो या जो ग्रह प्रभाव में तेज हो उसके नक्षत्र में बने हो व पहनने का भी उसी ग्रह के नक्षत्र में हो तब लाभ भी कई गुना बढ़ जाता है।

रामायण – उत्तरकाण्ड - वृत्रासुर की कथा

एक दिन श्रीरामचन्द्रजी ने भरत और लक्ष्मण को अपने पास बुलाकर कहा, "हे भाइयों! मेरी इच्छा राजसूय यज्ञ करने की है क्योंकि वह राजधर्म की चरमसीमा है। इस यज्ञ से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं तथा अक्षय और अविनाशी फल की प्राप्ति होती है। अतः तुम दोनों विचारकर कहो कि इस लोक और परलोक के कल्याण के लिये क्या यह यज्ञ उत्तम रहेगा?"

बड़े भाई के ये वचन सुनकर धर्मात्मा भरत बोले, "महाराज! इस पृथ्वी पर सर्वोत्तम धर्म, यश और स्वयं यह पृथ्वी आप ही में प्रतिष्ठित है। आप ही इस सम्पूर्ण पृथ्वी और इस पर रहने वाले समस्त राजा भी आपको पितृतुल्य मानते हैं। अतः आप ऐसा यज्ञ किस प्रकार कर सकते हैं जिससे इस पृथ्वी के सब राजवंशों और वीरों का हमारे द्वारा संहार होने की आशंका हो?" भरत के युकतियुक्त वचन सुनकर श्रीराम बहुत प्रसन्न हुये और बोले, "भरत! तुम्हारा सत्यपरामर्श धर्मसंगत और पृथ्वी की रक्षा करने वाला है। तुम्हारा यह उत्तम कथन स्वीकार कर मैं राजसूय यज्ञ करने की इच्छा त्याग देता हूँ।"

तत्पश्चात लक्ष्मण बोले, "हे रघुनन्दन! सब पापों को नष्ट करने वाला तो अश्वमेघ यज्ञ भी है। यदि आप यज्ञ करना ही चाहते हैं तो इस यज्ञ को कीजिये। महात्मा इन्द्र के विषय में यह प्राचीन वृतान्त सुनने में आता है कि जब इन्द्र को ब्रह्महत्या लगी थी, तब वे अशवमेघ यज्ञ करके ही पवित्र हुये थे।" श्री राम द्वारा पूरी कथा पूछने पर लक्ष्मण बोले, "प्राचीनकाल में वृत्रासुर नामक असुर पृथ्वी पर पूर्ण धार्मिक निष्ठा से राज्य करता था। एक बार वह अपने ज्येष्ठ पुत्र मधुरेश्वर को राज्य भार सौंपकर कठोर तपस्या करने वन में चला गया। उसकी तपस्या से इन्द्र का भी आसन हिल गया। वह भगवान विष्णु के पास जाकर बोले कि प्रभो! तपस्या के बल से वृत्रासुर ने इतनी अधिक शक्ति संचित कर ली है कि मैं अब उस पर शासन नहीं कर सकता। यदि उसने तपस्या के फलस्वरूप कुछ शक्ति और बढ़ा ली तो हम सब देवताओं को सदा उसके आधीन रहना पड़ेगा। इसलिये प्रभो! आप कृपा करके सम्पूर्ण लोकों को उसके आधिपत्य से बचाइये। किसी भी प्रकार उसका वध कीजिये।


"देवराज इन्द्र की यह प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु बोले कि यह तो तुम जानते हो देवराज! मझे वृत्रासुर से स्नेह है। इसलिये मैं उसका वध नहीं कर सकता परन्तु तुम्हारी प्रार्थना भी मैं अस्वीकार नहीं कर सकता। इसलिये मैं अपने तेज को तीन भागों में इस प्रकार विभाजित कर दूँगा जिससे तुम स्वयं वृत्रासुर का वध कर सको। मेरे तेज का एक भाग तुम्हारे अन्दर प्रवेश करेगा, दूसरा तुम्हारे वज्र में और तीसरा पृथ्वी में ताकि वह वृत्रासुर के धराशायी होने पर उसका भार सहन कर सके। भगवान से यह वरदान पाकर इन्द्र देवताओं सहित उस वन में गये जहाँ वृत्र तपस्या कर रहा था। अवसर पाकर इन्द्र ने अपने शक्‍तिशाली वज्र वृत्रासुर के मस्तक पर दे मारा। इससे वृत्र का सिर कटकर अलग जा पड़ा। सिर कटते ही इन्द्र सोचने लगे, मैंने एक निरपराध व्यक्‍ति की हत्या करके भारी पाप किया है। यह सोचकर वे किसी अन्धकारमय स्था में जाकर प्रायश्‍चित करने लगे। इन्द्र के लोप हो जाने पर देवताओं ने विष्णु भगवान से प्रार्थना की कि हे दीनबन्धु! वृत्रासुर मारा तो आपके तेज से गया है, परन्तु ब्रह्महत्या का पाप इन्द्र को भुगतना पड़ रहा है। इसलिये आप उनके उद्धार का कोई उपाय बताइये। यह सुनकर विषणु बोले कि यदि इन्द्र अश्‍वमेघ यज्ञ करके मुझ यज्ञपुरुष की आराधना करेंगे तो वे निष्पाप होकर देवेन्द्र पद को प्राप्त कर लेंगे। इन्द्र ने ऐसा ही किया और अश्‍वमेघ यज्ञ के प्रताप से उन्होंने ब्रह्महत्या से मुक्‍ति प्राप्त की।"

सोरायसिस रोग

सोरायसिस, जिसे हिन्दी में विचर्चिका, चम्बल या अपरस रोग कहते हैं, बहुत ही कष्टदायक, कष्टसाध्य और किसी किसी केस में असाध्य (लाइलाज) रोग है। इस रोग का सही-सही निदान नहीं हो पाया है कि यह रोग किन कारणों से होता है।

इस रोग में पूरे शरीर में कहीं भी खुजली चला करती है, त्वचा पर लाल-लाल, गोलाकार चवन्नी-अठन्नी के आकार के चकत्ते (चठ्ठे या दंदोड़े) बनते हैं, त्वचा पर छिछड़े जैसी परतें उभर आती हैं, जिन्हें खुजाने पर रक्त निकल आता है। ये चकत्ते पूरे शरीर में, यहाँ तक कि हथेली और पैर के तलुओं में भी, निकल आते हैं।

यह रोग स्त्री या पुरुष किसी को भी किसी भी आयु में हो सकता है। इस रोग के प्रभाव से त्वचा मलिन होने लगती है, धीरे-धीरे काली पड़ जाती है। इस रोग के प्रभाव से सिर की त्वचा में भी खुजली चलने लगती है और सिर के बाल उड़ने लगते हैं।

चिकित्सा
इसकी एक चिकित्सा है, जिसे 6-7 मास तक नियमित रूप से बिना भूले-चूके, करना चाहिए-

चोपचन्यादि चूर्ण 50 ग्राम, बंगभस्म, लौहभस्म, ताप्यादि लोह, तीनों 10-10 ग्राम, गन्धक रसायन 30 ग्राम, स्वर्णमाक्षिक भस्म व समीर पन्नग रस 5-5 ग्राम। सबको ठीक से मिलाने के लिए खरल में डालकर थोड़ी देर तक घुटाई करें, फिर इस मिश्रण की 60 पुड़िया बनाकर बॉटल या डिब्बे में रख लें। सुबह-शाम 1-1 पुड़िया शहद में मिलाकर चाट लें। इसके एक घण्टे बाद अरोग्यवर्द्धिनी वटी विशेष नं। 1 और पंच निम्बादि वटी की 2-2 गोली पानी के साथ लें।


भोजन करने के बाद दोनों वक्त खदिरारिष्ट, महामंजिष्ठादि काढ़ा और रक्त शोधान्तक या रक्तदोषान्तक-तीनों 4-4 चम्मच आधा कप पानी में डालकर पिएं। सोने से पहले चन्दनबला लाक्षादि तेल पूरे शरीर पर लगाएं। सुबह उठने के बाद चर्म रोगनाशक तेल पूरे शरीर पर लगाएं और आधा घंटे बाद कुनकुने गर्म पानी से स्नान करें।

06 फ़रवरी 2010

संयुक्त घराना के अकार्य

अनेक प्रकार्यो के साथ-साथ, संयुक्त परिवार अथवा घराना की संरचना में कई अकार्य भी देखने में आते हैं। समाजशास्त्रियों द्वारा निम्नलिखित अकार्यों की चर्चा की गई है:-
संयुक्त घर छोटी-छोटी बातों पर संघर्ष का केंद्र होता है। सदस्यों के बीच में आपसी तालमेल, समायोजन तथा सात्मीकरण का सामान्यत: अभाव होता है। मतभेद एवं कटुता से आंतरिक अंतर्विरोध पैदा होता है। जो संयुक्त घराने के विघटन के लिए रास्ता तैयार करता है।
संयुक्त घराने को सदस्यों के स्वतंत्र व्यक्तित्व के विकास में बाधा माना जाता है। सामान्यत: घर का मुखिया सारे महत्त्वपूर्ण निर्णय खुद लिया करता है फलस्वरूप हर व्यक्ति की पसंद या नापसंद का खयाल रखना संयुक्त घर में संभव नहीं हो पाता। इस तरह स्वतंत्र रचनात्मक संभावना का पूरी तरह विकास एवं दोहन नहीं हो पाता।
कभी-कभी नये विवाहित जोड़ी के बीच आत्मीयता का विकास नहीं हो पाता फलस्वरूप मनोवैज्ञानिक असंतोष एवं नासमझी का माहौल रहता है। संयुक्त परिवार व्यवस्था के अंतर्गत विवाहित युवा स्त्रियों का अधिकांश समय घर के सभी सदस्यों की आवश्यकता पूर्ति में खर्च होता है। इसके कारण उन्हें उचित तरीके से अपने स्वास्थ्य पर धयान देने या आनंद उठाने के लिए समय या अवसर नहीं मिल पाता।
संयुक्त घराने में बुर्जुग तथा युवा दोनों प्रकार के सदस्य पाये जाते है, फलस्वरूप पीढ़ियों के संघर्ष कई प्रकार से उभरते रहते है। बुर्जग लोग कठोरता से पारंपरिक मूल्यों एवं विश्वासों का पालन करते हैं। वे नए सांस्कृतिक चलन एवं सीमा को स्वीकार नहीं पाते। आजकल युवा व्यक्तिवाद के पक्षञ्र होने लगे है एवं पारंपरिक मूल्यों को अञ्निायकवादी, पक्षपातपूर्ण एवं अन्यायी मानकर इनका विरोध करने लगे हैं। इसके कारण कई बार परिवार में समस्याएँ पैदा हो जाती है और घर की शांति भंग हो जाती है। विभिन्न पीढ़ियों की सामाजिक अभिरूचियों में अंतर होता है।

संयुक्त परिवार में परिवर्तन
संयुक्त परिवार में निम्नलिखित परिवर्तनों की चर्चा समाजशास्त्रियों द्वारा अक्सर की जाती है :-
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संरचनात्मक परिवर्तन
जिन तथ्यों एवं मूल्यों ने संयुक्त परिवार या घराने की व्यवस्था का पोषण किया, स्थायित्व दिया एवं कायम रखा वे निम्नलिखित हैं :-
(1) पुत्रों में पिता के प्रति समर्पण की भावना,
(2) आर्थिक रूप से समर्थ सदस्यों का संयुक्त परिवार के अन्य सदस्यों की मदद के लिए तत्पर रहना जो खुद अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ हैं,
(3) बुजुर्ग स्त्री-पुरूष के लिए राज्य द्वारा नियोजित सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था का अभाव होना, एवं
(4) जमीन, पूंजी एवं श्रम के चतुर्दिक लाभ की दृष्टि से संगठन एवं दोहन के लिए संयुक्त परिवार के आकार द्वारा दिया गया भौतिक प्रोत्साहन।

अब संयुक्त घरों में निम्नलिखित कारणों से विघटन हो रहा है :-
(1) भाइयों की आमदनी में अंतर जो घर में कलह को जन्म देता है।
(2) बेटों और उनकी पत्नियों में पारिवारिक जिम्मेदारी निभाने की भावना में कमी।
(3) पाश्चात्य शैली के प्रभावस्वरूप युवकों मे व्यक्तिवाद का विकास।
(4) अर्थव्यवस्था में सेवाक्षेत्र का बढ़ता महत्त्व तथा बाहरी आमदनी के बढ़ते अवसर के कारण नाभिकीय परिवारों को वरीयता।

प्रकार्यात्मक परिवर्तन
इसकी तीन स्तरों पर पड़ताल की जा सकती है :
1। पति-पत्नी संबंध - पारंपरिक घरों में निर्णय लेने के काम में पत्नी, अपने पति के सहायक की भूमिका निभाती थी। परन्तु समकालीन घरों में पत्नी, अपने पति के बराबर ज्यादा सक्रिय भूमिका निभाती है। फलस्वरूप घर के कार्य एवं बाहर के कार्य की दृष्टि से पति-पत्नी एक - दूसरे के साथ सहयोग एवं समयोजन करने लगे हैं।
2। माता-पिता एवं बच्चों का संबंध - पारंपरिक परिवारों में शक्ति एवं अधिकार पूरी तरह से र् कत्ता के हाथ में होता था और उसे शिक्षा, व्यवसाय एवं बच्चों के विवाह के बारे में निर्णय लेने के लिए परिवार में असीमित अधिकार प्राप्त होते थे। समकालीन परिवारों में अब अधिकांशत: माता-पिता एवं उनके बच्चे सामूहिक रूप से मिल-जुल कर निर्णय करने लगे हैं।
3। सास-श्वसुर (ससुर) के साथ बहू का संबंध - इस संबंध में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया है। शिक्षित बहू अपने ससुर के सामने पर्दा नहीं रखती। सास-बहू के संबंध में भी पहले की तुलना में अब कम कटुता है। सास अब शक्तिशाली पद नहीं रहा परन्तु वह ससुर की तरह एक सम्मानीय संबंधी अब भी है।

जीवन साथी चुनने के नियम

समाज के एक खास समूह की पहचान व पवित्रता कायम रखने के लिए हिन्दू स्मृतिकारों ने योग्य साथी चुनने या विवाह करने के लिए विस्तृत नियम तथा रीतियों की व्यवस्था दी है। ये नियम दो सिध्दांतों पर आधारित हैं, यथा अन्तर्विवाह के नियम तथा बहिर्विवाह के नियम।

अन्तर्विवाह - जीवन साथी चुनने के लिए अपनी जाति या उपजाति के अंतर्गत ही चुनाव करने की स्वतंत्रता है।
1। जातिय अंतर्विवाह : इस नियम के अंतर्गत एक व्यक्ति को अपनी जाति के अंतर्गत ही विवाह करने की छूट है। कोई व्यक्ति अपनी जाति के बाहर विवाह नहीं कर सकता। इस नियम को नहीं मानने वाले व्यक्ति को जाति पंचायत के द्वारा सामाजिक एवं आर्थिक रूप से कठोर दंड दिया जाता है। दंड के फलस्वरूप व्यक्ति के साथ जातिगत सहयोग और सुरक्षा के हर दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं और उसे जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है।

2। उपजातिय अंतर्विवाह : प्रत्येक जाति अनेक उपजाति में विभक्त होती है जिनमें तुलनात्मक श्रेष्ठता को लेकर अंतर्विरोध होता है। ऐसे प्रत्येक समूह धीरे-धीरे अंतर्विवाही बन जाते है। जैसे ब्राह्मण जाति के अंतर्गत ही सारस्वत, गौड़, कान्यकुब्ज जैसी उपजातियाँ हैं जो अंतर्विवाही हैं।

बहिर्विवाह :
बहिर्विवाह के नियम के अनुसार हर व्यक्ति को अपने समूह के बाहर विवाह करना होता है। यद्यपि अंतर्विवाह एवं बहिर्विवाह के नियम प्रत्यक्ष रूप में विराधी दिखाई पड़ते हैं परन्तु दोनों नियम एक - दूसरे के पूरक है तथा दो स्तरों पर व्यवहारित होते हैं। हिंदू समाज में बहिर्विवाह के दो रूप पाये जाते हैं :-
1. सगोत्र बहिर्विवाह :
एक गोत्र से जुड़े व्यक्ति सगोत्रीय कहलाते हैं। गोत्र एक वंश समूह (क्लान) या परिवार समूह है, जिसके सदस्य आपस में विवाह करने से प्रतिबंञ्ति होते हैं। यह मान्यता है कि सभी सगोत्रीय एक ही पूर्वज की संतान होते हैं और उन सभी में रक्त संबंध होता है। सगोत्र बहिर्विवाह के नियम को हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 ने अप्रभावी बना दिया है।

2. सपिण्ड बहिर्विवाह :
सपिण्ड लोग एक दूसरे के रक्त संबंधी होते हैं। पिता की ओर से सात एवं माता की ओर से पांच पीढ़ियों तक जुड़े रक्त संबंध सपिण्ड कहलाते हैं। एक व्यक्ति अपने जीवन साथी का चुनाव सपिण्ड समूह के अंतर्गत नही कर सकता। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 सामान्यत: सपिण्ड अन्तर्विवाह की इजाजत नहीं देता, परन्तु दक्षिण भारत में प्रचलित ममेरे-फुफेरे भाई बहनों को भी प्रथागत रूप में अपवाद स्वरूप स्वीकार करता है। सपिण्ड बहिर्विवाह का नियम सपिण्ड रिश्तेदारों में विवाह का निषेध करता है। जीवित व्यक्ति और उसके मरे हुए पुरखों के बीच संबंध को सपिण्ड संबंध कहते हैं। सपिण्ड का अर्थ है (1) वे जिनके शरीर का पिण्ड एक समान हैं तथा (2) वे जो मृत पूर्वज को एक साथ पिण्ड दान करते हैं। हिंदु स्मृतिकार सगोत्र की अलग-अलग परिभाषा देते हैं। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 पिता की तरफ से पांच पीढ़ियों एवं माता की तरफ से तीन पीढ़ियों तक सपिण्ड संबंध से जुड़े व्यक्तियों के बीच वैवाहिक संबंध की स्वीकृति नहीं देता।

अंतर्जातीय विवाह :
दो भिन्न जातियों के स्त्री-पुरूष के बीच के वैवाहिक संबंध को अंतर्जातीय विवाह कहते हैं। उदाहरण के लिए, जब ब्राह्मण जाति की एक स्त्री बुनकर जाति के एक पुरूष से विवाह करती है तो इसे अंतर्जातीय विवाह कहते हैं। प्रथा के अनुसार अंतर्जातीय विवाह को स्वीकृति नहीं है, परंतु अब शहरी इलाकों में इस प्रथा का पूरी तरह से पालन नहीं किया जाता।

विवाह के अन्य नियम :
1. अनुलोम विवाह - अनुलोम उस विवाह को कहते है, जिसमें उच्च कुल का पुरूष निम्न कुल की स्त्री से विवाह करता है ।
2। प्रतिलोम विवाह - प्रतिलोम उस विवाह को कहते हैं, जिसमें उच्च कुल की स्त्री निम्न कुल के पुरूष से विवाह करती है। विशेष विवाह अध्िनियम 1954, हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, हिन्दू विवाह कानून (संशोञ्न) अधिनियम 1976 इत्यादि के कारण अब अंतर्जातीय विवाह को कानूनी मान्यता प्राप्त हो गई है। फलस्वरूप प्रतिलोम नियम कमजोर हो गया है।

हिन्दू विवाह के प्रकार

हिन्दू धर्म ग्रंथों में विवाह के आठ प्रकार का वर्णन है जो निम्नलिखित हैं :

1। ब्राह्म विवाह : हिन्दुओं में यह आदर्श, सबसे लोकप्रिय और प्रतिष्ठित विवाह का रूप माना जाता है। इस विवाह के अंतर्गत कन्या का पिता अपनी कन्या के लिए विद्वता, सामर्थ्य एवं चरित्र की दृष्टि से सबसे सुयोग्य वर को विवाह के लिए आमंत्रित करता है। और उसके साथ पुत्री का कन्यादान करता है। इसे आजकल सामाजिक विवाह या कन्यादान विवाह भी कहा जाता है।

2। दैव विवाह : इस विवाह के अंतर्गत कन्या का पिता अपनी सुपुत्री को यज्ञ कराने वाले पुरोहित को देता था। यह प्राचीन काल में एक आदर्श विवाह माना जाता था। आजकल यह अप्रासंगिक हो गया है।

3। आर्ष विवाह : यह प्राचीन काल में सन्यासियों तथा ऋषियों में गृहस्थ बनने की इच्छा जागने पर विवाह की स्वीकृत पध्दति थी। ऋषि अपनी पसन्द की कन्या के पिता को गाय और बैल का एक जोड़ा भेंट करता था। यदि कन्या के पिता को यह रिश्ता मंजूर होता था तो वह यह भेंट स्वीकार कर लेता था और विवाह हो जाता था परंतु रिश्ता मंजूर नहीं होने पर यह भेंट सादर लौटा दी जाती थी।

4। प्रजापत्य विवाह : यह ब्राह्म विवाह का एक कम विस्तृत, संशोञ्ति रूप था। दोनों में मूल अंतर सपिण्ड बहिर्विवाह के नियम तक सीमित था। ब्राह्म विवाह का आदर्श पिता की तरफ से सात एवं माता की तरफ से पांच पीढ़ियों तक जुड़े लोगों से विवाह संबंध नहीं रखने का रहा है। जबकि प्रजापत्य विवाह पिता की तरफ से पांच एवं माता की तरफ से तीन पीढ़ियों के सपिण्डों में ही विवाह निषेध की बात करता है।

5। आसुर विवाह : यह विवाह का वह रूप है जिसमें ब्राह्म विवाह या कन्यादान के आदर्श के विपरीत कन्यामूल्य एवं अदला-बदली की इजाजत दी गई है। ब्राह्म विवाह में कन्यामूल्य लेना कन्या के पिता के लिए निषिध्द है। ब्राह्म विवाह में कन्या के भाई और वर की बहन का विवाह (अदला-बदली) भी निषिध्द होता है।

6। गंधर्व विवाह : यह आधुनिक प्रेम विवाह का पारंपरिक रूप था। इस विवाह की कुछ विशेष परिस्थितियों एवं विशेष वर्गों में स्वीकृति थी परन्तु परंपरा में इसे आदर्श विवाह नहीं माना जाता था।

7। राक्षस विवाह : यह विवाह आदिवासियों में लोकप्रिय हरण विवाह को हिन्दू विवाह में दी गई स्वीकृति है। प्राचीन काल में राजाओं और कबीलों ने युध्द में हारे राजा तथा सरदारों में मैत्री संबंध बनाने के उद्देश्य से उनकी पुत्रियों से विवाह करने की प्रथा चलायी थी। इस विवाह में स्त्री को जीत के प्रतीक के रूप में पत्नी बनाया जाता था। यह स्वीकृत था परंतु आदर्श नहीं माना जाता था।

8। पैशाच विवाह : यह विवाह का निकृष्टतम रूप माना गया है। यह ञेखे या जबरदस्ती से शीलहरण की गई लड़की के अधिकारों की रक्षा के लिए अंतिम विकल्प के रूप में स्वीकारा गया विवाह रूप माना गया है। इस विवाह से उत्पन्न संतान को वैध संतान के सारे अधिकार प्राप्त होते हैं।

संत शिरोमणि गुरु रविदास

संत रविदास की गणना केवल भारत में ही नहीं अपितु विश्व के महान संतों में की जाती है। जिन्हें संत शिरोमणि गुरु रविदास से नवाजा गया है। संत रविदास की वाणी के अनुवाद संसार की विभिन्न भाषाओं में पाए जाते हैं, जिसका मूल कारण यह है कि संत रविदास उस समाज से सम्बद्ध थे, जो उस समय बौद्धिकता और ज्ञान के नाम से पूर्णतः अछूता था।

समय जहाँ विविध प्रकार की समस्याओं को लेकर आता है वहीं समाधान भी अपने आगोश में छिपाए रहता है। परंतु महान व्यक्तित्व समय की परिधि को लाँघकर अपने बाद के हजारों वर्षों बाद तक प्रेरणा प्रदान करते रहते हैं। वे ऐसे कार्य की शुरुआत करते हैं जिनका मूल्य समय के क्रूर प्रहारों से कम नहीं हो सकता। ऐसे संत रविदासजी की जयंती, जो पूरे विश्व में मनाई जाती है।



आज दिवस लेऊँ बलिहारा,
मेरे घर आया प्रभु का प्यारा।

आँगन बंगला भवन भयो पावन,
प्रभुजन बैठे हरिजस गावन।

करूँ दंडवत चरण पखारूँ,
तन मन धन उन परि बारूँ।

कथा कहैं अरु अर्थ विचारैं,
आप तरैं औरन को तारैं।

कहिं रैदास मिलैं निज दास,
जनम जनम कै काँटे पांस।


ऐसे पावन और मानवता के उद्धारक सतगुरु रविदास का संदेश निःसंदेह दुनिया के लिए बहुत कल्याणकारी तथा उपयोगी है।

भारतीय रहस्यदर्शी मेहर बाबा

सूफी, वेदांत और रहस्यवादी दर्शन से प्रभावित मेहर बाबा एक रहस्यवादी सिद्ध पुरुष थे। कई वर्षों तक वे मौन साधना में रहे। मेहर बाबा के भक्त उन्हें परमेश्वर का अवतर मानते हैं।

25 फरवरी 1894 में मेहर बाबा का जन्म पूना में पारसी परिवार में हुआ। 31 जनवरी 1969 को मेहराबाद में उन्होंने देह छोड़ दी। उनका मूल नाम मेरवान एस। ईरानी था। वह एस. मुंदेगर ईरानी के दूसरे नंबर के पुत्र थे।

बाबा एक अच्छे कवि और वक्त थे तथा उन्हें कई भाषाओं का ज्ञान था। 19 वर्ष की आयु में उनकी मुलाकात रहस्यदर्शी महिला संत हजरत बाबाजान से हुई और उनका जीवन बदल गया। इसके बाद उन्होंने नागपुर के हजरत ताजुद्दीन बाबा, केदगाँव के नारायण महाराज, शिर्डी के साँई बाबा और साकोरी के उपासनी महाराज अर्थात पाँच महत्वपूर्ण हस्तियों को अपना गुरु माना।

मेहर मंदिर : उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले में बाबा के भक्त परमेश्वरी दयाल पुकर ने 1964 ई। में मेहर मंदिर का निर्माण करवाया था। 18 नवम्बर 1970 ई. को मंदिर में अवतार मेहर बाबा की प्रतिमा स्थापित की गई थी। यहाँ पर प्रत्येक वर्ष 18 और 19 नवम्बर को मेहर प्रेम मेले का आयोजन किया जाता है। इसके अलावा भी मेहर बाबा के कई मंदिर है।

मेहराबाद आश्रम : हालाँकि मूलत: उनका विशालकाय आश्रम महाराष्ट्र के अहमदनगर के पास मेहराबाद में हैं जो मेहर बाबा के भक्तों की गतिविधियों का केंद्र माना जाता है। इसके पहले मुंबई में आश्रम था।

गजानन महाराज

समर्थ श्री गजानन महाराज का प्रगटोत्सव 5 फरवरी को मनाया जाता है। पृथ्वी पर समस्त जग का कल्याण करने के लिए समय-समय पर संतों के अवतार होते हैं और वे परोपकार में ही अपनी देह खपाते रहते हैं। ऐसे ही एक संत है- श्री गजानन महाराज शेगाँव वाले। उनका समाधि मंदिर शेगाँव में ही है।

गजानन महाराज दिगंबर वृत्ति के सिद्ध कोटि के साधु थे। जो भी मिले खा लेना, कहीं भी रह लेना, कहीं भी भ्रमण करना और मुख से हमेशा परमेश्वर का भजन करते रहना, ऐसी उनकी दिनचर्या थी।

भक्तों के संकट दूर करके परमेश्वर दर्शन करवाने के सैकड़ों उदाहरण उनके चरित्र में हैं। शेगाँव स्थित गजानन महाराज के मंदिर में हमेशा भक्‍तों की भीड़ लगी रहती है। शेगाँव का नाम महाराष्‍ट्र के प्रमुख तीर्थस्‍थानों में शामिल है।


महाराष्ट्र में बुलढाना जिले में सेंट्रल रेलवे के मुंबई-नागपुर मार्ग पर शेगाँव स्थित है। श्री गजानन का मंदिर बीचों-बीच स्थित है जिसके महाद्वार की खिड़की रात भर खुली रहती है। उनका समाधि मंदिर गुफा में स्थित है। मंदिर परिसर में वर्ष भर भजन व प्रवचन चलते रहते हैं। रोजाना सुबह होने वाली पूजा-अर्चना विधिवत चलती है। जिसमें काकड़ आरती और शयन आरती भी‍ शामिल हैं।

श्री गजानन महाराज का प्रकट दिवस माघ वद्यानवमी (फरवरी माह) में तथा इनकी पुण्यतिथि (ऋषि पंचमी के दिन) पर शेगाँव में प्रमुख उत्सव मनाया जाता है, मंदिर के चारों ओर रोशनी की जाती है। हाथी, घोड़ा, रथ, पालकी, दिंडी आदि के साथ जुलूस निकाला जाता है।

शहरी चमक-दमक से दूर शेगाँव में सादगी और महाराष्‍ट्र के ग्रामीण जीवन की सहजता की झलक मिलती है। जो लोग यहाँ आध्‍यात्मिक शांति की तलाश में आते हैं, उनके लिए यहाँ पर बहुत कुछ हैं। मंदिर परिसर में ही एक धार्मिक वाचनालय है। जो भक्‍तों के लिए खुला रहता है। पास में ही 'गजानन वाटिका' नामक सुंदर वाटिका है और एक प्राणी संग्रहालय भी हैं। बाहर से आने वाले भक्तों की सुविधा के लिए मंदिर परिसर में ही भव्य 'भक्त निवास' बना हुआ है, जहाँ कम दरों पर कमरे मिलते हैं। साथ ही महाप्रसादी का वितरण भी किया जाता है।

वृन्दावन की रासलीला

भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाओं की मनोहारी प्रस्तुति अपने देश की प्राचीन एवं गौरवशाली परंपरा रही है, जिसकी प्रमुख रंग-स्थली वृन्दावन है। श्रावण के महीने में तो यहाँ रासलीला की निराली ही धूम रहती है। पुरानों में कहा गया है कि माया के आवरण से रहित जीव का ब्रहम के साथ विलास ही रास है। इसमें लौकिक काम नहीं है।

अतः यह साधारण स्त्री- पुरुष का नहीं, अपितु जीव और इश्वर का मिलन है।
रासलीला के मंचन की शुरुआत महाप्रभु वल्लभाचार्य जी की प्रेरणा से आज से लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व भक्तिकाल में हुई थी। भक्तिकाल में जब मुसलमानों का शासन था तब महाप्रभु वल्लभाचार्य जी ने चौरासी कोस में स्थित समूचे ब्रज मंडल का भ्रमण कर उन-उन स्थानों को खोजा था, जहाँ-जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण ने लीला की थी। श्रीमद्भागवत के प्रसंगों के आधार पर बरसाना के निकट करहला गाँव में रासलीला के दौरान भगवान् श्रीकृष्ण के स्वरूप को मोर पंखों का जो मुकुट धारण कराया था, वह आज भी करहला में सुरक्षित रखा हुआ है।

श्री नारायण भट्ट को रास मंडलों का संस्थापक माना जाता है। नारायण भट्ट जी ने संवत 1604 में बरसाना के भ्रमेशवर गिरी में से राधारानी का प्राकटय किया था। भट्ट जी नए कुल 28 रास मंडलों की स्थापना की थी। उसी समय वृन्दावन में श्रीहित हरिवंश जी, स्वामी श्री हरिदास जी एवं श्री हरिराम व्यास ने भी पांच रास्मंदलों की स्थापना की। नारायण भट्ट ने बरसाना में बूढी लीलाओं के मंचन की भी शुरुआत की। यह लीलाएं आज भी संत समाज के सहयोग से चिकसोंली के फत्ते स्वामी के वंशज बालकों के द्वारा बाबा चतुर्भुज दास पुजारी के निर्देशन में की जाती हैं। इस समय यह उत्तर प्रदेश की अत्यंत समृद्ध लोक नाट्यकला है। नृत्य, संगीत, नाटक और कविता इसके प्रमुख अंग है। समस्त नौ रस इसमें निहित है।

रासलीला के प्रसंगों को दिन ब दिन विकसित करने में संतों, कवियों और भक्तों आदि का विशेष योगदान रहा है। जयदेव, सूरदास, चतुर्भुज दास, स्वामी हरिदास, कुम्हन दास, नंदास, हरिराम व्यास एवं परमानंद आदि ने रासलीला को मजबूत धरातल प्रदान किया।

इस समय ब्रज में दो प्रकार की रास मंडलियाँ प्रमुख हैं - बायें मुकुटवाली जो कि निम्बार्की मंडली कहलाती है एवं दायें मुकुटवाली, जो कि वल्लभकुली मंडली कहलाती हैं। रासलीला के दो मुख्य भाग है 'रास' और 'लीला'। रास वह हैं जिसमें मंगलाचरण, आरती, गायन, वादन व नृत्य आदि होता है, जिसे 'नृत्य रास' या नृत्य रास' कहा जाता है। लीला में भगवान् श्रीकृष्ण की सुमधुर रसमयी, चंचल व गंभीर निकुंज लीलाओं एवं पौराणिक कथाओं की लीलाओं व भक्त चरित्रों आदि का अभिनयात्मक प्रदर्शक गात्मक और पात्मक शैली में होता है।

रासलीला में 'राधा' व 'कृष्ण' के स्वरूपों को साक्षात् भगवान् मानकर पूजा जाता है। दर्शक उनकी आरती उतारते हैं।
रासलीला की एक प्रमुख लीला महारास। इसके जनक स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण थे। उन्होंने इस लीला को शरद पूर्णिमा की रात्री में वृन्दावन के यमुना तट स्थित वंशीवट पर सोलह हजार एक सुन आठ गोपिकाओं के साथ किया था। सर्वप्रथम उन्होनें अपनी लोक विमोहिनी बंसी बजा कर यमुना के किनारे गोपिकाओं को एकत्रित किया, फिर योग माया के बल पर प्रत्येक गोपी के साथ एक- एक कृष्ण प्रकट किये। तत्पश्चात महारास लीला की। इस लीला में गोपियाँ अनंत थयें, लेकिन उनमएं से प्रत्येक को यह अनुभव हो रहा था कि श्रीकृष्ण के वाल उन्हीं के साथ हैं। भगवान् शिव भी गोपी का रूप धारण कर इस अद्वित्य लीलो को देखने के लिए आये थे। तभी से भगवान् शिव को गोपेश्वर महादेव भी कहा जाता है। अन्य देवता भी इस लीलो को देखने के लिए अपने विमानों में बैठकर आकाश पर छाए रहे थे। यह लीला आज भी प्राय: शरद पूर्णिमा पर ही की जाती है। चूंकि इस लीला मएं अनेक श्रीक्रिश्नों की आवश्यकता पड़ती है, इसलिए इसमें अनेक रासमं डालियों के ठाकुर ( भगवान् श्रीकृष्ण के स्वरुप) भाग लेते हैं। यह लीला रात्री गए प्रारंभ होकर प्रातः लगभग दो-तीन बजे तक चलती है।

महारास लीला के अतिरिक्त ' अष्ट्याम लीला' भी रासलीला की एक महत्वपूर्ण लीला मानी जाती है। तीन घंटे का एक 'याम' होने से दिन और रात के चौबीस घंटों में कुल आठ याम होते हैं, उन्हें ही अष्ट्याम कहा गया है। इन आठों यामों में ठाकुर जी (भगवान् श्रीकृष्ण) ने ब्रज में राधारानी के साथ निकुंज बिहारी के रूप में एवं नन्द बाबा के यहाँ बलराम जी के साथ जो-जो लीलाएं की थीं, उनका अभिनयात्मक प्रदर्शन किया जाता है।